ਕਬੀਰ ਮਨੁ ਪੰਖੀ ਭਇਓ ਉਡਿ ਉਡਿ ਦਹ ਦਿਸ ਜਾਇ ॥
कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ ॥
हे कबीर ! मन पक्षी बना हुआ है, जो उड़-उड़कर दसों दिशाओं में जाता है।
ਜੋ ਜੈਸੀ ਸੰਗਤਿ ਮਿਲੈ ਸੋ ਤੈਸੋ ਫਲੁ ਖਾਇ ॥੮੬॥
जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ ॥८६॥
इसे जैसी संगत मिलती है, वैसा ही शुभाशुभ फल खाता है॥ ८६॥
ਕਬੀਰ ਜਾ ਕਉ ਖੋਜਤੇ ਪਾਇਓ ਸੋਈ ਠਉਰੁ ॥
कबीर जा कउ खोजते पाइओ सोई ठउरु ॥
कबीर जी कहते हैं- जिसको ढूंढते फिर रहे थे, वही जगह पा ली है।
ਸੋਈ ਫਿਰਿ ਕੈ ਤੂ ਭਇਆ ਜਾ ਕਉ ਕਹਤਾ ਅਉਰੁ ॥੮੭॥
सोई फिरि कै तू भइआ जा कउ कहता अउरु ॥८७॥
जिस ईश्वर को तुम अपने से अलग मान रहे थे, उसी का रूप तुम हो गए हो ॥ ८७ ॥
ਕਬੀਰ ਮਾਰੀ ਮਰਉ ਕੁਸੰਗ ਕੀ ਕੇਲੇ ਨਿਕਟਿ ਜੁ ਬੇਰਿ ॥
कबीर मारी मरउ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ॥
कबीर जी कहते हैं कि बुरी संगत ही मनुष्य को मारती है ज्यों केले के निकट बेरी होती है तो
ਉਹ ਝੂਲੈ ਉਹ ਚੀਰੀਐ ਸਾਕਤ ਸੰਗੁ ਨ ਹੇਰਿ ॥੮੮॥
उह झूलै उह चीरीऐ साकत संगु न हेरि ॥८८॥
वह हवा से झूमती है, मगर केले का पेड़ उसके काँटों से चिरता है, अतः कुटिल लोगों की संगत मत करो, (अन्यथा बेकार में ही दण्ड भोगोगे) ॥ ८८ ॥
ਕਬੀਰ ਭਾਰ ਪਰਾਈ ਸਿਰਿ ਚਰੈ ਚਲਿਓ ਚਾਹੈ ਬਾਟ ॥
कबीर भार पराई सिरि चरै चलिओ चाहै बाट ॥
हे कबीर ! जीव के सिर पर (निन्दा का) पराया भार चढ़ता जाता है और इसे उठाकर रास्ता तय करना चाहता है।
ਅਪਨੇ ਭਾਰਹਿ ਨਾ ਡਰੈ ਆਗੈ ਅਉਘਟ ਘਾਟ ॥੮੯॥
अपने भारहि ना डरै आगै अउघट घाट ॥८९॥
परन्तु वह अपने बुरे अथवा पाप कर्मों के भार से नहीं डरता कि आगे बहुत कठिन रास्ता है ॥८९॥
ਕਬੀਰ ਬਨ ਕੀ ਦਾਧੀ ਲਾਕਰੀ ਠਾਢੀ ਕਰੈ ਪੁਕਾਰ ॥
कबीर बन की दाधी लाकरी ठाढी करै पुकार ॥
कबीर जी (पाप कर्मों की मार से बचने के लिए) सावधान करते हुए कहते हैं कि जंगल की जली हुई लकड़ी पुकार करती है कि
ਮਤਿ ਬਸਿ ਪਰਉ ਲੁਹਾਰ ਕੇ ਜਾਰੈ ਦੂਜੀ ਬਾਰ ॥੯੦॥
मति बसि परउ लुहार के जारै दूजी बार ॥९०॥
कहीं मैं लोहार के हाथ में न आ जाऊँ, अन्यथा मुझे दूसरी बार कोयला बनकर जला दिया जाएगा ॥९०॥
