ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਮਿਲਿ ਸਤਿਗੁਰ ਮੀਠ ਰਸ ਗਾਨੇ ॥੨॥
हरि का नामु अम्रित रसु चाखिआ मिलि सतिगुर मीठ रस गाने ॥२॥
सतिगुरु से मिलकर मैंने हरि-नाम रूपी अमृत रस चख लिया है, जो गन्ने के रस के समान बड़ा मीठा है॥ २ ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਗੁਰੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਨਹੀ ਭੇਟਿਆ ਤੇ ਸਾਕਤ ਮੂੜ ਦਿਵਾਨੇ ॥
जिन कउ गुरु सतिगुरु नही भेटिआ ते साकत मूड़ दिवाने ॥
जो व्यक्ति गुरु-सतिगुरु से नहीं मिले, वह मूर्ख, दीवाने एवं शाक्त हैं।
ਤਿਨ ਕੇ ਕਰਮਹੀਨ ਧੁਰਿ ਪਾਏ ਦੇਖਿ ਦੀਪਕੁ ਮੋਹਿ ਪਚਾਨੇ ॥੩॥
तिन के करमहीन धुरि पाए देखि दीपकु मोहि पचाने ॥३॥
(लेकिन उनके भी क्या वश ?) उन भाग्यहीनों की किस्मत में प्रारम्भ से ही ऐसे नीचे कर्म लिखे हुए हैं। ये माया के मोह में फँसकर यूं जलते हैं जैसे पतंगा दीपक को देखकर जल जाता है।॥३॥
ਜਿਨ ਕਉ ਤੁਮ ਦਇਆ ਕਰਿ ਮੇਲਹੁ ਤੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸੇਵ ਲਗਾਨੇ ॥
जिन कउ तुम दइआ करि मेलहु ते हरि हरि सेव लगाने ॥
हे हरि-परमेश्वर! जिनको तुम दया करके गुरु से मिला देते हो, वह तेरी सेवा-भक्ति में जुट जाते हैं।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਪਿ ਪ੍ਰਗਟੇ ਮਤਿ ਗੁਰਮਤਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਨੇ ॥੪॥੪॥੧੮॥੫੬॥
जन नानक हरि हरि हरि जपि प्रगटे मति गुरमति नामि समाने ॥४॥४॥१८॥५६॥
हे नानक ! ऐसे मनुष्य हरि-परमेश्वर के नाम का जाप करने से दुनिया में प्रसिद्ध हो जाते हैं और गुरु के उपदेश से नाम में लीन रहते हैं ॥४॥४॥१८॥५६॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਦਾ ਨਾਲਿ ਹੈ ਸੁਆਮੀ ਕਹੁ ਕਿਥੈ ਹਰਿ ਪਹੁ ਨਸੀਐ ॥
मेरे मन सो प्रभु सदा नालि है सुआमी कहु किथै हरि पहु नसीऐ ॥
हे मेरे मन ! वह स्वामी-प्रभु सदैव हमारे साथ रहता है। बताओ ! परमेश्वर से भागकर हम कहाँ जा सकते हैं ?
ਹਰਿ ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਲਏ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਹਰਿ ਆਪਿ ਛਡਾਏ ਛੁਟੀਐ ॥੧॥
हरि आपे बखसि लए प्रभु साचा हरि आपि छडाए छुटीऐ ॥१॥
सत्यस्वरूप प्रभु-परमेश्वर स्वयं ही जीवों को क्षमा कर देता है। यदि प्रभु स्वयं मनुष्य को मुक्त करे तो ही वह मुक्त होता है॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਮਨਿ ਜਪੀਐ ॥
मेरे मन जपि हरि हरि हरि मनि जपीऐ ॥
हे मेरे मन ! हृदय से हरि-परमेश्वर का हरि-नाम ही जपते रहना चाहिए।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸਰਣਾਈ ਭਜਿ ਪਉ ਮੇਰੇ ਮਨਾ ਗੁਰ ਸਤਿਗੁਰ ਪੀਛੈ ਛੁਟੀਐ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सतिगुर की सरणाई भजि पउ मेरे मना गुर सतिगुर पीछै छुटीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
