ਤੂੰ ਸਤਿਗੁਰੁ ਹਉ ਨਉਤਨੁ ਚੇਲਾ ॥
तूं सतिगुरु हउ नउतनु चेला ॥
हे मेरे मालिक ! तू सतिगुरु है और मैं तेरा नया चेला हूँ।
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਮਿਲੁ ਅੰਤ ਕੀ ਬੇਲਾ ॥੪॥੨॥
कहि कबीर मिलु अंत की बेला ॥४॥२॥
कबीर जी कहते हैं – हे प्रभु ! अब तो जीवन के अन्तिम क्षण हैं, अपने दर्शन प्रदान कीजिए॥ ४॥ २
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜਬ ਹਮ ਏਕੋ ਏਕੁ ਕਰਿ ਜਾਨਿਆ ॥
जब हम एको एकु करि जानिआ ॥
जब मैंने यह जान लिया है कि एक ईश्वर ही सर्वव्यापक है
ਤਬ ਲੋਗਹ ਕਾਹੇ ਦੁਖੁ ਮਾਨਿਆ ॥੧॥
तब लोगह काहे दुखु मानिआ ॥१॥
तो लोगों को इस बात का क्यों दुख अनुभव होता है।॥ १॥
ਹਮ ਅਪਤਹ ਅਪੁਨੀ ਪਤਿ ਖੋਈ ॥
हम अपतह अपुनी पति खोई ॥
मैं अपमानित हूँ और मैंने अपनी इज्जत गंवा दी है।
ਹਮਰੈ ਖੋਜਿ ਪਰਹੁ ਮਤਿ ਕੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हमरै खोजि परहु मति कोई ॥१॥ रहाउ ॥
इसलिए मेरे पीछे कोई न लगे ॥ १॥ रहाउ ॥
ਹਮ ਮੰਦੇ ਮੰਦੇ ਮਨ ਮਾਹੀ ॥
हम मंदे मंदे मन माही ॥
यदि मैं बुरा हूँ तो चित्त में ही बुरा हूँ।
ਸਾਝ ਪਾਤਿ ਕਾਹੂ ਸਿਉ ਨਾਹੀ ॥੨॥
साझ पाति काहू सिउ नाही ॥२॥
मैंने किसी के साथ भी साझ (मेल मिलाप) नहीं रखी ॥ २ ॥
ਪਤਿ ਅਪਤਿ ਤਾ ਕੀ ਨਹੀ ਲਾਜ ॥
पति अपति ता की नही लाज ॥
मान एवं अपमान की मुझे कोई शर्म नहीं परन्तु
ਤਬ ਜਾਨਹੁਗੇ ਜਬ ਉਘਰੈਗੋ ਪਾਜ ॥੩॥
तब जानहुगे जब उघरैगो पाज ॥३॥
आपको तब पता लगेगा, जब आपका पर्दाफाश होगा ॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਪਤਿ ਹਰਿ ਪਰਵਾਨੁ ॥
कहु कबीर पति हरि परवानु ॥
कबीर जी कहते हैं – मान-प्रतिष्ठा उसी की है, जिसे ईश्वर स्वीकृत करता है।
ਸਰਬ ਤਿਆਗਿ ਭਜੁ ਕੇਵਲ ਰਾਮੁ ॥੪॥੩॥
सरब तिआगि भजु केवल रामु ॥४॥३॥
इसलिए सब कुछ त्यागकर केवल राम का भजन करो ॥ ४॥ ३॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਨਗਨ ਫਿਰਤ ਜੌ ਪਾਈਐ ਜੋਗੁ ॥
नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥
यदि नग्न घूमने से ईश्वर से मिलन हो सकता है
ਬਨ ਕਾ ਮਿਰਗੁ ਮੁਕਤਿ ਸਭੁ ਹੋਗੁ ॥੧॥
बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
तो वन के सभी मृग मुक्त हो जाने चाहिएँ॥ १॥
ਕਿਆ ਨਾਗੇ ਕਿਆ ਬਾਧੇ ਚਾਮ ॥
किआ नागे किआ बाधे चाम ॥
तब तक तेरा नग्न रहने से क्या बनेगा तथा शरीर पर (मृग की) खाल लपेटने से क्या मेिलना है?
