ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਨਿਹਕੇਵਲ ਨਿਰਬਾਣੀ ॥੪॥੧੩॥੩੩॥
नानक नामि रते निहकेवल निरबाणी ॥४॥१३॥३३॥
हे नानक ! जो व्यक्ति भगवान के नाम में मग्न रहते हैं, वे वासना-रहित एवं पवित्र हो जाते हैं।॥ ४ ॥ १३ ॥ ३३ ॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਵਡਭਾਗਿ ਸੰਜੋਗ ॥
सतिगुरु मिलै वडभागि संजोग ॥
सौभाग्य एवं संयोग से सतिगुरु जी मनुष्य को मिलते हैं।
ਹਿਰਦੈ ਨਾਮੁ ਨਿਤ ਹਰਿ ਰਸ ਭੋਗ ॥੧॥
हिरदै नामु नित हरि रस भोग ॥१॥
फिर उस मनुष्य के हृदय में नाम का निवास हो जाता है और वह नित्य ही हरि-रस का भोग करता रहता है॥ १ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰਾਣੀ ਨਾਮੁ ਹਰਿ ਧਿਆਇ ॥
गुरमुखि प्राणी नामु हरि धिआइ ॥
जो प्राणी गुरु के सान्निध्य में रहकर भगवान के नाम का ध्यान करता है,
ਜਨਮੁ ਜੀਤਿ ਲਾਹਾ ਨਾਮੁ ਪਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जनमु जीति लाहा नामु पाइ ॥१॥ रहाउ ॥
वह अपनी जीवनबाजी जीत लेता है और उसे नाम धन का लाभ प्राप्त हो जाता है॥ १॥ रहाउ॥
ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਹੈ ਮੀਠਾ ॥
गिआनु धिआनु गुर सबदु है मीठा ॥
जिसे गुरु का शब्द मधुर-मीठा लगता है, वह ज्ञान एवं ध्यान को पा लेता है।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਕਿਨੈ ਵਿਰਲੈ ਚਖਿ ਡੀਠਾ ॥੨॥
गुर किरपा ते किनै विरलै चखि डीठा ॥२॥
गुरु की कृपा से किसी विरले पुरुष ने ही इसका रस चखकर देखा है॥ २ ॥
ਕਰਮ ਕਾਂਡ ਬਹੁ ਕਰਹਿ ਅਚਾਰ ॥
करम कांड बहु करहि अचार ॥
जो व्यक्ति अधिकतर कर्मकाण्ड के आचरण करता है,
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਧ੍ਰਿਗੁ ਧ੍ਰਿਗੁ ਅਹੰਕਾਰ ॥੩॥
बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु अहंकार ॥३॥
भगवान के नाम बिना उसके यह कर्म अहंकार रूप होते हैं। ऐसा नामविहीन व्यक्ति धिक्कार योग्य है॥ ३ ॥
ਬੰਧਨਿ ਬਾਧਿਓ ਮਾਇਆ ਫਾਸ ॥
बंधनि बाधिओ माइआ फास ॥
हे दास नानक ! ऐसा व्यक्ति बंधनों में जकड़ा और मोह-माया में फँसा हुआ है,
ਜਨ ਨਾਨਕ ਛੂਟੈ ਗੁਰ ਪਰਗਾਸ ॥੪॥੧੪॥੩੪॥
जन नानक छूटै गुर परगास ॥४॥१४॥३४॥
और वह गुरु के ज्ञान-प्रकाश द्वारा ही बन्धनों से मुक्त होता है॥ ४॥ १४॥ ३४॥
ਮਹਲਾ ੩ ਗਉੜੀ ਬੈਰਾਗਣਿ ॥
महला ३ गउड़ी बैरागणि ॥
महला ३ गउड़ी बैरागणि ॥
ਜੈਸੀ ਧਰਤੀ ਊਪਰਿਮੇਘੁਲਾ ਬਰਸਤੁ ਹੈ ਕਿਆ ਧਰਤੀ ਮਧੇ ਪਾਣੀ ਨਾਹੀ ॥
जैसी धरती ऊपरि मेघुला बरसतु है किआ धरती मधे पाणी नाही ॥
जिस तरह मेघ धरती पर जल बरसाते हैं, (इसी तरह गुरुवाणी नाम के जल की बरसात करती है)। परन्तु क्या धरती में जल नहीं है?
