ਆਪਿ ਤਰੈ ਸਗਲੇ ਕੁਲ ਤਾਰੇ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਪਤਿ ਸਿਉ ਜਾਇਦਾ ॥੬॥
आपि तरै सगले कुल तारे हरि दरगह पति सिउ जाइदा ॥६॥
नाम जपने वाला स्वयं तो पार होता ही है, अपनी समस्त वंशावलि का भी उद्धार करवाता है और वह सम्मानपूर्वक प्रभु-दरबार में जाता है॥ ६॥
ਖੰਡ ਪਤਾਲ ਦੀਪ ਸਭਿ ਲੋਆ ॥
खंड पताल दीप सभि लोआ ॥
ये खण्ड, पाताल, द्वीप एवं सभी लोक
ਸਭਿ ਕਾਲੈ ਵਸਿ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭਿ ਕੀਆ ॥
सभि कालै वसि आपि प्रभि कीआ ॥
प्रभु ने स्वयं ही सभी काल के वश में किए हुए हैं।
ਨਿਹਚਲੁ ਏਕੁ ਆਪਿ ਅਬਿਨਾਸੀ ਸੋ ਨਿਹਚਲੁ ਜੋ ਤਿਸਹਿ ਧਿਆਇਦਾ ॥੭॥
निहचलु एकु आपि अबिनासी सो निहचलु जो तिसहि धिआइदा ॥७॥
एक निश्चल परमेश्वर स्वयं अविनाशी है और वही पुरुष निश्चल है, जो उसका चिंतन करता है॥ ७॥
ਹਰਿ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਸੋ ਹਰਿ ਜੇਹਾ ॥
हरि का सेवकु सो हरि जेहा ॥
ईश्वर का उपासक ईश्वर-रूप जैसा ही होता है।
ਭੇਦੁ ਨ ਜਾਣਹੁ ਮਾਣਸ ਦੇਹਾ ॥
भेदु न जाणहु माणस देहा ॥
मानव-शरीर में उसमें एवं भगवान में कोई भेद मत समझो;
ਜਿਉ ਜਲ ਤਰੰਗ ਉਠਹਿ ਬਹੁ ਭਾਤੀ ਫਿਰਿ ਸਲਲੈ ਸਲਲ ਸਮਾਇਦਾ ॥੮॥
जिउ जल तरंग उठहि बहु भाती फिरि सललै सलल समाइदा ॥८॥
जैसे अनेक प्रकार की जल-तरंगें उठकर पुनः जल में ही विलीन हो जाती हैं, वैसे ईश्वर का उपासक पुनः उसमें ही समाहित हो जाता है॥ ८॥
ਇਕੁ ਜਾਚਿਕੁ ਮੰਗੈ ਦਾਨੁ ਦੁਆਰੈ ॥
इकु जाचिकु मंगै दानु दुआरै ॥
एक याचक प्रभु-द्वार पर दान माँगता है।
ਜਾ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਤਾ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੈ ॥
जा प्रभ भावै ता किरपा धारै ॥
यदि प्रभु को स्वीकार हो तो ही वह कृपा करता है।
ਦੇਹੁ ਦਰਸੁ ਜਿਤੁ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤਾਸੈ ਹਰਿ ਕੀਰਤਨਿ ਮਨੁ ਠਹਰਾਇਦਾ ॥੯॥
देहु दरसु जितु मनु त्रिपतासै हरि कीरतनि मनु ठहराइदा ॥९॥
अपने दर्शन दीजिए, जिससे मन तृप्त हो जाए और हरि-कीर्तन में मन स्थिर होता है।॥ ९॥
ਰੂੜੋ ਠਾਕੁਰੁ ਕਿਤੈ ਵਸਿ ਨ ਆਵੈ ॥
रूड़ो ठाकुरु कितै वसि न आवै ॥
सुन्दर परमात्मा किसी भी प्रकार से मनुष्य के वश में नहीं आता,”
ਹਰਿ ਸੋ ਕਿਛੁ ਕਰੇ ਜਿ ਹਰਿ ਕਿਆ ਸੰਤਾ ਭਾਵੈ ॥
हरि सो किछु करे जि हरि किआ संता भावै ॥
वह वही कुछ करता है, जो उसके संत-महापुरुषों को उपयुक्त लगता है।
ਕੀਤਾ ਲੋੜਨਿ ਸੋਈ ਕਰਾਇਨਿ ਦਰਿ ਫੇਰੁ ਨ ਕੋਈ ਪਾਇਦਾ ॥੧੦॥
कीता लोड़नि सोई कराइनि दरि फेरु न कोई पाइदा ॥१०॥
