Hindi Page 787

ਸੂਹੈ ਵੇਸਿ ਪਿਰੁ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਮਨਮੁਖਿ ਦਝਿ ਮੁਈ ਗਾਵਾਰਿ ॥
सूहै वेसि पिरु किनै न पाइओ मनमुखि दझि मुई गावारि ॥
मिथ्या लाल वेष में किसी ने भी प्रभु को नहीं पाया और गंवार मनमुख जीव-स्त्री माया के मोह में जलकर मर गई है।

ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਸੂਹਾ ਵੇਸੁ ਗਇਆ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਮਾਰਿ ॥
सतिगुरि मिलिऐ सूहा वेसु गइआ हउमै विचहु मारि ॥
अपने अहंत्व को नष्ट करके सतगुरु से मिलकर जिस का लाल वेष दूर हो गया है,

ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਤਾ ਲਾਲੁ ਹੋਆ ਰਸਨਾ ਰਤੀ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ॥
मनु तनु रता लालु होआ रसना रती गुण सारि ॥
प्रभु के रंग में लीन हुआ उसका मन-तन लाल हो गया है और उसकी जीभ प्रभु के गुणगान में ही लीन रहती है।

ਸਦਾ ਸੋਹਾਗਣਿ ਸਬਦੁ ਮਨਿ ਭੈ ਭਾਇ ਕਰੇ ਸੀਗਾਰੁ ॥
सदा सोहागणि सबदु मनि भै भाइ करे सीगारु ॥
जो जीव-स्त्री श्रद्धा भाव का श्रृंगार करती है और मन में शब्द को बसाती है, वह सदा सुहागिन है।

ਨਾਨਕ ਕਰਮੀ ਮਹਲੁ ਪਾਇਆ ਪਿਰੁ ਰਾਖਿਆ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥੧॥
नानक करमी महलु पाइआ पिरु राखिआ उर धारि ॥१॥
हे नानक ! जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-कृपा द्वारा अपने घर को पा लिया है, वह पति-प्रभु को ही अपने हृदय में बसाकर रखती है॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਮੁੰਧੇ ਸੂਹਾ ਪਰਹਰਹੁ ਲਾਲੁ ਕਰਹੁ ਸੀਗਾਰੁ ॥
मुंधे सूहा परहरहु लालु करहु सीगारु ॥
हे जीव-स्त्री ! अपना सूहा वेष छोड़ दे और लाल श्रृंगार कर ले।

ਆਵਣ ਜਾਣਾ ਵੀਸਰੈ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰੁ ॥
आवण जाणा वीसरै गुर सबदी वीचारु ॥
गुरु के शब्द द्वारा प्रभु-चिंतन करने से तेरा आवागमन मिट जाएगा।

ਮੁੰਧ ਸੁਹਾਵੀ ਸੋਹਣੀ ਜਿਸੁ ਘਰਿ ਸਹਜਿ ਭਤਾਰੁ ॥
मुंध सुहावी सोहणी जिसु घरि सहजि भतारु ॥
जिसके हृदय-घर में सहज स्वभाव पति-प्रभु आ बसता है, वह जीव-स्त्री बड़ी सुन्दर एवं गुणवान है।

ਨਾਨਕ ਸਾ ਧਨ ਰਾਵੀਐ ਰਾਵੇ ਰਾਵਣਹਾਰੁ ॥੨॥
नानक सा धन रावीऐ रावे रावणहारु ॥२॥
हे नानक ! वही जीव-स्त्री रमण करती है, जिससे रमण करने वाला प्रभु रमण करता है॥ २॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।

ਮੋਹੁ ਕੂੜੁ ਕੁਟੰਬੁ ਹੈ ਮਨਮੁਖੁ ਮੁਗਧੁ ਰਤਾ ॥
मोहु कूड़ु कुट्मबु है मनमुखु मुगधु रता ॥
परिवार का मोह झूठा है किन्तु मूर्ख स्वेच्छाचारी इसमें ही लीन रहता है।

ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਕਰਿ ਮੁਏ ਕਿਛੁ ਸਾਥਿ ਨ ਲਿਤਾ ॥
हउमै मेरा करि मुए किछु साथि न लिता ॥
वह जीवन भर अहंत्व एवं ममत्व करता हुआ ही प्राण त्याग गया है लेकिन अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं गया।

ਸਿਰ ਉਪਰਿ ਜਮਕਾਲੁ ਨ ਸੁਝਈ ਦੂਜੈ ਭਰਮਿਤਾ ॥
सिर उपरि जमकालु न सुझई दूजै भरमिता ॥
उसे कोई सूझ नहीं होती कि यमकाल उसके सिर पर खड़ा है, पर वह द्वैतभाव में फंसकर भटकता रहता है।

