ਆਪੇ ਊਚਾ ਊਚੋ ਹੋਈ ॥
आपे ऊचा ऊचो होई ॥
हे भगवान ! तू स्वयं ही बड़ों से भी बड़ा अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है।
ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਵਿਖਾਲੇ ਸੁ ਵੇਖੈ ਕੋਈ ॥
जिसु आपि विखाले सु वेखै कोई ॥
जिस व्यक्ति को तू स्वयं अपना रूप दिखाता है, वहीं तेरे दर्शन कर सकता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਆਪੇ ਵੇਖਿ ਵਿਖਾਲਣਿਆ ॥੮॥੨੬॥੨੭॥
नानक नामु वसै घट अंतरि आपे वेखि विखालणिआ ॥८॥२६॥२७॥
हे नानक ! जिसके हृदय में नाम का निवास हो जाता है, फिर प्रभु स्वयं ही उसके हृदय में प्रगट होकर अपने स्वरूप के दर्शन करवा देता है ॥८॥२६॥२७॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ महला ३ ॥
माझ महला ३ ॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਭਰਪੂਰਿ ਰਹਿਆ ਸਭ ਥਾਈ ॥
मेरा प्रभु भरपूरि रहिआ सभ थाई ॥
मेरा प्रभु समस्त स्थानों में रहता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਘਰ ਹੀ ਮਹਿ ਪਾਈ ॥
गुर परसादी घर ही महि पाई ॥
गुरु की कृपा से मैंने उसको अपने हृदय घर में ही पा लिया है।
ਸਦਾ ਸਰੇਵੀ ਇਕ ਮਨਿ ਧਿਆਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥
सदा सरेवी इक मनि धिआई गुरमुखि सचि समावणिआ ॥१॥
मैं हमेशा ईश्वर की सेवा करता हूँ और एकाग्रचित होकर उसका ही ध्यान करता हूँ। गुरु के द्वारा मैं सत्यस्वरूप परमात्मा में लीन हो गया हूँ॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਜਗਜੀਵਨੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी जगजीवनु मंनि वसावणिआ ॥
मैं तन-मन से उन पर कुर्बान हूँ जो अपने मन में जगजीवन को बसाते हैं।
ਹਰਿ ਜਗਜੀਵਨੁ ਨਿਰਭਉ ਦਾਤਾ ਗੁਰਮਤਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि जगजीवनु निरभउ दाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
भगवान जगत् का जीवन, निर्भीक एवं दाता है। गुरु की मति द्वारा जीव सहज ही उसमें समा जाता है ॥१॥ रहाउ ॥
ਘਰ ਮਹਿ ਧਰਤੀ ਧਉਲੁ ਪਾਤਾਲਾ ॥
घर महि धरती धउलु पाताला ॥
धरती, धवल एवं पाताल-यह सबकुछ मानव के शरीर रूपी घर में ही हैं।
ਘਰ ਹੀ ਮਹਿ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਸਦਾ ਹੈ ਬਾਲਾ ॥
घर ही महि प्रीतमु सदा है बाला ॥
मेरा नित-नवीन प्रियतम परमेश्वर भी शरीर रूपी घर में ही रहता है।
ਸਦਾ ਅਨੰਦਿ ਰਹੈ ਸੁਖਦਾਤਾ ਗੁਰਮਤਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੨॥
सदा अनंदि रहै सुखदाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥२॥
सुखदाता प्रभु सदैव ही आनंदपूर्वक रहता है और गुरु की मति द्वारा मनुष्य सहज ही उसमें समा जाता है ॥२॥
ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ॥
काइआ अंदरि हउमै मेरा ॥
जब तक काया के भीतर अहंकार एवं ममत्व है,
ਜੰਮਣ ਮਰਣੁ ਨ ਚੂਕੈ ਫੇਰਾ ॥
जमण मरणु न चूकै फेरा ॥
तब तक जन्म-मरण का चक्र समाप्त नहीं होता।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ਸਚੋ ਸਚੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੩॥
गुरमुखि होवै सु हउमै मारे सचो सचु धिआवणिआ ॥३॥
जो प्राणी गुरमुख बन जाता है, वह अपने अहंकार को निवृत्त कर लेता है और परम सत्य प्रभु का ध्यान करता है॥३॥
ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਪਾਪੁ ਪੁੰਨੁ ਦੁਇ ਭਾਈ ॥
काइआ अंदरि पापु पुंनु दुइ भाई ॥
पाप एवं पुण्य दोनों भाई शरीर में ही रहते हैं।
ਦੁਹੀ ਮਿਲਿ ਕੈ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਉਪਾਈ ॥
दुही मिलि कै स्रिसटि उपाई ॥
इन दोनों ने मिलकर सृष्टि को पैदा किया है
ਦੋਵੈ ਮਾਰਿ ਜਾਇ ਇਕਤੁ ਘਰਿ ਆਵੈ ਗੁਰਮਤਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੪॥
दोवै मारि जाइ इकतु घरि आवै गुरमति सहजि समावणिआ ॥४॥
जो व्यक्ति इन दोनों का वध करके आत्म-स्वरूप में निवास कर लेता है, वह गुरु की मति द्वारा सहज ही समाया रहता है।॥४॥
ਘਰ ਹੀ ਮਾਹਿ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਅਨੇਰਾ ॥
घर ही माहि दूजै भाइ अनेरा ॥
मोह-माया में फँसने के कारण मनुष्य के हृदय-घर में अज्ञानता का अँधेरा बना रहता है।
ਚਾਨਣੁ ਹੋਵੈ ਛੋਡੈ ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ॥
चानणु होवै छोडै हउमै मेरा ॥
यदि वह अहंत्व एवं ममत्व की भावना को त्याग दे तो उसके ह्रदय में प्रभु-ज्योति का प्रकाश हो जाता है।
ਪਰਗਟੁ ਸਬਦੁ ਹੈ ਸੁਖਦਾਤਾ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੫॥
परगटु सबदु है सुखदाता अनदिनु नामु धिआवणिआ ॥५॥
जब सुखदाता अनहद शब्द मन में प्रगट हो जाता है तो मनुष्य प्रतिदिन नाम का ध्यान करता रहता है।॥५॥
ਅੰਤਰਿ ਜੋਤਿ ਪਰਗਟੁ ਪਾਸਾਰਾ ॥
अंतरि जोति परगटु पासारा ॥
जिस परमात्मा ने जगत् को प्रगट किया है, समस्त जीवों में उसकी ही ज्योति विद्यमान है।
ਗੁਰ ਸਾਖੀ ਮਿਟਿਆ ਅੰਧਿਆਰਾ ॥
गुर साखी मिटिआ अंधिआरा ॥
मनुष्य का अज्ञानता का अँधेरा गुरु की शिक्षा से मिट जाता है और
ਕਮਲੁ ਬਿਗਾਸਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੬॥
कमलु बिगासि सदा सुखु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥६॥
उसका हृदय कमल प्रफुल्लित हो जाता है। फिर मनुष्य की ज्योति परम-ज्योति प्रभु में विलीन हो जाती है॥६॥
ਅੰਦਰਿ ਮਹਲ ਰਤਨੀ ਭਰੇ ਭੰਡਾਰਾ ॥
अंदरि महल रतनी भरे भंडारा ॥
भगवान के आत्म-स्वरूप रूपी महल में नाम रूपी रत्न के भण्डार भरे हुए हैं
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਏ ਨਾਮੁ ਅਪਾਰਾ ॥
गुरमुखि पाए नामु अपारा ॥
परन्तु मनुष्य अनंत प्रभु के नाम को गुरु के माध्यम से ही प्राप्त करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਣਜੇ ਸਦਾ ਵਾਪਾਰੀ ਲਾਹਾ ਨਾਮੁ ਸਦ ਪਾਵਣਿਆ ॥੭॥
गुरमुखि वणजे सदा वापारी लाहा नामु सद पावणिआ ॥७॥
जीव रूपी व्यापारी हमेशा ही गुरु के माध्यम से नाम का व्यापार करता है और हमेशा ही नाम रूपी लाभ प्राप्त करता है ॥७॥
ਆਪੇ ਵਥੁ ਰਾਖੈ ਆਪੇ ਦੇਇ ॥
आपे वथु राखै आपे देइ ॥
भगवान स्वयं ही अपने आत्म-स्वरूप रूपी महल में नाम-वस्तु को रखता है और स्वयं यह नाम-वस्तु गुरु के माध्यम से जीवों को देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਣਜਹਿ ਕੇਈ ਕੇਇ ॥
गुरमुखि वणजहि केई केइ ॥
कोई विरला पुरुष गुरु के माध्यम से ही यह व्यापार करता है।
ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਪਾਏ ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥੮॥੨੭॥੨੮॥