ਜਬ ਨਹੀ ਚੀਨਸਿ ਆਤਮ ਰਾਮ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
“(हे जीव !) जब तक तुम राम को याद नहीं करते, ॥ १॥ रहाउ॥
ਮੂਡ ਮੁੰਡਾਏ ਜੌ ਸਿਧਿ ਪਾਈ ॥
मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥
यदि सिर मुंडाने से सिद्धि मिल सकती है तो
ਮੁਕਤੀ ਭੇਡ ਨ ਗਈਆ ਕਾਈ ॥੨॥
मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
कोई भी भेड़ अब तक मुक्त क्यों नहीं हुई?॥ २॥
ਬਿੰਦੁ ਰਾਖਿ ਜੌ ਤਰੀਐ ਭਾਈ ॥
बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥
हे भाई ! यदि ब्रह्मचारी बनने से भवसागर से पार हुआ जा सकता है तो
ਖੁਸਰੈ ਕਿਉ ਨ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੩॥
खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
हिजड़े को क्यों परमगति नहीं मिली ? ॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਸੁਨਹੁ ਨਰ ਭਾਈ ॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥
कबीर जी कहते हैं- हे मेरे मानव भाईयो ! ध्यानपूर्वक सुनो,”
ਰਾਮ ਨਾਮ ਬਿਨੁ ਕਿਨਿ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੪॥੪॥
राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥
राम नाम के बिना किसी को मुक्ति नहीं मिली है। ४॥ ४॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਸੰਧਿਆ ਪ੍ਰਾਤ ਇਸ੍ਨਾਨੁ ਕਰਾਹੀ ॥
संधिआ प्रात इस्नानु कराही ॥
जो व्यक्ति प्रातः काल एवं सायंकाल के समय स्नान ही करते हैं
ਜਿਉ ਭਏ ਦਾਦੁਰ ਪਾਨੀ ਮਾਹੀ ॥੧॥
जिउ भए दादुर पानी माही ॥१॥
तथा सोचते हैं कि हम पावन हो गए हैं, वे ऐसे हैं जैसे जल में मेंढक रहते हैं।॥ १॥
ਜਉ ਪੈ ਰਾਮ ਰਾਮ ਰਤਿ ਨਾਹੀ ॥
जउ पै राम राम रति नाही ॥
यदि उनके मन में राम के नाम का प्रेम नहीं है तो
ਤੇ ਸਭਿ ਧਰਮ ਰਾਇ ਕੈ ਜਾਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
ते सभि धरम राइ कै जाही ॥१॥ रहाउ ॥
वह सभी अपने कर्मो का हिसाब देने हेतु धर्मराज के वश में पड़ते हैं।॥ १॥ रहाउ ॥
ਕਾਇਆ ਰਤਿ ਬਹੁ ਰੂਪ ਰਚਾਹੀ ॥
काइआ रति बहु रूप रचाही ॥
जो व्यक्ति अपनी काया से प्रेम करते हैं और अनेक रूप धारण करते हैं,
ਤਿਨ ਕਉ ਦਇਆ ਸੁਪਨੈ ਭੀ ਨਾਹੀ ॥੨॥
तिन कउ दइआ सुपनै भी नाही ॥२॥
वे कभी स्वप्न में भी दया अनुभव नहीं करते॥ २॥
ਚਾਰਿ ਚਰਨ ਕਹਹਿ ਬਹੁ ਆਗਰ ॥
चारि चरन कहहि बहु आगर ॥
अनेकों बुद्धिमान लोग एवं चार चरण (सत्य, तप, दया एवं दान) भी यहीं कहते हैं
ਸਾਧੂ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਕਲਿ ਸਾਗਰ ॥੩॥
साधू सुखु पावहि कलि सागर ॥३॥
कि संतजन ही वास्तव में संसार-सागर में सुख पाते हैं।
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਬਹੁ ਕਾਇ ਕਰੀਜੈ ॥
कहु कबीर बहु काइ करीजै ॥
हे कबीर ! हम इतने संस्कार क्यों करें ?
