Hindi Page 655

ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਜਨ ਭਏ ਖਾਲਸੇ ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਜਿਹ ਜਾਨੀ ॥੪॥੩॥
कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥
हे कबीर ! जिन्होंने प्रेमा-भक्ति को समझ लिया है, वे मुक्त हो गए हैं ॥४॥३॥

ਘਰੁ ੨ ॥
घरु २ ॥
घरु २ ॥

ਦੁਇ ਦੁਇ ਲੋਚਨ ਪੇਖਾ ॥
दुइ दुइ लोचन पेखा ॥
मैं इन दोनों नयनों से देखता हूँ लेकिन

ਹਉ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਅਉਰੁ ਨ ਦੇਖਾ ॥
हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥
उस भगवान के सिवाय दूसरा कोई भी दिखाई नहीं देता।

ਨੈਨ ਰਹੇ ਰੰਗੁ ਲਾਈ ॥
नैन रहे रंगु लाई ॥
इन नयनों ने उसका प्रेम रंग लगाया हुआ है और

ਅਬ ਬੇ ਗਲ ਕਹਨੁ ਨ ਜਾਈ ॥੧॥
अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥
अब किसी अन्य विषय का वर्णन नहीं किया जा सकता ॥१ ॥

ਹਮਰਾ ਭਰਮੁ ਗਇਆ ਭਉ ਭਾਗਾ ॥ ਜਬ ਰਾਮ ਨਾਮ ਚਿਤੁ ਲਾਗਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥ जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ ॥
तब हमारा भ्रम दूर हो गया और भय भी भाग गया जबसे हमारा राम नाम में चित लग गया।॥१॥रहाउ ॥

ਬਾਜੀਗਰ ਡੰਕ ਬਜਾਈ ॥
बाजीगर डंक बजाई ॥
जब बाजीगर-परमात्मा अपनी डुगडुगी बजाता अर्थात् जगत-रचना करता है तो

ਸਭ ਖਲਕ ਤਮਾਸੇ ਆਈ ॥
सभ खलक तमासे आई ॥
सारी दुनिया जीवन का तमाशा देखने के लिए आ जाती है।

ਬਾਜੀਗਰ ਸ੍ਵਾਂਗੁ ਸਕੇਲਾ ॥
बाजीगर स्वांगु सकेला ॥
जब बाजीगर-परमात्मा अपनी खेल सृष्टि का विनाश करके समेट लेता है तो

ਅਪਨੇ ਰੰਗ ਰਵੈ ਅਕੇਲਾ ॥੨॥
अपने रंग रवै अकेला ॥२॥
वह अकेला ही अपने रंग में मग्न रहता है॥२॥

ਕਥਨੀ ਕਹਿ ਭਰਮੁ ਨ ਜਾਈ ॥
कथनी कहि भरमु न जाई ॥
कहने एवं कथन करने से भ्रम दूर नहीं होता।

ਸਭ ਕਥਿ ਕਥਿ ਰਹੀ ਲੁਕਾਈ ॥
सभ कथि कथि रही लुकाई ॥
कथन कर करके सारी दुनिया ही हार गई है।

ਜਾ ਕਉ ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਪਿ ਬੁਝਾਈ ॥
जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥
भगवान जिसे गुरु के सान्निध्य में स्वयं ज्ञान देता है,

ਤਾ ਕੇ ਹਿਰਦੈ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ ॥੩॥
ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥
उसके हृदय में वह समाया रहता है॥३॥

ਗੁਰ ਕਿੰਚਤ ਕਿਰਪਾ ਕੀਨੀ ॥
गुर किंचत किरपा कीनी ॥
जब गुरु किंचत मात्र भी कृपा करता है तो

ਸਭੁ ਤਨੁ ਮਨੁ ਦੇਹ ਹਰਿ ਲੀਨੀ ॥
सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥
समूचा तन, मन एवं शरीर उस भगवान में समा जाता है।

ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ॥
कहि कबीर रंगि राता ॥
कबीर जी का कथन है कि मैं तो उसके रंग में ही मग्न हो गया हूँ और

ਮਿਲਿਓ ਜਗਜੀਵਨ ਦਾਤਾ ॥੪॥੪॥
मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥
मुझे जगत का जीवनदाता मिल गया है॥४॥४॥

ਜਾ ਕੇ ਨਿਗਮ ਦੂਧ ਕੇ ਠਾਟਾ ॥
जा के निगम दूध के ठाटा ॥
जिसके घर में वेद इत्यादि धार्मिक ग्रंथ दूध का भण्डार है और

