ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਸਭਿ ਦੂਜੈ ਲਾਗੇ ਦੇਖਹੁ ਰਿਦੈ ਬੀਚਾਰਿ ॥
बिनु सबदै सभि दूजै लागे देखहु रिदै बीचारि ॥
अपने हृदय में भलीभांति विचार करके देख लो, ब्रह्म-शब्द के बिना लोग द्वैतभाव में ही लगे हुए हैं।
ਨਾਨਕ ਵਡੇ ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਜਿਨੀ ਸਚੁ ਰਖਿਆ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥੩੪॥
नानक वडे से वडभागी जिनी सचु रखिआ उर धारि ॥३४॥
हे नानक ! वही मनुष्य बड़े और भाग्यवान हैं, जिन्होंने अपने हृदय में सत्य को बसाकर रखा हुआ है॥ ३४॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਤਨੁ ਲਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
गुरमुखि रतनु लहै लिव लाइ ॥
गुरुमुख की नाम-रत्न में ही लगन लगी रहती है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਖੈ ਰਤਨੁ ਸੁਭਾਇ ॥
गुरमुखि परखै रतनु सुभाइ ॥
सहज-स्वभाव ही नाम-रत्न की परख कर लेता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥
गुरमुखि साची कार कमाइ ॥
वह नाम-सिमरन का ही सच्चा कार्य करता रहता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੇ ਮਨੁ ਪਤੀਆਇ ॥
गुरमुखि साचे मनु पतीआइ ॥
उसका मन सत्य में ही विश्वस्त हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅਲਖੁ ਲਖਾਏ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ॥
गुरमुखि अलखु लखाए तिसु भावै ॥
गुरुमुख अन्यों को भी अलख प्रभु के दर्शन करवा देता है और यही उसे अच्छा लगता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਚੋਟ ਨ ਖਾਵੈ ॥੩੫॥
नानक गुरमुखि चोट न खावै ॥३५॥
हे नानक ! गुरुमुख यम की चोट नहीं खाता॥ ३५ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਦਾਨੁ ਇਸਨਾਨੁ ॥
गुरमुखि नामु दानु इसनानु ॥
गुरुमुख नाम जपता है, शरीर की शुद्धता के लिए स्नान करता और गरीबों को दान देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਾਗੈ ਸਹਜਿ ਧਿਆਨੁ ॥
गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥
उसका सहज ही ईश्वर में ध्यान लगा रहता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਵੈ ਦਰਗਹ ਮਾਨੁ ॥
गुरमुखि पावै दरगह मानु ॥
उसे सत्य के दरबार में सम्मान प्राप्त हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਉ ਭੰਜਨੁ ਪਰਧਾਨੁ ॥
गुरमुखि भउ भंजनु परधानु ॥
हे नानक ! गुरुमुख भयनाशक परमेश्वर का चिंतन करके प्रमुख बन जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰਣੀ ਕਾਰ ਕਰਾਏ ॥
गुरमुखि करणी कार कराए ॥
वह अन्यों से भी नाम-दान का शुभ कर्म करवाता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਏ ॥੩੬॥
नानक गुरमुखि मेलि मिलाए ॥३६॥
नानक कहते हैं कि गुरुमुख अपने संगियों को भी ईश्वर से मिला देता है॥ ३६ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਸਤ੍ਰ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਬੇਦ ॥
गुरमुखि सासत्र सिम्रिति बेद ॥
गुरुमुख शास्त्रों, स्मृतियों एवं वेदों का ज्ञाता होता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਵੈ ਘਟਿ ਘਟਿ ਭੇਦ ॥
गुरमुखि पावै घटि घटि भेद ॥
वह घट-घट में व्याप्त ईश्वर के रहस्य को जान लेता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੈਰ ਵਿਰੋਧ ਗਵਾਵੈ ॥
गुरमुखि वैर विरोध गवावै ॥