हे मेरे मन ! भाग कर सतिगुरु की शरण लो। सतिगुरु का आश्रय लेने से तेरी (मोह-माया के बंधनों से) मुक्ति हो जाएगी॥ १॥ रहाउ॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਸੇਵਹੁ ਸੋ ਪ੍ਰਭ ਸ੍ਰਬ ਸੁਖਦਾਤਾ ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਸੀਐ ॥
मेरे मन सेवहु सो प्रभ स्रब सुखदाता जितु सेविऐ निज घरि वसीऐ ॥
हे मेरे मन ! उस सर्वसुखदाता परमेश्वर की सेवा-भक्ति करो, जिसकी सेवा-भक्ति करने से आत्मस्वरूप में निवास हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਇ ਲਹਹੁ ਘਰੁ ਅਪਨਾ ਘਸਿ ਚੰਦਨੁ ਹਰਿ ਜਸੁ ਘਸੀਐ ॥੨॥
गुरमुखि जाइ लहहु घरु अपना घसि चंदनु हरि जसु घसीऐ ॥२॥
गुरु के माध्यम से अपने आत्मस्वरूप रूपी घर में जाकर निवास करो और जैसे चन्दन को शिला पर घिसाया जाता है, वैसे ही हरि-यश को अपने मन पर घिसाओ॥ २॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਊਤਮੁ ਲੈ ਲਾਹਾ ਹਰਿ ਮਨਿ ਹਸੀਐ ॥
मेरे मन हरि हरि हरि हरि हरि जसु ऊतमु लै लाहा हरि मनि हसीऐ ॥
हे मेरे मन ! हरि-परमेश्वर का हरि-नाम जप। हरि-परमेश्वर का यश सर्वोत्तम है। हरि-परमेश्वर का नाम रूपी लाभ प्राप्त करके ह्रदय में सुप्रसन्न होना चाहिए।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਦੇਵੈ ਤਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਖੀਐ ॥੩॥
हरि हरि आपि दइआ करि देवै ता अम्रितु हरि रसु चखीऐ ॥३॥
यदि हरि-परमेश्वर स्वयं दया कर दे तो मनुष्य हरि-रस रूपी अमृत को चखता है॥ ३॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਜੋ ਦੂਜੈ ਲਾਗੇ ਤੇ ਸਾਕਤ ਨਰ ਜਮਿ ਘੁਟੀਐ ॥
मेरे मन नाम बिना जो दूजै लागे ते साकत नर जमि घुटीऐ ॥
हे मेरे मन ! जो प्रभु के नाम से विहीन होकर माया-मोह में तल्लीन हैं, उन शाक्त पुरुषों को यमदूत दबोचकर मार देता है।
ਤੇ ਸਾਕਤ ਚੋਰ ਜਿਨਾ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਮਨ ਤਿਨ ਕੈ ਨਿਕਟਿ ਨ ਭਿਟੀਐ ॥੪॥
ते साकत चोर जिना नामु विसारिआ मन तिन कै निकटि न भिटीऐ ॥४॥
हे मेरे मन ! जिन्होंने परमात्मा के नाम को भुला दिया है, उनके निकट नहीं आना चाहिए, क्योंकि वे तो शाक्त एवं प्रभु के चोर हैं।॥ ४॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਸੇਵਹੁ ਅਲਖ ਨਿਰੰਜਨ ਨਰਹਰਿ ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਲੇਖਾ ਛੁਟੀਐ ॥
मेरे मन सेवहु अलख निरंजन नरहरि जितु सेविऐ लेखा छुटीऐ ॥
हे मेरे मन ! उस अलख निरंजन नृसिंह भगवान की सेवा-भक्ति करो, जिसकी सेवा-भक्ति करने से कर्मों का लेखा जोखा समाप्त हो जाता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭਿ ਪੂਰੇ ਕੀਏ ਖਿਨੁ ਮਾਸਾ ਤੋਲੁ ਨ ਘਟੀਐ ॥੫॥੫॥੧੯॥੫੭॥
जन नानक हरि प्रभि पूरे कीए खिनु मासा तोलु न घटीऐ ॥५॥५॥१९॥५७॥
हे नानक ! जिन्हें हरि-प्रभु ने तोल में पूर्ण कर दिया है, उनका फिर तोल एक माशा मात्र भी कम नहीं होता ॥५॥५॥१९॥५७॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
ਹਮਰੇ ਪ੍ਰਾਨ ਵਸਗਤਿ ਪ੍ਰਭ ਤੁਮਰੈ ਮੇਰਾ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭ ਤੇਰੀ ॥
हमरे प्रान वसगति प्रभ तुमरै मेरा जीउ पिंडु सभ तेरी ॥