नानक जिसु नदरि करे सो पाए करि किरपा मंनि वसावणिआ ॥८॥२७॥२८॥
हे नानक ! परमेश्वर जिस पर अपनी कृपा-दृष्टि करता है, वहीं नाम को प्राप्त करता है। परमेश्वर अपनी कृपा करके नाम को उसके हृदय में बसा देता है॥८ ॥२७॥२८॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ महला ३ ॥
माझ महला ३ ॥
ਹਰਿ ਆਪੇ ਮੇਲੇ ਸੇਵ ਕਰਾਏ ॥
हरि आपे मेले सेव कराए ॥
भगवान स्वयं ही जीव को अपने साथ मिलाता है और उससे अपनी सेवा करवाता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਭਾਉ ਦੂਜਾ ਜਾਏ ॥
गुर कै सबदि भाउ दूजा जाए ॥
फिर गुरु के शब्द द्वारा माया का प्रेम जीव के मन से दूर हो जाता है।
ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਸਦਾ ਗੁਣਦਾਤਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਮਹਿ ਆਪਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥
हरि निरमलु सदा गुणदाता हरि गुण महि आपि समावणिआ ॥१॥
भगवान निर्मल है और सदैव ही गुणों का दाता है। भगवान स्वयं ही जीव को अपने गुणों में लीन करता है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਸਚੁ ਸਚਾ ਹਿਰਦੈ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी सचु सचा हिरदै वसावणिआ ॥
मैं कुर्बान हूँ और मेरा जीवन भी उन पर कुर्बान है जो परम सत्य परमात्मा को अपने अन्तर्मन में बसाते हैं।
ਸਚਾ ਨਾਮੁ ਸਦਾ ਹੈ ਨਿਰਮਲੁ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सचा नामु सदा है निरमलु गुर सबदी मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
सत्य नाम हमेशा ही निर्मल है। इस निर्मल नाम को जीव गुरु के शब्द द्वारा अपने मन में बसा लेता है॥१॥ रहाउ ॥
ਆਪੇ ਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਕਰਮਿ ਬਿਧਾਤਾ ॥
आपे गुरु दाता करमि बिधाता ॥
भगवान स्वयं ही जीवों को नाम की देन देने वाला गुरु है और स्वयं ही जीवों के कर्मो का भाग्यविधाता है।
ਸੇਵਕ ਸੇਵਹਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਜਾਤਾ ॥
सेवक सेवहि गुरमुखि हरि जाता ॥
भगवान के सेवक उसकी सेवा करते हैं और गुरु के माध्यम से वह भगवान को पहचान लेते हैं।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮਿ ਸਦਾ ਜਨ ਸੋਹਹਿ ਗੁਰਮਤਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੨॥
अम्रित नामि सदा जन सोहहि गुरमति हरि रसु पावणिआ ॥२॥
जो व्यक्ति हमेशा ही नाम-अमृत का पान करते रहते हैं वह सुन्दर बन जाते हैं। वह गुरु की मति द्वारा हरि-रस को प्राप्त कर लेते हैं।॥२॥
ਇਸੁ ਗੁਫਾ ਮਹਿ ਇਕੁ ਥਾਨੁ ਸੁਹਾਇਆ ॥
इसु गुफा महि इकु थानु सुहाइआ ॥
इस शरीर रूपी गुफा में आत्मस्वरूप रूपी एक अत्यंत सुन्दर स्थान है।
ਪੂਰੈ ਗੁਰਿ ਹਉਮੈ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਆ ॥
पूरै गुरि हउमै भरमु चुकाइआ ॥
पूर्ण गुरु ने जिनका अहंकार नाश कर दिया है,
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਨਿ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਪਾਵਣਿਆ ॥੩॥
अनदिनु नामु सलाहनि रंगि राते गुर किरपा ते पावणिआ ॥३॥
वे रात-दिन प्रेमपूर्वक मग्न होकर नाम की सराहना करते रहते हैं। ऐसे लोगों को गुरु की कृपा से ही नाम प्राप्त होता है॥३॥