ਕਬੀਰ ਏਕ ਮਰੰਤੇ ਦੁਇ ਮੂਏ ਦੋਇ ਮਰੰਤਹ ਚਾਰਿ ॥
कबीर एक मरंते दुइ मूए दोइ मरंतह चारि ॥
हे कबीर ! एक (मन) को मारने से दो (आशा-तृष्णा) मर जाते हैं।इन दोनों को मारने से चार (काम, क्रोध, लोभ, मोह) का भी अंत हो जाता है।
ਚਾਰਿ ਮਰੰਤਹ ਛਹ ਮੂਏ ਚਾਰਿ ਪੁਰਖ ਦੁਇ ਨਾਰਿ ॥੯੧॥
चारि मरंतह छह मूए चारि पुरख दुइ नारि ॥९१॥
चारों को मारा जाए तो छ: मरते हैं। इन छः में दो स्त्रियाँ (आशा-तृष्णा) और चार पुरुष काम, क्रोध, लोभ, मोह हैं।॥ ६१ ॥
ਕਬੀਰ ਦੇਖਿ ਦੇਖਿ ਜਗੁ ਢੂੰਢਿਆ ਕਹੂੰ ਨ ਪਾਇਆ ਠਉਰੁ ॥
कबीर देखि देखि जगु ढूंढिआ कहूं न पाइआ ठउरु ॥
हे कबीर ! देख-देखकर जगत में ढूंढ लिया, लेकिन कहीं शान्ति नहीं मिली।
ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਿਓ ਕਹਾ ਭੁਲਾਨੇ ਅਉਰ ॥੯੨॥
जिनि हरि का नामु न चेतिओ कहा भुलाने अउर ॥९२॥
जिन्होंने ईश्वर का चिंतन नहीं किया, वे अन्यत्र भटकते फिरते हैं।॥ ६२ ॥
ਕਬੀਰ ਸੰਗਤਿ ਕਰੀਐ ਸਾਧ ਕੀ ਅੰਤਿ ਕਰੈ ਨਿਰਬਾਹੁ ॥
कबीर संगति करीऐ साध की अंति करै निरबाहु ॥
कबीर जी सदुपदेश देते हैं- साधु-महापुरुष की संगत करनी चाहिए, यही आखिर तक सहायता करती है।
ਸਾਕਤ ਸੰਗੁ ਨ ਕੀਜੀਐ ਜਾ ਤੇ ਹੋਇ ਬਿਨਾਹੁ ॥੯੩॥
साकत संगु न कीजीऐ जा ते होइ बिनाहु ॥९३॥
परन्तु कुटिल लोगों की संगत मत करो, जिससे जीवन नाश हो जाता है।॥६३॥
ਕਬੀਰ ਜਗ ਮਹਿ ਚੇਤਿਓ ਜਾਨਿ ਕੈ ਜਗ ਮਹਿ ਰਹਿਓ ਸਮਾਇ ॥
कबीर जग महि चेतिओ जानि कै जग महि रहिओ समाइ ॥
कबीर जी कथन करते हैं- जिन्होंने ईश्वर को दुनिया में व्यापक मानकर उसका चिंतन किया, उनका जन्म सफल हो गया है,
ਜਿਨ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਿਓ ਬਾਦਹਿ ਜਨਮੇਂ ਆਇ ॥੯੪॥
जिन हरि का नामु न चेतिओ बादहि जनमें आइ ॥९४॥
परन्तु जिन्होंने ईश्वर का भजन नहीं किया, उनका जन्म बेकार हो गया है॥ ६४ ॥
ਕਬੀਰ ਆਸਾ ਕਰੀਐ ਰਾਮ ਕੀ ਅਵਰੈ ਆਸ ਨਿਰਾਸ ॥
कबीर आसा करीऐ राम की अवरै आस निरास ॥
हे कबीर ! केवल राम की आशा करो, क्योंकि अन्य आशा निराश करने वाली है।
ਨਰਕਿ ਪਰਹਿ ਤੇ ਮਾਨਈ ਜੋ ਹਰਿ ਨਾਮ ਉਦਾਸ ॥੯੫॥
नरकि परहि ते मानई जो हरि नाम उदास ॥९५॥