ਸਮੁੰਦੁ ਬਿਲੋਵਨ ਕਉ ਮਾਟਾ ॥
समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥
मन समुद्र मंथन के लिए मटकी है,

ਤਾ ਕੀ ਹੋਹੁ ਬਿਲੋਵਨਹਾਰੀ ॥
ता की होहु बिलोवनहारी ॥
हे जीवात्मा ! तू उस भगवान की दूध का मंथन करने वाली बन जा,

ਕਿਉ ਮੇਟੈ ਗੋ ਛਾਛਿ ਤੁਹਾਰੀ ॥੧॥
किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥
वह तुझे छाछ देने से क्यों मना करेगा।१ ।

ਚੇਰੀ ਤੂ ਰਾਮੁ ਨ ਕਰਸਿ ਭਤਾਰਾ ॥
चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥
हे सेविका ! तू उस राम को अपना पति क्यों नहीं बनाती ?

ਜਗਜੀਵਨ ਪ੍ਰਾਨ ਅਧਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥
चूंकि वह तो जगत का जीवन एवं प्राणों का आधार है।॥१॥ रहाउ ॥

ਤੇਰੇ ਗਲਹਿ ਤਉਕੁ ਪਗ ਬੇਰੀ ॥
तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥
तेरे गले में पट्टी और पैरों में जंजीर है।

ਤੂ ਘਰ ਘਰ ਰਮਈਐ ਫੇਰੀ ॥
तू घर घर रमईऐ फेरी ॥
राम ने घर घर अर्थात् योनि-चक्र में तुझे भटकाया हुआ है।

ਤੂ ਅਜਹੁ ਨ ਚੇਤਸਿ ਚੇਰੀ ॥
तू अजहु न चेतसि चेरी ॥
हे सेविका ! अब भी तू उस परमात्मा को स्मरण नहीं कर रही।

ਤੂ ਜਮਿ ਬਪੁਰੀ ਹੈ ਹੇਰੀ ॥੨॥
तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥
हे भाग्यहीन ! तुझे मृत्यु देख रही है॥२॥

ਪ੍ਰਭ ਕਰਨ ਕਰਾਵਨਹਾਰੀ ॥
प्रभ करन करावनहारी ॥
वह परमात्मा ही सब कुछ करने एवं कराने वाला है,

ਕਿਆ ਚੇਰੀ ਹਾਥ ਬਿਚਾਰੀ ॥
किआ चेरी हाथ बिचारी ॥
बेचारी सेविका के वश में कुछ भी नहीं।

ਸੋਈ ਸੋਈ ਜਾਗੀ ॥
सोई सोई जागी ॥
जिसे वह जगाता है, वही जीवात्मा जागती है और

ਜਿਤੁ ਲਾਈ ਤਿਤੁ ਲਾਗੀ ॥੩॥
जितु लाई तितु लागी ॥३॥
जिससे वह लगाता है, उससे ही वह लग जाती है ॥३॥

ਚੇਰੀ ਤੈ ਸੁਮਤਿ ਕਹਾਂ ਤੇ ਪਾਈ ॥
चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥
हे सेविका ! तूने सुमति कहाँ से प्राप्त की है ?

ਜਾ ਤੇ ਭ੍ਰਮ ਕੀ ਲੀਕ ਮਿਟਾਈ ॥
जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥
जिसके साथ तूने भ्रम की लकीर मिटा दी है।

ਸੁ ਰਸੁ ਕਬੀਰੈ ਜਾਨਿਆ ॥ ਮੇਰੋ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥੪॥੫॥
सु रसु कबीरै जानिआ ॥ मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥
कबीर जी का कथन है कि मैंने उस रस को समझ लिया है और गुरु की कृपा से मेरा मन आनंदित हो गया ॥४॥५॥

ਜਿਹ ਬਾਝੁ ਨ ਜੀਆ ਜਾਈ ॥
जिह बाझु न जीआ जाई ॥
जिस परमेश्वर के बिना जीवित नहीं रहा जा सकता,

ਜਉ ਮਿਲੈ ਤ ਘਾਲ ਅਘਾਈ ॥
जउ मिलै त घाल अघाई ॥
यदि वह मिल जाए तो उसकी साधना सफल हो जाती है।

ਸਦ ਜੀਵਨੁ ਭਲੋ ਕਹਾਂਹੀ ॥
सद जीवनु भलो कहांही ॥
लोग तो सदैव जीवन को भला कहते हैं लेकिन

ਮੂਏ ਬਿਨੁ ਜੀਵਨੁ ਨਾਹੀ ॥੧॥
मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥
अपने आत्माभिमान को मारे बिना यह जीवन प्राप्त नहीं होता।

ਅਬ ਕਿਆ ਕਥੀਐ ਗਿਆਨੁ ਬੀਚਾਰਾ ॥
अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥
अब में किस प्रकार के ज्ञान विचार का कथन करूँ ?