ਫਿਰਿ ਵੇਲਾ ਹਥਿ ਨ ਆਵਈ ਜਮਕਾਲਿ ਵਸਿ ਕਿਤਾ ॥
फिरि वेला हथि न आवई जमकालि वसि किता ॥
यमकाल ने उसे अपने वश में कर लिया है और अब उसे यह सुनहरी अवसर दोबारा नहीं मिलना।

ਜੇਹਾ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿ ਪਾਇਓਨੁ ਸੇ ਕਰਮ ਕਮਿਤਾ ॥੫॥
जेहा धुरि लिखि पाइओनु से करम कमिता ॥५॥
लेकिन उसने वही कर्म किया है, जो प्रारम्भ से ही उसकी किस्मत में लिखा हुआ था ॥ ५॥

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३

ਸਤੀਆ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਜੋ ਮੜਿਆ ਲਗਿ ਜਲੰਨੑਿ ॥
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़िआ लगि जलंन्हि ॥
उन स्त्रियों को सती नहीं मानना चाहिए जो पति की लाश के साथ जल मरती है।

ਨਾਨਕ ਸਤੀਆ ਜਾਣੀਅਨੑਿ ਜਿ ਬਿਰਹੇ ਚੋਟ ਮਰੰਨੑਿ ॥੧॥
नानक सतीआ जाणीअन्हि जि बिरहे चोट मरंन्हि ॥१॥
हे नानक ! दरअसल वही स्त्रियाँ सती कहलाने की हकदार हैं, जो अपने पति के वियोग के दुख से मर जाती हैं।१॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३ ॥

ਭੀ ਸੋ ਸਤੀਆ ਜਾਣੀਅਨਿ ਸੀਲ ਸੰਤੋਖਿ ਰਹੰਨੑਿ ॥
भी सो सतीआ जाणीअनि सील संतोखि रहंन्हि ॥
जो स्त्रियाँ शील एवं संतोष के साथ रहती हैं, उन्हें भी सती मानना चाहिए।

ਸੇਵਨਿ ਸਾਈ ਆਪਣਾ ਨਿਤ ਉਠਿ ਸੰਮ੍ਹ੍ਹਾਲੰਨੑਿ ॥੨॥
सेवनि साई आपणा नित उठि सम्हालंन्हि ॥२॥
वे अपने स्वामी की सेवा करती है और नित्य प्रातः काल उठकर उनकी संभाल करती है। ॥२॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३ ॥

ਕੰਤਾ ਨਾਲਿ ਮਹੇਲੀਆ ਸੇਤੀ ਅਗਿ ਜਲਾਹਿ ॥
कंता नालि महेलीआ सेती अगि जलाहि ॥
जो स्त्रियाँ पतियों के साथ अग्नि में जलकर मरती हैं,

ਜੇ ਜਾਣਹਿ ਪਿਰੁ ਆਪਣਾ ਤਾ ਤਨਿ ਦੁਖ ਸਹਾਹਿ ॥
जे जाणहि पिरु आपणा ता तनि दुख सहाहि ॥
वे तो ही अपने तन पर दुख सहन करती हैं,यदि वे उन्हें अपना पति समझती हैं।

ਨਾਨਕ ਕੰਤ ਨ ਜਾਣਨੀ ਸੇ ਕਿਉ ਅਗਿ ਜਲਾਹਿ ॥
नानक कंत न जाणनी से किउ अगि जलाहि ॥
हे नानक ! जो स्त्रियां उन्हें अपना पति ही नहीं समझती, उन्हें आग में जलकर सती होने की आवश्यकता नहीं।

ਭਾਵੈ ਜੀਵਉ ਕੈ ਮਰਉ ਦੂਰਹੁ ਹੀ ਭਜਿ ਜਾਹਿ ॥੩॥
भावै जीवउ कै मरउ दूरहु ही भजि जाहि ॥३॥
उनका पति चाहे जीए चाहे मरे, वे उनसे दूर से ही भाग जाती हैं।३॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।

ਤੁਧੁ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਨਾਲਿ ਉਪਾਇਆ ਲੇਖੁ ਕਰਤੈ ਲਿਖਿਆ ॥
तुधु दुखु सुखु नालि उपाइआ लेखु करतै लिखिआ ॥
हे परमेश्वर ! तूने दुख-सुख साथ ही पैदा किया है और भाग्य लिख दिया है।

ਨਾਵੈ ਜੇਵਡ ਹੋਰ ਦਾਤਿ ਨਾਹੀ ਤਿਸੁ ਰੂਪੁ ਨ ਰਿਖਿਆ ॥
नावै जेवड होर दाति नाही तिसु रूपु न रिखिआ ॥
नाम जितनी बड़ी देन अन्य कोई नहीं, न ही उसका कोई रूप है और न ही कोई चिन्ह है।

ਨਾਮੁ ਅਖੁਟੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ॥
नामु अखुटु निधानु है गुरमुखि मनि वसिआ ॥
नाम तो एक अक्षय खजाना है, जो गुरु के माध्यम से ही मन में बसता है।

ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਨਾਮੁ ਦੇਵਸੀ ਫਿਰਿ ਲੇਖੁ ਨ ਲਿਖਿਆ ॥
करि किरपा नामु देवसी फिरि लेखु न लिखिआ ॥
परमात्मा अपनी कृपा करके जिसे नाम दे देता है, वह पुन: उसका दुख-सुख का नसीब नहीं लिखता।

ਸੇਵਕ ਭਾਇ ਸੇ ਜਨ ਮਿਲੇ ਜਿਨ ਹਰਿ ਜਪੁ ਜਪਿਆ ॥੬॥
सेवक भाइ से जन मिले जिन हरि जपु जपिआ ॥६॥
जिन्होंने श्रद्धा भावना से हरि का नाम जपा है, वे मनुष्य उसमें ही मिल गए हैं।६ ।

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੨ ॥
सलोकु मः २ ॥
श्लोक महला २॥

ਜਿਨੀ ਚਲਣੁ ਜਾਣਿਆ ਸੇ ਕਿਉ ਕਰਹਿ ਵਿਥਾਰ ॥
जिनी चलणु जाणिआ से किउ करहि विथार ॥
जिन मनुष्यों ने यह भेद जान लिया है कि उन्होंने दुनिया से चले जाना है, वे झूठे धंधों का प्रसार क्यों करें ?

ਚਲਣ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਨੀ ਕਾਜ ਸਵਾਰਣਹਾਰ ॥੧॥
चलण सार न जाणनी काज सवारणहार ॥१॥
अपने ही कार्य संवारने वाले लोगों को यहाँ से चले जाने के बारे में कोई समझ नहीं है ॥१॥

ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २।

ਰਾਤਿ ਕਾਰਣਿ ਧਨੁ ਸੰਚੀਐ ਭਲਕੇ ਚਲਣੁ ਹੋਇ ॥
राति कारणि धनु संचीऐ भलके चलणु होइ ॥
आदमी जीवन रूपी एक रात्रि के लिए धन संचित करता है, किन्तु वह सुबह होते ही दम तोड़कर चला जाता है।

ਨਾਨਕ ਨਾਲਿ ਨ ਚਲਈ ਫਿਰਿ ਪਛੁਤਾਵਾ ਹੋਇ ॥੨॥
नानक नालि न चलई फिरि पछुतावा होइ ॥२॥
हे नानक ! मोत के बाद धन उसके साथ नहीं जाता, फिर उसे पछतावा होता है॥ २ ॥

ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २ ॥

ਬਧਾ ਚਟੀ ਜੋ ਭਰੇ ਨਾ ਗੁਣੁ ਨਾ ਉਪਕਾਰੁ ॥
बधा चटी जो भरे ना गुणु ना उपकारु ॥
जो आदमी मजबूरी में लगाया दण्ड भरता है, इसमें न कोई उसका गुण है और न ही उसका उपकार है।

ਸੇਤੀ ਖੁਸੀ ਸਵਾਰੀਐ ਨਾਨਕ ਕਾਰਜੁ ਸਾਰੁ ॥੩॥
सेती खुसी सवारीऐ नानक कारजु सारु ॥३॥
हे नानक ! वही कार्य उत्तम है, जो वह अपनी खुशी से करता है। ॥ ३॥

ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २॥

ਮਨਹਠਿ ਤਰਫ ਨ ਜਿਪਈ ਜੇ ਬਹੁਤਾ ਘਾਲੇ ॥
मनहठि तरफ न जिपई जे बहुता घाले ॥
अपने मन के हठ से कोई भी प्रभु को अपने पक्ष में नहीं कर सकता, चाहे वह बहुत साधना करता रहे।

ਤਰਫ ਜਿਣੈ ਸਤ ਭਾਉ ਦੇ ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੇ ॥੪॥
तरफ जिणै सत भाउ दे जन नानक सबदु वीचारे ॥४॥
हे नानक ! वही मनुष्य कामयाबी हासिल करता है, जो सच्चा प्रेम अर्पण करता है और शब्द का चिंतन करता है॥ ४॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।

ਕਰਤੈ ਕਾਰਣੁ ਜਿਨਿ ਕੀਆ ਸੋ ਜਾਣੈ ਸੋਈ ॥
करतै कारणु जिनि कीआ सो जाणै सोई ॥
जिस परमात्मा ने कुदरत को पैदा किया है, वही उसे जानता है।

ਆਪੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਉਪਾਈਅਨੁ ਆਪੇ ਫੁਨਿ ਗੋਈ ॥
आपे स्रिसटि उपाईअनु आपे फुनि गोई ॥
उसने स्वयं ही सृष्टि-रचना की है और स्वयं उसे नष्ट भी कर देता है।

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