जो परमात्मा के नाम से विमुख रहते हैं, उनको नरक में पड़ा मानना चाहिए॥ ६५॥
ਕਬੀਰ ਸਿਖ ਸਾਖਾ ਬਹੁਤੇ ਕੀਏ ਕੇਸੋ ਕੀਓ ਨ ਮੀਤੁ ॥
कबीर सिख साखा बहुते कीए केसो कीओ न मीतु ॥
[कबीर जी दंभी गुरु-साधुओं की ओर संकेत करते हैं) कबीर जी कहते हैं कि अपने शिष्य-चेले तो बहुत बना लिए लेकिन ईश्वर को मित्र न बनाया।
ਚਾਲੇ ਥੇ ਹਰਿ ਮਿਲਨ ਕਉ ਬੀਚੈ ਅਟਕਿਓ ਚੀਤੁ ॥੯੬॥
चाले थे हरि मिलन कउ बीचै अटकिओ चीतु ॥९६॥
परमात्मा से मिलन का संकल्प लेकर चले थे परन्तु इनका दिल बीच रास्ते में ही (अपनी सेवा-पूजा एवं ख्याति के लिए) अटक गया ॥ ६६ ॥
ਕਬੀਰ ਕਾਰਨੁ ਬਪੁਰਾ ਕਿਆ ਕਰੈ ਜਉ ਰਾਮੁ ਨ ਕਰੈ ਸਹਾਇ ॥
कबीर कारनु बपुरा किआ करै जउ रामु न करै सहाइ ॥
कबीर जी कहते हैं कि किसी काम को पूरा करने के लिए उसका कारण बेचारा क्या कर सकता है, यदि भगवान ही सहायता न करे।
ਜਿਹ ਜਿਹ ਡਾਲੀ ਪਗੁ ਧਰਉ ਸੋਈ ਮੁਰਿ ਮੁਰਿ ਜਾਇ ॥੯੭॥
जिह जिह डाली पगु धरउ सोई मुरि मुरि जाइ ॥९७॥
पेड़ की जिस डाली पर पैर रखा जाएगा, वही टूट जाएगी (ईश्वर की कृपा बिना सफलता नहीं मिलती) ॥ ६७ ॥
ਕਬੀਰ ਅਵਰਹ ਕਉ ਉਪਦੇਸਤੇ ਮੁਖ ਮੈ ਪਰਿ ਹੈ ਰੇਤੁ ॥
कबीर अवरह कउ उपदेसते मुख मै परि है रेतु ॥
हे कबीर ! जो लोग दूसरों को उपदेश देते हैं, स्वयं उस पर पालन नहीं करते, उनके मुँह में अपमान की धूल ही पड़ती है।
ਰਾਸਿ ਬਿਰਾਨੀ ਰਾਖਤੇ ਖਾਯਾ ਘਰ ਕਾ ਖੇਤੁ ॥੯੮॥
रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु ॥९८॥
ऐसे व्यक्ति दूसरों के घर की हिफाजत करते अपना घर बर्बाद कर लेते हैं।॥ ६८ ॥
ਕਬੀਰ ਸਾਧੂ ਕੀ ਸੰਗਤਿ ਰਹਉ ਜਉ ਕੀ ਭੂਸੀ ਖਾਉ ॥
कबीर साधू की संगति रहउ जउ की भूसी खाउ ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं कि साधु-पुरुषों की संगत में रहना चाहिए, चाहे रुखा-सूखा भोजन ही नसीब हो,”
ਹੋਨਹਾਰੁ ਸੋ ਹੋਇਹੈ ਸਾਕਤ ਸੰਗਿ ਨ ਜਾਉ ॥੯੯॥
होनहारु सो होइहै साकत संगि न जाउ ॥९९॥
इस बात की चिंता मत करो, जो होना है वह तो होगा ही, लेकिन कुटिल लोगों की संगत कदापि न करो।॥ ६६॥
ਕਬੀਰ ਸੰਗਤਿ ਸਾਧ ਕੀ ਦਿਨ ਦਿਨ ਦੂਨਾ ਹੇਤੁ ॥
