ਮਨ ਰਤਿ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਨਿਹਕੇਵਲ ਆਦਿ ਜੁਗਾਦਿ ਦਇਆਲਾ ॥੩॥
मन रति नामि रते निहकेवल आदि जुगादि दइआला ॥३॥
मन परमात्मा के नाम में ही लीन है, वह युग-युगों से दया करने वाला है॥३॥
ਮੋਹਨਿ ਮੋਹਿ ਲੀਆ ਮਨੁ ਮੋਰਾ ਬਡੈ ਭਾਗ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ॥
मोहनि मोहि लीआ मनु मोरा बडै भाग लिव लागी ॥
प्यारे प्रभु ने मेरा मन मोह लिया है और बड़े भाग्य से उसमें ही लगन लगी है।
ਸਾਚੁ ਬੀਚਾਰਿ ਕਿਲਵਿਖ ਦੁਖ ਕਾਟੇ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਅਨਰਾਗੀ ॥੪॥
साचु बीचारि किलविख दुख काटे मनु निरमलु अनरागी ॥४॥
परम सत्य का चिन्तन किया तो पाप दुख कट गए और मन निर्मल होकर उसी के प्रेम में रत है॥४॥
ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰ ਸਾਗਰ ਰਤਨਾਗਰ ਅਵਰ ਨਹੀ ਅਨ ਪੂਜਾ ॥
गहिर ग्मभीर सागर रतनागर अवर नही अन पूजा ॥
ईश्वर महान, गंभीर है, गुणों का सागर एवं रत्नों का भण्डार है, उसके सिवा अन्य कोई पूजनीय नहीं।
ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰਿ ਭਰਮ ਭਉ ਭੰਜਨੁ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਨਿਆ ਦੂਜਾ ॥੫॥
सबदु बीचारि भरम भउ भंजनु अवरु न जानिआ दूजा ॥५॥
शब्द-गुरु का चिन्तन करके भ्रम एवं भयनाशक परब्रह्म को ही माना है, उसके सिवा किसी को नहीं माना ॥५॥
ਮਨੂਆ ਮਾਰਿ ਨਿਰਮਲ ਪਦੁ ਚੀਨਿਆ ਹਰਿ ਰਸ ਰਤੇ ਅਧਿਕਾਈ ॥
मनूआ मारि निरमल पदु चीनिआ हरि रस रते अधिकाई ॥
मन की वासना को मारकर निर्मल पद को जान लिया है और हरिनाम रस में अधिकतर रत हूँ।
ਏਕਸ ਬਿਨੁ ਮੈ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਨਾਂ ਸਤਿਗੁਰਿ ਬੂਝ ਬੁਝਾਈ ॥੬॥
एकस बिनु मै अवरु न जानां सतिगुरि बूझ बुझाई ॥६॥
सच्चे गुरु ने भेद बता दिया है इसलिए एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं मानता ॥६॥
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਅਨਾਥੁ ਅਜੋਨੀ ਗੁਰਮਤਿ ਏਕੋ ਜਾਨਿਆ ॥
अगम अगोचरु अनाथु अजोनी गुरमति एको जानिआ ॥
गुरु-मतानुसार अगम्य, मन-वाणी से परे, संसार के मालिक, अजन्मा ईश्वर के ही रहस्य को जाना है।
ਸੁਭਰ ਭਰੇ ਨਾਹੀ ਚਿਤੁ ਡੋਲੈ ਮਨ ਹੀ ਤੇ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥੭॥
सुभर भरे नाही चितु डोलै मन ही ते मनु मानिआ ॥७॥
मन रूपी सरोवर भर गया है, अब मन विचलित नहीं होता और मन में ही मन पूर्ण विश्वस्त हो गया है॥७॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਅਕਥਉ ਕਥੀਐ ਕਹਉ ਕਹਾਵੈ ਸੋਈ ॥
गुर परसादी अकथउ कथीऐ कहउ कहावै सोई ॥
गुरु की कृपा से अकथनीय (परमेश्वर) का कथन कर रहा हूँ, वही कहता हूँ जो प्रभु मुझ से कहलाता है।
ਨਾਨਕ ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਹਮਾਰੇ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਨਿਆ ਕੋਈ ॥੮॥੨॥
नानक दीन दइआल हमारे अवरु न जानिआ कोई ॥८॥२॥