ਨਿਜ ਨਿਰਖਤ ਗਤ ਬਿਉਹਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ ॥
चूंकि मेरे देखते देखते ही संसार तबाह हो रहा है॥ १ ॥ रहाउ ॥

ਘਸਿ ਕੁੰਕਮ ਚੰਦਨੁ ਗਾਰਿਆ ॥
घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥
जिस तरह केसर को घिस कर चन्दन के साथ मिलाया जाता है

ਬਿਨੁ ਨੈਨਹੁ ਜਗਤੁ ਨਿਹਾਰਿਆ ॥
बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥
वैसे ही नेत्रों के बिना जगत देख लिया है।

ਪੂਤਿ ਪਿਤਾ ਇਕੁ ਜਾਇਆ ॥
पूति पिता इकु जाइआ ॥
पुत्र ने एक पिता (ज्ञान) को जन्म दिया है और

ਬਿਨੁ ਠਾਹਰ ਨਗਰੁ ਬਸਾਇਆ ॥੨॥
बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥
स्थान के बिना नगर बसाया है॥ २ ॥

ਜਾਚਕ ਜਨ ਦਾਤਾ ਪਾਇਆ ॥
जाचक जन दाता पाइआ ॥
याचक ने दाता को पा लिया है।

ਸੋ ਦੀਆ ਨ ਜਾਈ ਖਾਇਆ ॥
सो दीआ न जाई खाइआ ॥
उसे दाता ने इतना कुछ दे दिया है

ਛੋਡਿਆ ਜਾਇ ਨ ਮੂਕਾ ॥
छोडिआ जाइ न मूका ॥
कि यह खत्म भी नहीं होता।

ਅਉਰਨ ਪਹਿ ਜਾਨਾ ਚੂਕਾ ॥੩॥
अउरन पहि जाना चूका ॥३॥
मेरा दूसरों से मांगने जाना समाप्त हो गया है।३॥

ਜੋ ਜੀਵਨ ਮਰਨਾ ਜਾਨੈ ॥
जो जीवन मरना जानै ॥
जो जीवन में मृत्यु को स्वीकार करना जानता है,

ਸੋ ਪੰਚ ਸੈਲ ਸੁਖ ਮਾਨੈ ॥
सो पंच सैल सुख मानै ॥
वही प्रमुख व्यक्ति पहाड़ जितना सुख भोगता है।

ਕਬੀਰੈ ਸੋ ਧਨੁ ਪਾਇਆ ॥
कबीरै सो धनु पाइआ ॥
कबीर ने वह धन प्राप्त कर लिया है और

ਹਰਿ ਭੇਟਤ ਆਪੁ ਮਿਟਾਇਆ ॥੪॥੬॥
हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥
भगवान से भेंट करके उसने अपने अहंत्व को मिटा दिया है।॥४॥६॥

ਕਿਆ ਪੜੀਐ ਕਿਆ ਗੁਨੀਐ ॥
किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥
पढ़ने एवं चिंतन का क्या लाभ है और

ਕਿਆ ਬੇਦ ਪੁਰਾਨਾਂ ਸੁਨੀਐ ॥
किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥
वेदों एवं पुराणों को सुनने का क्या लाभ है ?

ਪੜੇ ਸੁਨੇ ਕਿਆ ਹੋਈ ॥
पड़े सुने किआ होई ॥
उस पढ़ने एवं सुनने का क्या फायदा है,

ਜਉ ਸਹਜ ਨ ਮਿਲਿਓ ਸੋਈ ॥੧॥
जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥
अगर उससे सहजभाव ही प्राप्त नहीं होता॥ १ ॥

ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਨ ਜਪਸਿ ਗਵਾਰਾ ॥
हरि का नामु न जपसि गवारा ॥
मूर्ख व्यक्ति भगवान के नाम का जाप नहीं करता।

ਕਿਆ ਸੋਚਹਿ ਬਾਰੰ ਬਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ ॥
फिर वह बार-बार क्या सोचता है॥१॥ रहाउ ॥

ਅੰਧਿਆਰੇ ਦੀਪਕੁ ਚਹੀਐ ॥
अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥
अन्धेरे में एक दीपक चाहिए

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