कबीर संगति साध की दिन दिन दूना हेतु ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं कि साधु पुरुषों की संगत करने से दिन-ब-दिन ईश्वर से प्रेम में वृद्धि होती है।
ਸਾਕਤ ਕਾਰੀ ਕਾਂਬਰੀ ਧੋਏ ਹੋਇ ਨ ਸੇਤੁ ॥੧੦੦॥
साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु ॥१००॥
कुटिल व्यक्ति काले कंबल की तरह (दिल से काले) होते हैं, जो धोने से भी कभी सफेद नहीं होता ॥ १०० ॥
ਕਬੀਰ ਮਨੁ ਮੂੰਡਿਆ ਨਹੀ ਕੇਸ ਮੁੰਡਾਏ ਕਾਂਇ ॥
कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाए कांइ ॥
कबीर जी कहते हैं- हे भाई ! मन को तो मुंडवाया नहीं (अर्थात् साफ नहीं किया) फिर भला सिर के बाल किसलिए मुंडवा लिए,
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕੀਆ ਸੋ ਮਨ ਕੀਆ ਮੂੰਡਾ ਮੂੰਡੁ ਅਜਾਂਇ ॥੧੦੧॥
जो किछु कीआ सो मन कीआ मूंडा मूंडु अजांइ ॥१०१॥
क्योंकि जो कुछ भी अच्छा-बुरा करता है, वह मन ही करता है, सिर को बेकार ही मुँडवा लिया, इस बेचारे का क्या कसूर है।॥ १०१ ॥
ਕਬੀਰ ਰਾਮੁ ਨ ਛੋਡੀਐ ਤਨੁ ਧਨੁ ਜਾਇ ਤ ਜਾਉ ॥
कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाइ त जाउ ॥
हे कबीर ! राम नाम नहीं छोड़ना चाहिए, यदि तन एवं धन चला जाए, नाश हो जाए, कोई परवाह मत करो।
ਚਰਨ ਕਮਲ ਚਿਤੁ ਬੇਧਿਆ ਰਾਮਹਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਉ ॥੧੦੨॥
चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ ॥१०२॥
मन प्रभु के चरण कमल में लीन रखो, राम नाम में निमग्न रहो ॥ १०२ ॥
ਕਬੀਰ ਜੋ ਹਮ ਜੰਤੁ ਬਜਾਵਤੇ ਟੂਟਿ ਗਈਂ ਸਭ ਤਾਰ ॥
कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार ॥
हे कबीर ! हम शरीर रूपी जो बाजा बजा रहे थे, उसकी सब तारें टूट चुकी हैं।
ਜੰਤੁ ਬਿਚਾਰਾ ਕਿਆ ਕਰੈ ਚਲੇ ਬਜਾਵਨਹਾਰ ॥੧੦੩॥
जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार ॥१०३॥
यह बाजा बेचारा अब क्या कर सकता है, जब बजाने वाले प्राण ही छूट गए हैं।॥ १०३ ॥
ਕਬੀਰ ਮਾਇ ਮੂੰਡਉ ਤਿਹ ਗੁਰੂ ਕੀ ਜਾ ਤੇ ਭਰਮੁ ਨ ਜਾਇ ॥
कबीर माइ मूंडउ तिह गुरू की जा ते भरमु न जाइ ॥
हे कबीर ! उस गुरु की माता का सिर मूंड देना चाहिए, जिससे मन का भ्रम दूर नहीं होता।