ਜੈਸੇ ਧਰਤੀ ਮਧੇ ਪਾਣੀ ਪਰਗਾਸਿਆ ਬਿਨੁ ਪਗਾ ਵਰਸਤ ਫਿਰਾਹੀ ॥੧॥
जैसे धरती मधे पाणी परगासिआ बिनु पगा वरसत फिराही ॥१॥
जिस तरह धरती में जल व्याप्त है (इसी तरह प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में नाम-जल व्याप्त है) परन्तु मेघ पैरों के बिना अधिक मात्रा में बरसता रहता है॥ १
ਬਾਬਾ ਤੂੰ ਐਸੇ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਹੀ ॥
बाबा तूं ऐसे भरमु चुकाही ॥
हे बाबा ! इस तरह तू अपने भ्रम को दूर कर दे।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰਤੁ ਹੈ ਸੋਈ ਕੋਈ ਹੈ ਰੇ ਤੈਸੇ ਜਾਇ ਸਮਾਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो किछु करतु है सोई कोई है रे तैसे जाइ समाही ॥१॥ रहाउ ॥
जो कुछ भी परमात्मा मनुष्य को बनाता है, वही कुछ वह हो जाता है। उस तरह वह जाकर उस में ही मिल जाता है।॥ १॥ रहाउ॥
ਇਸਤਰੀ ਪੁਰਖ ਹੋਇ ਕੈ ਕਿਆ ਓਇ ਕਰਮ ਕਮਾਹੀ ॥
इसतरी पुरख होइ कै किआ ओइ करम कमाही ॥
स्त्री एवं पुरुष होकर (तेरी महानता के बिना) वह कौन-सा कर्म सम्पूर्ण कर सकते हैं ?
ਨਾਨਾ ਰੂਪ ਸਦਾ ਹਹਿ ਤੇਰੇ ਤੁਝ ਹੀ ਮਾਹਿ ਸਮਾਹੀ ॥੨॥
नाना रूप सदा हहि तेरे तुझ ही माहि समाही ॥२॥
हे प्रभु ! भिन्न-भिन्न रूप सदैव ही तेरे हैं और तुझ में ही लीन हो जाते हैं।॥ २ ॥
ਇਤਨੇ ਜਨਮ ਭੂਲਿ ਪਰੇ ਸੇ ਜਾ ਪਾਇਆ ਤਾ ਭੂਲੇ ਨਾਹੀ ॥
इतने जनम भूलि परे से जा पाइआ ता भूले नाही ॥
मैं अनेक जन्मों से भूला हुआ था, अब जब परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, मैं पुन: उसे विस्मृत नहीं करूँगा।
ਜਾ ਕਾ ਕਾਰਜੁ ਸੋਈ ਪਰੁ ਜਾਣੈ ਜੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਹੀ ॥੩॥
जा का कारजु सोई परु जाणै जे गुर कै सबदि समाही ॥३॥
यदि मनुष्य गुरु के शब्द में लीन रहे तो वह अनुभव करेगा कि जिसका यह कर्म है, वही इसको भलीभांति जानता है॥ ३॥
ਤੇਰਾ ਸਬਦੁ ਤੂੰਹੈ ਹਹਿ ਆਪੇ ਭਰਮੁ ਕਹਾਹੀ ॥
तेरा सबदु तूंहै हहि आपे भरमु कहा ही ॥
हे प्रभु ! जो तेरा नाम है, वह भी तू स्वयं ही है। तू स्वयं ही सबकुछ है, फिर भ्रम कहाँ है?
ਨਾਨਕ ਤਤੁ ਤਤ ਸਿਉ ਮਿਲਿਆ ਪੁਨਰਪਿ ਜਨਮਿ ਨ ਆਹੀ ॥੪॥੧॥੧੫॥੩੫॥
नानक ततु तत सिउ मिलिआ पुनरपि जनमि न आही ॥४॥१॥१५॥३५॥
हे नानक ! जब आत्म-तत्व अर्थात् जीवात्मा परम तत्व प्रभु में मिल जाता है तो फिर उसका पुनः पुनः जन्म नही होता॥ ४॥ १॥ १५॥ ३५॥
ਗਉੜੀ ਬੈਰਾਗਣਿ ਮਹਲਾ ੩ ॥
गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥
गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥
ਸਭੁ ਜਗੁ ਕਾਲੈ ਵਸਿ ਹੈ ਬਾਧਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
सभु जगु कालै वसि है बाधा दूजै भाइ ॥
यह सारा जगत् मृत्यु के अधीन है और मोह-माया के बंधन में फंसा हुआ है।
ਹਉਮੈ ਕਰਮ ਕਮਾਵਦੇ ਮਨਮੁਖਿ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥੧॥
हउमै करम कमावदे मनमुखि मिलै सजाइ ॥१॥
स्वेच्छाचारी अपना कर्म अहंकारवश करते हैं और परिणामस्वरूप उनको सत्य के दरबार में दण्ड मिलता है॥ १॥
ਮੇਰੇ ਮਨ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥
मेरे मन गुर चरणी चितु लाइ ॥
हे मेरे मन ! अपना चित्त गुरु के चरणों में लगा।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਲੈ ਦਰਗਹ ਲਏ ਛਡਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरमुखि नामु निधानु लै दरगह लए छडाइ ॥१॥ रहाउ ॥
गुरु के सान्निध्य में नाम-निधि को प्राप्त कर। प्रभु के दरबार में यह तेरी मुक्ति करवा देगी और बड़ी शोभा मिलेगी॥ १॥ रहाउ॥
ਲਖ ਚਉਰਾਸੀਹ ਭਰਮਦੇ ਮਨਹਠਿ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
