ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਆਸਾ ਘਰੁ ੩ ਮਹਲਾ ੧ ॥
आसा घरु ३ महला १ ॥
आसा घरु ३ महला १ ॥
ਲਖ ਲਸਕਰ ਲਖ ਵਾਜੇ ਨੇਜੇ ਲਖ ਉਠਿ ਕਰਹਿ ਸਲਾਮੁ ॥
लख लसकर लख वाजे नेजे लख उठि करहि सलामु ॥
“(हे बन्धु !) यदि लाखों की संख्या में तेरी फौज हो, लाखों वाद्य एवं लाखों नेजे से संयुक्त हों, लाखों ही उठकर रोज़ सलाम करने वाले हों,”
ਲਖਾ ਉਪਰਿ ਫੁਰਮਾਇਸਿ ਤੇਰੀ ਲਖ ਉਠਿ ਰਾਖਹਿ ਮਾਨੁ ॥
लखा उपरि फुरमाइसि तेरी लख उठि राखहि मानु ॥
यदि लाखों लोगों पर तेरा हुक्म चलता हो और लाखों ही मान-सम्मान करने वाले हों
ਜਾਂ ਪਤਿ ਲੇਖੈ ਨਾ ਪਵੈ ਤਾਂ ਸਭਿ ਨਿਰਾਫਲ ਕਾਮ ॥੧॥
जां पति लेखै ना पवै तां सभि निराफल काम ॥१॥
परन्तु यदि यह प्रतिष्ठा ईश्वर की दृष्टि में स्वीकृत नहीं तो यह प्रपंच निरर्थक हैं अर्थात् समस्त कार्य ही व्यर्थ गए॥ १॥
ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਜਗੁ ਧੰਧਾ ॥
हरि के नाम बिना जगु धंधा ॥
हरि के नाम-स्मरण के बिना यह समूचा जगत एक झूठा धन्धा ही है।
ਜੇ ਬਹੁਤਾ ਸਮਝਾਈਐ ਭੋਲਾ ਭੀ ਸੋ ਅੰਧੋ ਅੰਧਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जे बहुता समझाईऐ भोला भी सो अंधो अंधा ॥१॥ रहाउ ॥
मूर्ख मनुष्य को चाहे कितना ही अधिकतर समझाया जाए वह फिर भी अन्धा (ज्ञानहीन) ही बना रहता है॥ १॥ रहाउ ॥
ਲਖ ਖਟੀਅਹਿ ਲਖ ਸੰਜੀਅਹਿ ਖਾਜਹਿ ਲਖ ਆਵਹਿ ਲਖ ਜਾਹਿ ॥
लख खटीअहि लख संजीअहि खाजहि लख आवहि लख जाहि ॥
यदि लाखों रुपए कमाए जाएँ, लाखों संग्रह किया जाए, लाखों खर्च किए जाएँ, लाखों आएँ और लाखों चले जाएँ किन्तु
ਜਾਂ ਪਤਿ ਲੇਖੈ ਨਾ ਪਵੈ ਤਾਂ ਜੀਅ ਕਿਥੈ ਫਿਰਿ ਪਾਹਿ ॥੨॥
जां पति लेखै ना पवै तां जीअ किथै फिरि पाहि ॥२॥
यदि परमात्मा की दृष्टि में यह स्वीकृत नहीं तो वह प्राणी जहाँ मर्जी भटकता फिरे दुखी ही रहता है॥ २॥
ਲਖ ਸਾਸਤ ਸਮਝਾਵਣੀ ਲਖ ਪੰਡਿਤ ਪੜਹਿ ਪੁਰਾਣ ॥
लख सासत समझावणी लख पंडित पड़हि पुराण ॥
लाखों शास्त्रों के माध्यम से व्याख्या की जाए और लाखों विद्वान पुराण आदि को पढ़ते रहें लेकिन
ਜਾਂ ਪਤਿ ਲੇਖੈ ਨਾ ਪਵੈ ਤਾਂ ਸਭੇ ਕੁਪਰਵਾਣ ॥੩॥
जां पति लेखै ना पवै तां सभे कुपरवाण ॥३॥
यदि यह सब मान-प्रतिष्ठा ईश्वर को स्वीकृत नहीं तो यह सबकुछ कहीं भी स्वीकार नहीं होता।॥ ३॥
ਸਚ ਨਾਮਿ ਪਤਿ ਊਪਜੈ ਕਰਮਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾਰੁ ॥
सच नामि पति ऊपजै करमि नामु करतारु ॥
सत्यस्वरूप प्रभु के नाम में वृति लगाने से ही मान-सम्मान मिलता है और उस करतार के करम (कृपा) से ही उसका नाम प्राप्त होता है।
ਅਹਿਨਿਸਿ ਹਿਰਦੈ ਜੇ ਵਸੈ ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਰੁ ॥੪॥੧॥੩੧॥
अहिनिसि हिरदै जे वसै नानक नदरी पारु ॥४॥१॥३१॥