गुरु नानक कथन करते हैं- वह दीनदयालु परमेश्वर ही हमारा सब कुछ है, उसके सिवा किसी अन्य को नहीं मानता ॥८॥२॥
ਸਾਰਗ ਮਹਲਾ ੩ ਅਸਟਪਦੀਆ ਘਰੁ ੧
सारग महला ३ असटपदीआ घरु १
सारग महला ३ असटपदीआ घरु १
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਵਡਾਈ ॥
मन मेरे हरि कै नामि वडाई ॥
हे मेरे मन ! सम्पूर्ण विश्व में केवल परमात्मा के नाम की ही कीर्ति है।
ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਣਾ ਕੋਈ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਮੁਕਤਿ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि बिनु अवरु न जाणा कोई हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ ॥
परमात्मा के सिवा मैं किसी को नहीं मानता और परमात्मा के नाम से ही मुक्ति प्राप्त होती है॥१॥रहाउ॥।
ਸਬਦਿ ਭਉ ਭੰਜਨੁ ਜਮਕਾਲ ਨਿਖੰਜਨੁ ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥
सबदि भउ भंजनु जमकाल निखंजनु हरि सेती लिव लाई ॥
शब्द द्वारा भयभंजन, यमकाल का नाश करने वाले ईश्वर में लगन लगाई है।
ਹਰਿ ਸੁਖਦਾਤਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਤਾ ਸਹਜੇ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ ॥੧॥
हरि सुखदाता गुरमुखि जाता सहजे रहिआ समाई ॥१॥
गुरु के सान्निध्य में सुख देने वाले प्रभु को ही जाना है और सहज स्वाभाविक उसी में लीन हूँ॥१॥
ਭਗਤਾਂ ਕਾ ਭੋਜਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਨਿਰੰਜਨੁ ਪੈਨੑਣੁ ਭਗਤਿ ਬਡਾਈ ॥
भगतां का भोजनु हरि नाम निरंजनु पैन्हणु भगति बडाई ॥
हरि-नामोच्चारण ही भक्तों का भोजन है और भक्ति एवं संकीर्तन ही उनका जीवन-आचरण पहनावा है।
ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਸਦਾ ਹਰਿ ਸੇਵਨਿ ਹਰਿ ਦਰਿ ਸੋਭਾ ਪਾਈ ॥੨॥
निज घरि वासा सदा हरि सेवनि हरि दरि सोभा पाई ॥२॥
भक्त सदैव हरि की अर्चना में लीन रहकर अपने सच्चे घर में बसे रहते हैं और प्रभु द्वार पर शोभा प्राप्त करते हैं।॥२॥
ਮਨਮੁਖ ਬੁਧਿ ਕਾਚੀ ਮਨੂਆ ਡੋਲੈ ਅਕਥੁ ਨ ਕਥੈ ਕਹਾਨੀ ॥
मनमुख बुधि काची मनूआ डोलै अकथु न कथै कहानी ॥
मन की मर्जी अनुसार चलने वाले व्यक्ति की बुद्धि मंद होती है, उसका मन विचलित होता है और वह अकथ कहानी कथन नहीं कर पाता।
ਗੁਰਮਤਿ ਨਿਹਚਲੁ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਾਚੀ ਬਾਨੀ ॥੩॥
गुरमति निहचलु हरि मनि वसिआ अम्रित साची बानी ॥३॥
गुरु की निश्चल मत से प्रभु मन में बस जाता है और उसकी वाणी भी अमृतमय हो जाती है॥३॥
ਮਨ ਕੇ ਤਰੰਗ ਸਬਦਿ ਨਿਵਾਰੇ ਰਸਨਾ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਈ ॥
मन के तरंग सबदि निवारे रसना सहजि सुभाई ॥
मन की तरंगों को शब्द द्वारा रोका है और जीभ सहज स्वाभाविक आनंदित हो गई है।
ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਿ ਰਹੀਐ ਸਦ ਅਪੁਨੇ ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥੪॥
सतिगुर मिलि रहीऐ सद अपुने जिनि हरि सेती लिव लाई ॥४॥