हे मेरे ईश्वर ! मेरे प्राण तेरे ही वश में हैं। मेरी आत्मा एवं शरीर सभी तेरे ही हैं।
ਦਇਆ ਕਰਹੁ ਹਰਿ ਦਰਸੁ ਦਿਖਾਵਹੁ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਤਨਿ ਲੋਚ ਘਣੇਰੀ ॥੧॥
दइआ करहु हरि दरसु दिखावहु मेरै मनि तनि लोच घणेरी ॥१॥
हे प्रभु ! मुझ पर दया करके अपने दर्शन दीजिए, क्योंकि मेरे मन एवं तन में तेरे दर्शनों की तीव्र लालसा है॥ १॥
ਰਾਮ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਤਨਿ ਲੋਚ ਮਿਲਣ ਹਰਿ ਕੇਰੀ ॥
राम मेरै मनि तनि लोच मिलण हरि केरी ॥
हे मेरे राम ! मेरे मन एवं तन में प्रभु-मिलन की तीव्र लालसा है।
ਗੁਰ ਕ੍ਰਿਪਾਲਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਿੰਚਤ ਗੁਰਿ ਕੀਨੀ ਹਰਿ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुर क्रिपालि क्रिपा किंचत गुरि कीनी हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥१॥ रहाउ ॥
हे प्राणी ! जब कृपा के घर गुरु ने मुझ पर थोड़ी-सी कृपा की, तो मेरा प्रभु-परमेश्वर आकर मुझे मिल गया।॥ १ ॥ रहाउ ॥
ਜੋ ਹਮਰੈ ਮਨ ਚਿਤਿ ਹੈ ਸੁਆਮੀ ਸਾ ਬਿਧਿ ਤੁਮ ਹਰਿ ਜਾਨਹੁ ਮੇਰੀ ॥
जो हमरै मन चिति है सुआमी सा बिधि तुम हरि जानहु मेरी ॥
हे प्रभु-परमेश्वर ! जो कुछ भी मेरे मन एवं चित्त में है, मेरी उस अवस्था को तुम जानते हो।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਜਪੀ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ਨਿਤ ਜੀਵਾ ਆਸ ਹਰਿ ਤੇਰੀ ॥੨॥
अनदिनु नामु जपी सुखु पाई नित जीवा आस हरि तेरी ॥२॥
हे प्रभु ! रात-दिन मैं तेरे नाम का जाप करता और सुख पाता हूँ। मैं सदा ही तेरी आशा में जीता हूँ॥ २॥
ਗੁਰਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦਾਤੈ ਪੰਥੁ ਬਤਾਇਆ ਹਰਿ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰੀ ॥
गुरि सतिगुरि दातै पंथु बताइआ हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥
जब दाता सतिगुरु ने मुझे सन्मार्ग दिखाया तो हरि-प्रभु आकर मुझसे प्रत्यक्ष आ मिला।
ਅਨਦਿਨੁ ਅਨਦੁ ਭਇਆ ਵਡਭਾਗੀ ਸਭ ਆਸ ਪੁਜੀ ਜਨ ਕੇਰੀ ॥੩॥
अनदिनु अनदु भइआ वडभागी सभ आस पुजी जन केरी ॥३॥
तकदीर से मेरे हृदय में रात-दिन आनंद बना रहता है। प्रभु ने मुझ सेवक की अभिलाषा पूरी कर दी है॥ ३॥
ਜਗੰਨਾਥ ਜਗਦੀਸੁਰ ਕਰਤੇ ਸਭ ਵਸਗਤਿ ਹੈ ਹਰਿ ਕੇਰੀ ॥
जगंनाथ जगदीसुर करते सभ वसगति है हरि केरी ॥
हे जगन्नाथ ! हे जगदीश्वर ! हे कर्ता-प्रभु ! सारी जगत् क्रीड़ा तेरे वश में है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਰਣਾਗਤਿ ਆਏ ਹਰਿ ਰਾਖਹੁ ਪੈਜ ਜਨ ਕੇਰੀ ॥੪॥੬॥੨੦॥੫੮॥
जन नानक सरणागति आए हरि राखहु पैज जन केरी ॥४॥६॥२०॥५८॥
हे प्रभु ! नानक तेरी शरणागत आया है, अपने सेवक की लाज-प्रतिष्ठा रखो ॥४॥६॥२०॥५८॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
ਇਹੁ ਮਨੂਆ ਖਿਨੁ ਨ ਟਿਕੈ ਬਹੁ ਰੰਗੀ ਦਹ ਦਹ ਦਿਸਿ ਚਲਿ ਚਲਿ ਹਾਢੇ ॥
इहु मनूआ खिनु न टिकै बहु रंगी दह दह दिसि चलि चलि हाढे ॥
दसों-दिशाओं में दौड़-दौड़कर भटकता रहता है।