वह मन में से वैर-विरोध की भावना को दूर कर देता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਗਲੀ ਗਣਤ ਮਿਟਾਵੈ ॥
गुरमुखि सगली गणत मिटावै ॥
सब हिसाब मिटा देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਾਮ ਨਾਮ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ॥
गुरमुखि राम नाम रंगि राता ॥
वह राम नाम के रंग में ही लीन रहता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਖਸਮੁ ਪਛਾਤਾ ॥੩੭॥
नानक गुरमुखि खसमु पछाता ॥३७॥
हे नानक ! गुरुमुख ने मालिक-प्रभु को पहचान लिया है॥ ३७ ॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਭਰਮੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
बिनु गुर भरमै आवै जाइ ॥
गुरु के बिना जीव भ्रम में पड़कर जन्म-मरण में फँसा रहता है और
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਘਾਲ ਨ ਪਵਈ ਥਾਇ ॥
बिनु गुर घाल न पवई थाइ ॥
गुरु के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं होता।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮਨੂਆ ਅਤਿ ਡੋਲਾਇ ॥
बिनु गुर मनूआ अति डोलाइ ॥
गुरु के बिना जीव का मन बहुत डगमगाता रहता है और
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨਹੀ ਬਿਖੁ ਖਾਇ ॥
बिनु गुर त्रिपति नही बिखु खाइ ॥
गुरु बिना मन को तृप्ति नहीं होती और वह माया रूपी विष ही सेवन करता रहता है।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਬਿਸੀਅਰੁ ਡਸੈ ਮਰਿ ਵਾਟ ॥
बिनु गुर बिसीअरु डसै मरि वाट ॥
गुरु के बिना माया रूपी सर्प जीव को डंस लेता है और वह जीवन रूपी पंथ में ही प्राण त्याग देता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਘਾਟੇ ਘਾਟ ॥੩੮॥
नानक गुर बिनु घाटे घाट ॥३८॥
हे नानक ! गुरु के बिना मनुष्य को अपने जीवन में घाटा ही घाटा होता है ॥३८॥
ਜਿਸੁ ਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਤਿਸੁ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰੈ ॥
जिसु गुरु मिलै तिसु पारि उतारै ॥
जिस व्यक्ति को गुरु मिल जाता है, वह उसे संसार-सागर से पार उतार देता है।
ਅਵਗਣ ਮੇਟੈ ਗੁਣਿ ਨਿਸਤਾਰੈ ॥
अवगण मेटै गुणि निसतारै ॥
वह उसके अवगुण मिटाकर उसे गुण प्रदान कर देता है।
ਮੁਕਤਿ ਮਹਾ ਸੁਖ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰਿ ॥
मुकति महा सुख गुर सबदु बीचारि ॥
गुरु-शब्द का चिंतन करने से मुक्ति एवं परम सुख प्राप्त हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਦੇ ਨ ਆਵੈ ਹਾਰਿ ॥
गुरमुखि कदे न आवै हारि ॥
गुरुमुख जीव जीवन में कभी पराजित नहीं होता।
ਤਨੁ ਹਟੜੀ ਇਹੁ ਮਨੁ ਵਣਜਾਰਾ ॥
तनु हटड़ी इहु मनु वणजारा ॥
मनुष्य का यह तन एक दुकान है और इसमें मन एक व्यापारी बैठा है।
ਨਾਨਕ ਸਹਜੇ ਸਚੁ ਵਾਪਾਰਾ ॥੩੯॥
नानक सहजे सचु वापारा ॥३९॥
नानक कहते हैं कि यह मन सहज ही सत्य का व्यापार करता रहता है॥ ३९ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਾਂਧਿਓ ਸੇਤੁ ਬਿਧਾਤੈ ॥
गुरमुखि बांधिओ सेतु बिधातै ॥
विधाता ने गुरुमुखों के लिए समुद्र पर सेतु बांध दिया था।
ਲੰਕਾ ਲੂਟੀ ਦੈਤ ਸੰਤਾਪੈ ॥
लंका लूटी दैत संतापै ॥
इस प्रकार रावण की लंका को लूट लिया और दैत्यों का संहार हुआ।
ਰਾਮਚੰਦਿ ਮਾਰਿਓ ਅਹਿ ਰਾਵਣੁ ॥
रामचंदि मारिओ अहि रावणु ॥
तब रामचन्द्र जी ने लंकापति रावण का वध कर दिया
ਭੇਦੁ ਬਭੀਖਣ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਚਾਇਣੁ ॥