जिसने परमात्मा से हमारी लगन लगाई है, उस सतगुरु के संपर्क में रहना चाहिए॥४॥
ਮਨੁ ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਤਾ ਮੁਕਤੋ ਹੋਵੈ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਈ ॥
मनु सबदि मरै ता मुकतो होवै हरि चरणी चितु लाई ॥
जब हम मन को शब्द द्वारा (विकारों की ओर से) मारकर परमात्मा के चरणों में मन लगाते हैं, तो मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
ਹਰਿ ਸਰੁ ਸਾਗਰੁ ਸਦਾ ਜਲੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਵੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਈ ॥੫॥
हरि सरु सागरु सदा जलु निरमलु नावै सहजि सुभाई ॥५॥
परमात्मा ऐसा सरोवर अथवा सागर है, जिसका नाम रूपी जल सदा निर्मल है।जो स्वाभाविक ही इसमें स्नान करता है, वही शान्ति पाता है।॥५॥
ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰਿ ਸਦਾ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਹਉਮੈ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮਾਰੀ ॥
सबदु वीचारि सदा रंगि राते हउमै त्रिसना मारी
शब्द का चिन्तन कर सदा उसके रंग में लीन हूँ और इसी से अहम् एवं तृष्णा को समाप्त किया है।
ਅੰਤਰਿ ਨਿਹਕੇਵਲੁ ਹਰਿ ਰਵਿਆ ਸਭੁ ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਮੁਰਾਰੀ ॥੬॥
अंतरि निहकेवलु हरि रविआ सभु आतम रामु मुरारी ॥६॥
अन्तर्मन में परमेश्वर ही रमण कर रहा है, सब में परमेश्वर ही व्याप्त है।६॥
ਸੇਵਕ ਸੇਵਿ ਰਹੇ ਸਚਿ ਰਾਤੇ ਜੋ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਣੇ ॥
सेवक सेवि रहे सचि राते जो तेरै मनि भाणे ॥
हे प्रभु ! वही सेवक सत्य में लीन होकर आराधना करते हैं, जो तेरे मन को अच्छे लगते हैं।
ਦੁਬਿਧਾ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਵੈ ਜਗਿ ਝੂਠੀ ਗੁਣ ਅਵਗਣ ਨ ਪਛਾਣੇ ॥੭॥
दुबिधा महलु न पावै जगि झूठी गुण अवगण न पछाणे ॥७॥
जीव-स्त्री का पति प्रभु से मिलन नहीं होता, उसे गुण-अवगुण की पहचान नहीं होती और जगत में झूठी कहलाती है॥७॥
ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਲਏ ਅਕਥੁ ਕਥੀਐ ਸਚੁ ਸਬਦੁ ਸਚੁ ਬਾਣੀ ॥
आपे मेलि लए अकथु कथीऐ सचु सबदु सचु बाणी ॥
ईश्वर स्वयं ही जीव को साथ मिला लेता है, उसी की रज़ा से अकथ कथा का कथन होता है, सच्चे शब्द एवं सच्ची वाणी से ही होता है।
ਨਾਨਕ ਸਾਚੇ ਸਚਿ ਸਮਾਣੇ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣੀ ॥੮॥੧॥
नानक साचे सचि समाणे हरि का नामु वखाणी ॥८॥१॥
गुरु नानक फुरमाते हैं कि हरि-नाम की चर्चा करने वाले उस परम-सत्य में ही विलीन हो जाते हैं ॥८॥१॥
ਸਾਰਗ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सारग महला ३ ॥
सारग महला ३ ॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਅਤਿ ਮੀਠਾ ॥
मन मेरे हरि का नामु अति मीठा ॥
हे मेरे मन ! परमात्मा का नाम बहुत मधुर है।