वे जो चाहते हैं, वही कुछ परमेश्वर से करवा लेते हैं, उनकी कही हुई बात अस्वीकार नहीं होती॥ १०॥
ਜਿਥੈ ਅਉਘਟੁ ਆਇ ਬਨਤੁ ਹੈ ਪ੍ਰਾਣੀ ॥
जिथै अउघटु आइ बनतु है प्राणी ॥
हे प्राणी ! जहाँ कोई मुसीबत आ बनती है,”
ਤਿਥੈ ਹਰਿ ਧਿਆਈਐ ਸਾਰਿੰਗਪਾਣੀ ॥
तिथै हरि धिआईऐ सारिंगपाणी ॥
वहाँ श्रीहरि का ध्यान करना चाहिए।
ਜਿਥੈ ਪੁਤ੍ਰੁ ਕਲਤ੍ਰੁ ਨ ਬੇਲੀ ਕੋਈ ਤਿਥੈ ਹਰਿ ਆਪਿ ਛਡਾਇਦਾ ॥੧੧॥
जिथै पुत्रु कलत्रु न बेली कोई तिथै हरि आपि छडाइदा ॥११॥
जहाँ पुत्र, पत्नी एवं कोई साथी नहीं होता, वहाँ भगवान स्वयं ही उद्धारक होता है।॥ ११॥
ਵਡਾ ਸਾਹਿਬੁ ਅਗਮ ਅਥਾਹਾ ॥
वडा साहिबु अगम अथाहा ॥
मालिक-प्रभु ही संसार में बड़ा है, अगम्य एवं असीम है,”
ਕਿਉ ਮਿਲੀਐ ਪ੍ਰਭ ਵੇਪਰਵਾਹਾ ॥
किउ मिलीऐ प्रभ वेपरवाहा ॥
उस बेपरवाह प्रभु को कैसे मिला जा सकता है।
ਕਾਟਿ ਸਿਲਕ ਜਿਸੁ ਮਾਰਗਿ ਪਾਏ ਸੋ ਵਿਚਿ ਸੰਗਤਿ ਵਾਸਾ ਪਾਇਦਾ ॥੧੨॥
काटि सिलक जिसु मारगि पाए सो विचि संगति वासा पाइदा ॥१२॥
जिस के बन्धन काटकर सच्चा मार्ग प्रदान करता है, वह तो सुसंगति में वास पाता है॥ १२॥
ਹੁਕਮੁ ਬੂਝੈ ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਕਹੀਐ ॥
हुकमु बूझै सो सेवकु कहीऐ ॥
जो उसके हुक्म का भेद बूझ लेता है, वास्तव में वही सेवक कहलाने का हकदार है।
ਬੁਰਾ ਭਲਾ ਦੁਇ ਸਮਸਰਿ ਸਹੀਐ ॥
बुरा भला दुइ समसरि सहीऐ ॥
बुरा-भला वह दोनों को एक समान मानता है।
ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਤ ਏਕੋ ਬੂਝੈ ਸੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਇਦਾ ॥੧੩॥
हउमै जाइ त एको बूझै सो गुरमुखि सहजि समाइदा ॥१३॥
जब अहम् दूर हो जाता है, वह एक परमेश्वर के रहस्य को बूझ जाता है और वह गुरुमुख सहजावस्था में ही सत्य में विलीन हो जाता है। १३॥
ਹਰਿ ਕੇ ਭਗਤ ਸਦਾ ਸੁਖਵਾਸੀ ॥
हरि के भगत सदा सुखवासी ॥
भगवान के भक्त सदा सुखपूर्वक रहते हैं।
ਬਾਲ ਸੁਭਾਇ ਅਤੀਤ ਉਦਾਸੀ ॥
बाल सुभाइ अतीत उदासी ॥
वे बाल स्वभाव वाले भोले होते हैं, वासना से निर्लिप्त एवं विरक्त रहते हैं।
ਅਨਿਕ ਰੰਗ ਕਰਹਿ ਬਹੁ ਭਾਤੀ ਜਿਉ ਪਿਤਾ ਪੂਤੁ ਲਾਡਾਇਦਾ ॥੧੪॥
अनिक रंग करहि बहु भाती जिउ पिता पूतु लाडाइदा ॥१४॥
वे विभिन्न प्रकार के अनेक रंग भोगते हैं, जैसे पिता अपने पुत्र से लाड लडाता है॥ १४॥
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਕੀਮਤਿ ਨਹੀ ਪਾਈ ॥
अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥
अगम्य-अगोचर परमेश्वर की किसी ने भी सही कीमत नहीं ऑकी।
ਤਾ ਮਿਲੀਐ ਜਾ ਲਏ ਮਿਲਾਈ ॥
ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥
उससे तभी मिला जाता है, जब वह स्वेछा से अपने संग मिला लेता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰਗਟੁ ਭਇਆ ਤਿਨ ਜਨ ਕਉ ਜਿਨ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ਲਿਖਾਇਦਾ ॥੧੫॥
गुरमुखि प्रगटु भइआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाइदा ॥१५॥
गुरु के सान्निध्य में उस मनुष्य के हृदय में प्रभु प्रगट हो जाता है, जिनके माथे पर आरम्भ से ही भाग्य में लिखा है॥ १५॥
ਤੂ ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਾਰਣ ਕਰਣਾ ॥
तू आपे करता कारण करणा ॥
हे ईश्वर ! तू ही कर्ता करने-करवाने वाला है,”
ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਉਪਾਇ ਧਰੀ ਸਭ ਧਰਣਾ ॥
स्रिसटि उपाइ धरी सभ धरणा ॥
तूने ही समूची सृष्टि को उत्पन्न किया और धरती को स्थापित किया हुआ है।
ਜਨ ਨਾਨਕੁ ਸਰਣਿ ਪਇਆ ਹਰਿ ਦੁਆਰੈ ਹਰਿ ਭਾਵੈ ਲਾਜ ਰਖਾਇਦਾ ॥੧੬॥੧॥੫॥
जन नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हरि भावै लाज रखाइदा ॥१६॥१॥५॥
नानक तो परमात्मा के द्वार पर उसकी शरण में ही पड़ा है, यदि उसे स्वीकार हो तो वह स्वयं ही अपने दास की लाज रखता है।॥१६॥१॥५॥
ਮਾਰੂ ਸੋਲਹੇ ਮਹਲਾ ੫
मारू सोलहे महला ५
मारू सोलहे महला ५
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਜੋ ਦੀਸੈ ਸੋ ਏਕੋ ਤੂਹੈ ॥
जो दीसै सो एको तूहै ॥
जो भी दृष्टिगोचर है, हे परमात्मा ! वह केवल तू ही है।
ਬਾਣੀ ਤੇਰੀ ਸ੍ਰਵਣਿ ਸੁਣੀਐ ॥
बाणी तेरी स्रवणि सुणीऐ ॥
तेरी ही वाणी कानों से सुनी जा रही है।
ਦੂਜੀ ਅਵਰ ਨ ਜਾਪਸਿ ਕਾਈ ਸਗਲ ਤੁਮਾਰੀ ਧਾਰਣਾ ॥੧॥
दूजी अवर न जापसि काई सगल तुमारी धारणा ॥१॥
तेरे सिया अन्य कोई वस्तु मालूम ही नहीं और यह सारी दुनिया तेरे सहारे पर ही कायम है॥ १॥
ਆਪਿ ਚਿਤਾਰੇ ਅਪਣਾ ਕੀਆ ॥
आपि चितारे अपणा कीआ ॥
अपने बनाए हुए संसार का तू स्वयं ही ध्यान रखता है।
ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭੁ ਥੀਆ ॥
आपे आपि आपि प्रभु थीआ ॥
वह प्रभु स्वयं ही प्रकाशमान हुआ है।
ਆਪਿ ਉਪਾਇ ਰਚਿਓਨੁ ਪਸਾਰਾ ਆਪੇ ਘਟਿ ਘਟਿ ਸਾਰਣਾ ॥੨॥
आपि उपाइ रचिओनु पसारा आपे घटि घटि सारणा ॥२॥
उसने स्वयं ही सगुण रूप उत्पन्न करके जगत्-रचना का प्रसार किया है और वह स्वयं ही घट-घट में व्याप्त होकर सबकी संभाल करता है॥ २॥
ਇਕਿ ਉਪਾਏ ਵਡ ਦਰਵਾਰੀ ॥
इकि उपाए वड दरवारी ॥
उसने कई बड़े दरबार वाले बादशाह पैदा किए,”
ਇਕਿ ਉਦਾਸੀ ਇਕਿ ਘਰ ਬਾਰੀ ॥
इकि उदासी इकि घर बारी ॥
कई उदासी साधु तो कई गृहस्थी पैदा किए।