हे नानक ! यदि प्रभु का नाम ह्रदय में दिन-रात बसा रहे, तो उसकी करुणा-दृष्टि से मनुष्य संसार सागर से पार हो जाता है॥ ४॥ १॥ ३१॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
आसा महला १ ॥
आसा महला १ ॥
ਦੀਵਾ ਮੇਰਾ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਦੁਖੁ ਵਿਚਿ ਪਾਇਆ ਤੇਲੁ ॥
दीवा मेरा एकु नामु दुखु विचि पाइआ तेलु ॥
एक ईश्वर का नाम ही मेरा दीपक है, उस दीपक में मैंने दु:ख रूपी तेल डाला हुआ है।
ਉਨਿ ਚਾਨਣਿ ਓਹੁ ਸੋਖਿਆ ਚੂਕਾ ਜਮ ਸਿਉ ਮੇਲੁ ॥੧॥
उनि चानणि ओहु सोखिआ चूका जम सिउ मेलु ॥१॥
जैसे-जैसे नाम रूपी दीपक का आलोक होता है तो वह दु:ख रूपी तेल सूखता चला जाता है और यमराज के साथ संबंधविच्छेद हो जाता है॥ १॥
ਲੋਕਾ ਮਤ ਕੋ ਫਕੜਿ ਪਾਇ ॥
लोका मत को फकड़ि पाइ ॥
हे लोगो ! मेरी आस्था को मिथ्या मत समझो।
ਲਖ ਮੜਿਆ ਕਰਿ ਏਕਠੇ ਏਕ ਰਤੀ ਲੇ ਭਾਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
लख मड़िआ करि एकठे एक रती ले भाहि ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे लाखों मन लकड़ी एकत्रित करके थोड़ी-सी चिंगारी भी उसे भस्म कर देती है वैसे ही प्रभु-नाम पापों का नाश कर सकता है॥ १॥ रहाउ॥
ਪਿੰਡੁ ਪਤਲਿ ਮੇਰੀ ਕੇਸਉ ਕਿਰਿਆ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾਰੁ ॥
पिंडु पतलि मेरी केसउ किरिआ सचु नामु करतारु ॥
पतलों पर पिण्ड भरना (दान करना) मेरे लिए प्रभु (का नाम) ही है, मेरे लिए करतार का सत्य नाम हो किरिया-संस्कार है।
ਐਥੈ ਓਥੈ ਆਗੈ ਪਾਛੈ ਏਹੁ ਮੇਰਾ ਆਧਾਰੁ ॥੨॥
ऐथै ओथै आगै पाछै एहु मेरा आधारु ॥२॥
यह नाम लोक-परलोक में सर्वत्र मेरे जीवन का आधार है॥ २॥
ਗੰਗ ਬਨਾਰਸਿ ਸਿਫਤਿ ਤੁਮਾਰੀ ਨਾਵੈ ਆਤਮ ਰਾਉ ॥
गंग बनारसि सिफति तुमारी नावै आतम राउ ॥
हे परमेश्वर ! तेरी गुणस्तुति ही मेरे लिए गंगा (हरिद्वार तथा), काशी इत्यादि तीर्थों का स्नान है, तेरा गुणानुवाद ही मेरी आत्मा का स्नान है।
ਸਚਾ ਨਾਵਣੁ ਤਾਂ ਥੀਐ ਜਾਂ ਅਹਿਨਿਸਿ ਲਾਗੈ ਭਾਉ ॥੩॥
सचा नावणु तां थीऐ जां अहिनिसि लागै भाउ ॥३॥
सच्चा स्नान तभी होता है, जब प्राणी दिन-रात ईश्वर-चरणों में प्रेम बनाकर मग्न रहे॥ ३॥
ਇਕ ਲੋਕੀ ਹੋਰੁ ਛਮਿਛਰੀ ਬ੍ਰਾਹਮਣੁ ਵਟਿ ਪਿੰਡੁ ਖਾਇ ॥
इक लोकी होरु छमिछरी ब्राहमणु वटि पिंडु खाइ ॥
ब्राह्मण एक पिण्ड बनाकर देवताओं को अर्पण करता है और दूसरा पिण्ड पितरों को, पिण्ड बनाने के पश्चात् वह स्वयं खाता है (परन्तु)”
ਨਾਨਕ ਪਿੰਡੁ ਬਖਸੀਸ ਕਾ ਕਬਹੂੰ ਨਿਖੂਟਸਿ ਨਾਹਿ ॥੪॥੨॥੩੨॥
नानक पिंडु बखसीस का कबहूं निखूटसि नाहि ॥४॥२॥३२॥
हे नानक ! ब्राह्मण के माध्यम से दिया गया पिण्डदान कब तक अटल रह सकता है? हाँ, ईश्वर की कृपा का पिण्ड कभी खत्म नहीं होता ॥ ४॥ २॥ ३२॥
ਆਸਾ ਘਰੁ ੪ ਮਹਲਾ ੧
आसा घरु ४ महला १
आसा घरु ४ महला १