लख चउरासीह भरमदे मनहठि आवै जाइ ॥
मन के हठ कारण मनुष्य चौरासी लाख योनियों में भटकते हैं और संसार में जन्मते-मरते रहते हैं l
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਨ ਚੀਨਿਓ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਜੋਨੀ ਪਾਇ ॥੨॥
गुर का सबदु न चीनिओ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥२॥
वह गुरु के शब्द को अनुभव नहीं करते और पुनःपुनः गर्भ योनियों में डाले जाते हैं।॥ २॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਪੁ ਪਛਾਣਿਆ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥
गुरमुखि आपु पछाणिआ हरि नामु वसिआ मनि आइ ॥
जब मनुष्य गुरु के माध्यम से अपने आत्मिक जीवन को समझ लेता हैं तो हरि का नाम उसके मन में निवास कर जाता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਭਗਤੀ ਰਤਿਆ ਹਰਿ ਨਾਮੇ ਸੁਖਿ ਸਮਾਇ ॥੩॥
अनदिनु भगती रतिआ हरि नामे सुखि समाइ ॥३॥
वह रात-दिन भगवान की भक्ति में मग्न रहता है और भगवान के नाम द्वारा सुख में समा जाता है॥ ३ ॥
ਮਨੁ ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਪਰਤੀਤਿ ਹੋਇ ਹਉਮੈ ਤਜੇ ਵਿਕਾਰ ॥
मनु सबदि मरै परतीति होइ हउमै तजे विकार ॥
जब मनुष्य का मन गुरु के शब्द द्वारा अहंत्व से रहित हो जाता है तो उस मनुष्य की श्रद्धा बन जाती है और वह अपना अहंकार एवं विकारों को त्याग देता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕਰਮੀ ਪਾਈਅਨਿ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰ ॥੪॥੨॥੧੬॥੩੬॥
जन नानक करमी पाईअनि हरि नामा भगति भंडार ॥४॥२॥१६॥३६॥
हे नानक ! ईश्वर की कृपा से ही मनुष्य उसके नाम एवं भक्ति के भण्डार को प्राप्त करता है ॥४॥२॥१६॥३६॥
ਗਉੜੀ ਬੈਰਾਗਣਿ ਮਹਲਾ ੩ ॥
गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥
गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥
ਪੇਈਅੜੈ ਦਿਨ ਚਾਰਿ ਹੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ॥
पेईअड़ै दिन चारि है हरि हरि लिखि पाइआ ॥
हरि-प्रभु ने (प्रत्येक जीव के मस्तक पर यही भाग्य) लिखकर रख दिया है कि जीव-स्त्री ने अपने मायके (मृत्युलोक) चार दिनों (कुछ दिन) के लिए रहना है।
ਸੋਭਾਵੰਤੀ ਨਾਰਿ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗੁਣ ਗਾਇਆ ॥
सोभावंती नारि है गुरमुखि गुण गाइआ ॥
वही जीव-स्त्री शोभावान है जो गुरु के माध्यम से ईश्वर की महिमा गायन करती है।
ਪੇਵਕੜੈ ਗੁਣ ਸੰਮਲੈ ਸਾਹੁਰੈ ਵਾਸੁ ਪਾਇਆ ॥
पेवकड़ै गुण समलै साहुरै वासु पाइआ ॥
जो अपने मायके (इहलोक) में सदाचार को सँभालती है, वह अपने ससुराल (परलोक) में बसेरा पा लेती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਣੀਆ ਹਰਿ ਹਰਿ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥੧॥
गुरमुखि सहजि समाणीआ हरि हरि मनि भाइआ ॥१॥
गुरमुख के हृदय को हरि-प्रभु ही अच्छा लगता है, और वह सहज ही उसमें लीन हो जाता है॥ १॥
ਸਸੁਰੈ ਪੇਈਐ ਪਿਰੁ ਵਸੈ ਕਹੁ ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਪਾਈਐ ॥
ससुरै पेईऐ पिरु वसै कहु कितु बिधि पाईऐ ॥
प्रियतम (प्रभु) इस लोक एवं परलोक में निवास करता है। बताइए, उसको किस विधि से प्राप्त किया जा सकता है ?
ਆਪਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਅਲਖੁ ਹੈ ਆਪੇ ਮੇਲਾਈਐ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
आपि निरंजनु अलखु है आपे मेलाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥
निरंजन प्रभु स्वयं ही अलक्ष्य है और वह जीव को स्वयं ही अपने साथ मिला लेता है॥ १॥ रहाउ॥