ਸਰਬਸੁ ਛੋਡਿ ਮਹਾ ਰਸੁ ਪੀਜੈ ॥੪॥੫॥
सरबसु छोडि महा रसु पीजै ॥४॥५॥
शेष सब कुछ छोड़कर केवल नाम के महारस का पान कीजिए॥ ४॥ ५॥
ਕਬੀਰ ਜੀ ਗਉੜੀ ॥
कबीर जी गउड़ी ॥
कबीर जी गउड़ी ॥
ਕਿਆ ਜਪੁ ਕਿਆ ਤਪੁ ਕਿਆ ਬ੍ਰਤ ਪੂਜਾ ॥
किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥
उसका जप, तपस्या, व्रत एवं पूजा करने का कोई अभिप्राय नहीं
ਜਾ ਕੈ ਰਿਦੈ ਭਾਉ ਹੈ ਦੂਜਾ ॥੧॥
जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥
जिस व्यक्ति के हृदय में ईश्वर के सिवाय किसी दूसरे का प्रेम है ॥ १॥
ਰੇ ਜਨ ਮਨੁ ਮਾਧਉ ਸਿਉ ਲਾਈਐ ॥
रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥
हे भाई ! मन को भगवान के साथ लगाना चाहिए।
ਚਤੁਰਾਈ ਨ ਚਤੁਰਭੁਜੁ ਪਾਈਐ ॥ ਰਹਾਉ ॥
चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥
किसी चतुराई से चतुर्भुज प्रभु प्राप्त नहीं होता। रहाउ॥
ਪਰਹਰੁ ਲੋਭੁ ਅਰੁ ਲੋਕਾਚਾਰੁ ॥
परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥
“(हे भाई !) लोभ एवं लोकाचार,
ਪਰਹਰੁ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥੨॥
परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥
काम, क्रोध एवं अहंकार को त्याग दो॥ २॥
ਕਰਮ ਕਰਤ ਬਧੇ ਅਹੰਮੇਵ ॥
करम करत बधे अहमेव ॥
कर्मकाण्ड करने से मनुष्य अहंकार में फँस जाता है।
ਮਿਲਿ ਪਾਥਰ ਕੀ ਕਰਹੀ ਸੇਵ ॥੩॥
मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥
ऐसे मनुष्य मिलकर पत्थर की ही पूजा करते हैं।॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਭਗਤਿ ਕਰਿ ਪਾਇਆ ॥
कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥
हे कबीर ! भक्ति करने से ही भगवान मिल सकता है।
ਭੋਲੇ ਭਾਇ ਮਿਲੇ ਰਘੁਰਾਇਆ ॥੪॥੬॥
भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥
भोलेपन से ही रघुराम मिलता है॥ ४॥ ६॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਗਰਭ ਵਾਸ ਮਹਿ ਕੁਲੁ ਨਹੀ ਜਾਤੀ ॥
गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
माँ के गर्भ में प्राणी को यह पता नहीं होता कि मैं किस कुल एवं जाति का हूँ
ਬ੍ਰਹਮ ਬਿੰਦੁ ਤੇ ਸਭ ਉਤਪਾਤੀ ॥੧॥
ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
प्रभु के अंश से ही समस्त जीव-जन्तु उत्पन्न हुए हैं। ॥ १॥
ਕਹੁ ਰੇ ਪੰਡਿਤ ਬਾਮਨ ਕਬ ਕੇ ਹੋਏ ॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
हे पण्डित ! कहो, तुम ब्राह्मण कब से बन चुके हो ?
ਬਾਮਨ ਕਹਿ ਕਹਿ ਜਨਮੁ ਮਤ ਖੋਏ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥
अपने आपको ब्राह्मण कह-कहकर अपना अनमोल जीवन बर्बाद मत कर ॥ १॥ रहाउ॥
ਜੌ ਤੂੰ ਬ੍ਰਾਹਮਣੁ ਬ੍ਰਹਮਣੀ ਜਾਇਆ ॥
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
यदि (हे पण्डित !) तुम सचमुच ब्राह्मण हो और तुमने ब्राह्मणी माता के गर्भ से जन्म लिया है
ਤਉ ਆਨ ਬਾਟ ਕਾਹੇ ਨਹੀ ਆਇਆ ॥੨॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तो किसी दूसरे मार्ग द्वारा क्यों नहीं उत्पन्न हुए ? ॥ २॥
ਤੁਮ ਕਤ ਬ੍ਰਾਹਮਣ ਹਮ ਕਤ ਸੂਦ ॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
(हे पण्डित !) तुम ब्राह्मण कैसे हो ? और हम किस तरह शूद्र हैं?
ਹਮ ਕਤ ਲੋਹੂ ਤੁਮ ਕਤ ਦੂਧ ॥੩॥
हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥
हमारे शरीर में कैसे रक्त ही है? तुम्हारे शरीर में किस प्रकार (रक्त के स्थान पर) दूध है ? ॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਜੋ ਬ੍ਰਹਮੁ ਬੀਚਾਰੈ ॥
कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥
हे कबीर ! जो ब्रहा का चिंतन करता है
ਸੋ ਬ੍ਰਾਹਮਣੁ ਕਹੀਅਤੁ ਹੈ ਹਮਾਰੈ ॥੪॥੭॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥
हम केवल उसी को ब्राह्मण कहते हैं ॥ ४ ॥ ७ ॥