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਦੇਵਤਿਆ ਦਰਸਨ ਕੈ ਤਾਈ ਦੂਖ ਭੂਖ ਤੀਰਥ ਕੀਏ ॥
देवतिआ दरसन कै ताई दूख भूख तीरथ कीए ॥
हे जग के रचयिता ! तेरे दर्शन करने के लिए देवताओं ने भी दुख, भूख-प्यास को सहन किया तथा तीर्थों पर भ्रमण किया।
ਜੋਗੀ ਜਤੀ ਜੁਗਤਿ ਮਹਿ ਰਹਤੇ ਕਰਿ ਕਰਿ ਭਗਵੇ ਭੇਖ ਭਏ ॥੧॥
जोगी जती जुगति महि रहते करि करि भगवे भेख भए ॥१॥
अनेक योगी एवं यति भी अपनी अपनी मर्यादा को निभाते हुए भगवे रंग के वस्त्र पहनते रहे॥ १॥
ਤਉ ਕਾਰਣਿ ਸਾਹਿਬਾ ਰੰਗਿ ਰਤੇ ॥
तउ कारणि साहिबा रंगि रते ॥
हे मेरे मालिक ! तेरे मिलन हेतु अनेक पुरुष तेरे प्रेम में अनुरक्त रहते हैं।
ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਅਨੇਕਾ ਰੂਪ ਅਨੰਤਾ ਕਹਣੁ ਨ ਜਾਹੀ ਤੇਰੇ ਗੁਣ ਕੇਤੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तेरे नाम अनेका रूप अनंता कहणु न जाही तेरे गुण केते ॥१॥ रहाउ ॥
तेरे नाम अनेक हैं, अनन्त रूप हैं, अनन्त गुण हैं। ये किसी भी ओर से वर्णन नहीं किए जा सकते ॥ १॥ रहाउ ॥
ਦਰ ਘਰ ਮਹਲਾ ਹਸਤੀ ਘੋੜੇ ਛੋਡਿ ਵਿਲਾਇਤਿ ਦੇਸ ਗਏ ॥
दर घर महला हसती घोड़े छोडि विलाइति देस गए ॥
तेरी खोज में कितने ही अपना घर-बार, महल, हाथी -घोड़े एवं अपना देशछोड़कर परदेसों में चले गए।
ਪੀਰ ਪੇਕਾਂਬਰ ਸਾਲਿਕ ਸਾਦਿਕ ਛੋਡੀ ਦੁਨੀਆ ਥਾਇ ਪਏ ॥੨॥
पीर पेकांबर सालिक सादिक छोडी दुनीआ थाइ पए ॥२॥
कितने ही पीरों-पैगम्बरों, ज्ञानियों तथा आस्तिकों ने तेरे द्वार पर सत्कृत होने के लिए दुनिया छोड़ दी और तेरे दर पर स्वीकार हो गए॥ २॥
ਸਾਦ ਸਹਜ ਸੁਖ ਰਸ ਕਸ ਤਜੀਅਲੇ ਕਾਪੜ ਛੋਡੇ ਚਮੜ ਲੀਏ ॥
साद सहज सुख रस कस तजीअले कापड़ छोडे चमड़ लीए ॥
अनेक लोगों ने सुख-वैभव, स्वाद, सभी रस एवं वस्त्र इत्यादि त्याग दिए और वस्त्र त्याग कर केवल चमड़ा ही पहना।
ਦੁਖੀਏ ਦਰਦਵੰਦ ਦਰਿ ਤੇਰੈ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਦਰਵੇਸ ਭਏ ॥੩॥
दुखीए दरदवंद दरि तेरै नामि रते दरवेस भए ॥३॥
अनेकों ही दुखी एवं गमों के मारे हुए तेरे नाम में लीन होकर तेरे द्वार पर खड़े रहने वाले दरवेश बन गए॥ ३॥
ਖਲੜੀ ਖਪਰੀ ਲਕੜੀ ਚਮੜੀ ਸਿਖਾ ਸੂਤੁ ਧੋਤੀ ਕੀਨੑੀ ॥
खलड़ी खपरी लकड़ी चमड़ी सिखा सूतु धोती कीन्ही ॥
चमड़ा पहनने वाले, खप्पर में भिक्षा लेने वाले दण्डाधारी संन्यासी, मृगशाला पहनने वाले, चोटी, जनेऊ एवं धोती पहनने वाले अनेकों हैं (जो परमात्मा की तलाश हेतु मेरी भाँति स्वांग भरने वाले हैं)।
ਤੂੰ ਸਾਹਿਬੁ ਹਉ ਸਾਂਗੀ ਤੇਰਾ ਪ੍ਰਣਵੈ ਨਾਨਕੁ ਜਾਤਿ ਕੈਸੀ ॥੪॥੧॥੩੩॥
तूं साहिबु हउ सांगी तेरा प्रणवै नानकु जाति कैसी ॥४॥१॥३३॥
परन्तु नानक वन्दना करता है -हे प्रभु ! तू मेरा मालिक है, मैं केवल तेरा स्वांगी हूँ। किसी विशेष जाति में पैदा होने का मुझे कोई अभिमान नहीं है॥ ४॥ १॥ ३३॥