भेदु बभीखण गुरमुखि परचाइणु ॥
जब विभीषण ने रावण का भेद बताया ।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਇਰਿ ਪਾਹਣ ਤਾਰੇ ॥
गुरमुखि साइरि पाहण तारे ॥
गुरु ने पत्थरों को भी समुद्र से तार दिया है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕੋਟਿ ਤੇਤੀਸ ਉਧਾਰੇ ॥੪੦॥
गुरमुखि कोटि तेतीस उधारे ॥४०॥
तेतीस करोड़ देवताओं का भी उद्धार कर दिया है॥ ४० ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਚੂਕੈ ਆਵਣ ਜਾਣੁ ॥
गुरमुखि चूकै आवण जाणु ॥
गुरुमुख का जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਦਰਗਹ ਪਾਵੈ ਮਾਣੁ ॥
गुरमुखि दरगह पावै माणु ॥
उसे भगवान के दरबार में शोभा प्राप्त हो जाती हे।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਖੋਟੇ ਖਰੇ ਪਛਾਣੁ ॥
गुरमुखि खोटे खरे पछाणु ॥
उसे बुरे-भले की पहचान हो जाती है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਾਗੈ ਸਹਜਿ ਧਿਆਨੁ ॥
गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥
सहज ही उसका परम-सत्य में ध्यान लगा रहता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਦਰਗਹ ਸਿਫਤਿ ਸਮਾਇ ॥
गुरमुखि दरगह सिफति समाइ ॥
वह सत्य के दरबार में जाकर परमात्मा की स्तुति में ही लीन रहता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੰਧੁ ਨ ਪਾਇ ॥੪੧॥
नानक गुरमुखि बंधु न पाइ ॥४१॥
नानक कहते हैं कि गुरुमुख को कोई बन्धन नहीं पड़ता॥ ४१॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨ ਪਾਏ ॥
गुरमुखि नामु निरंजन पाए ॥
गुरुमुख को निरंजन नाम प्राप्त हो जाता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਜਲਾਏ ॥
गुरमुखि हउमै सबदि जलाए ॥
वह शब्द द्वारा अहंत्व को जला देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੇ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਏ ॥
गुरमुखि साचे के गुण गाए ॥
वह सच्चे परमेश्वर का ही गुणगान करता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੈ ਰਹੈ ਸਮਾਏ ॥
गुरमुखि साचै रहै समाए ॥
सत्य में ही लीन रहता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚਿ ਨਾਮਿ ਪਤਿ ਊਤਮ ਹੋਇ ॥
गुरमुखि साचि नामि पति ऊतम होइ ॥
वह परमात्मा का नाम जपता रहता है और उसकी प्रतिष्ठा उत्तम हो जाती है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਗਲ ਭਵਣ ਕੀ ਸੋਝੀ ਹੋਇ ॥੪੨॥
नानक गुरमुखि सगल भवण की सोझी होइ ॥४२॥
नानक कहते हैं कि गुरुमुख को समूचे विश्व की सूझ हो जाती है ॥४२॥
ਕਵਣ ਮੂਲੁ ਕਵਣ ਮਤਿ ਵੇਲਾ ॥
कवण मूलु कवण मति वेला ॥
(सिद्धों ने एक बार फिर गुरु नानक देव जी से पूछा-) सृष्टि का मूल क्या है? यह मानव-जीवन कौन-सा उपदेश लेने का समय है ?
ਤੇਰਾ ਕਵਣੁ ਗੁਰੂ ਜਿਸ ਕਾ ਤੂ ਚੇਲਾ ॥
तेरा कवणु गुरू जिस का तू चेला ॥
तेरा गुरु कौन है, जिसका तू चेला है?”
ਕਵਣ ਕਥਾ ਲੇ ਰਹਹੁ ਨਿਰਾਲੇ ॥
कवण कथा ले रहहु निराले ॥
कौन-सी कथा लेकर तू दुनिया से निर्लिप्त रहता है ?
ਬੋਲੈ ਨਾਨਕੁ ਸੁਣਹੁ ਤੁਮ ਬਾਲੇ ॥
बोलै नानकु सुणहु तुम बाले ॥
हे बालक नानक ! जो हम बोल रहे हैं तुम ध्यान से सुनो।
ਏਸੁ ਕਥਾ ਕਾ ਦੇਇ ਬੀਚਾਰੁ ॥
एसु कथा का देइ बीचारु ॥
हमें इस कथा का भी अपना विचार बताओ केि
ਭਵਜਲੁ ਸਬਦਿ ਲੰਘਾਵਣਹਾਰੁ ॥੪੩॥
भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥४३॥
शब्द संसार-सागर से पार करवाने वाला है ?॥ ४३ ॥