Hindi Page 952

ਵਿਣੁ ਗੁਰ ਪੀਰੈ ਕੋ ਥਾਇ ਨ ਪਾਈ ॥
विणु गुर पीरै को थाइ न पाई ॥
गुरु-पीर के बिना उसे भी खुदा के घर स्थान नहीं मिलता।

ਰਾਹੁ ਦਸਾਇ ਓਥੈ ਕੋ ਜਾਇ ॥
राहु दसाइ ओथै को जाइ ॥
वहाँ प्रभु के दरबार में जाने का मार्ग तो हर कोई पूछता रहता है परन्तु कोई विरला ही वहाँ जाता है।

ਕਰਣੀ ਬਾਝਹੁ ਭਿਸਤਿ ਨ ਪਾਇ ॥
करणी बाझहु भिसति न पाइ ॥
शुभ कर्म के बिना कोई भी स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सकता।

ਜੋਗੀ ਕੈ ਘਰਿ ਜੁਗਤਿ ਦਸਾਈ ॥
जोगी कै घरि जुगति दसाई ॥
जिस किसी मनुष्य ने योगी के घर जाकर उससे योग की युक्ति पूछी है तो

ਤਿਤੁ ਕਾਰਣਿ ਕਨਿ ਮੁੰਦ੍ਰਾ ਪਾਈ ॥
तितु कारणि कनि मुंद्रा पाई ॥
उसके मनोरथ के लिए योगी ने उसके कानों में मुद्राएँ डाल दी हैं।

ਮੁੰਦ੍ਰਾ ਪਾਇ ਫਿਰੈ ਸੰਸਾਰਿ ॥
मुंद्रा पाइ फिरै संसारि ॥
मनुष्य मुद्राएँ पहनकर संसार में इधर-उधर ही भटकता रहता है

ਜਿਥੈ ਕਿਥੈ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ॥
जिथै किथै सिरजणहारु ॥
किन्तु सृजनहार परमेश्वर सर्वव्यापक है ।

ਜੇਤੇ ਜੀਅ ਤੇਤੇ ਵਾਟਾਊ ॥
जेते जीअ तेते वाटाऊ ॥
जगत् में जितने भी जीव हैं, वे सभी मुसाफिर हैं।

ਚੀਰੀ ਆਈ ਢਿਲ ਨ ਕਾਊ ॥
चीरी आई ढिल न काऊ ॥
जब भी किसी जीव को मृत्यु का निमंत्रण आया है, उसने जाने में कभी कोई देरी नहीं की।

ਏਥੈ ਜਾਣੈ ਸੁ ਜਾਇ ਸਿਞਾਣੈ ॥
एथै जाणै सु जाइ सिञाणै ॥
जिसे इहलोक में भगवान की पहचान हो जाती है, वह परलोक में भी जाकर उसे पहचान लेता है।

ਹੋਰੁ ਫਕੜੁ ਹਿੰਦੂ ਮੁਸਲਮਾਣੈ ॥
होरु फकड़ु हिंदू मुसलमाणै ॥
हिन्दू एवं मुसलमान के शुभ कर्म के बिना अन्य सब व्यर्थ है।

ਸਭਨਾ ਕਾ ਦਰਿ ਲੇਖਾ ਹੋਇ ॥
सभना का दरि लेखा होइ ॥
सत्य के दरबार में सब जीवों के कर्मो का हिसाब-किताब होता है और

ਕਰਣੀ ਬਾਝਹੁ ਤਰੈ ਨ ਕੋਇ ॥
करणी बाझहु तरै न कोइ ॥
शुभ कर्मों के बिना किसी की भी मुक्ति संभव नहीं।

ਸਚੋ ਸਚੁ ਵਖਾਣੈ ਕੋਇ ॥ ਨਾਨਕ ਅਗੈ ਪੁਛ ਨ ਹੋਇ ॥੨॥
सचो सचु वखाणै कोइ ॥ नानक अगै पुछ न होइ ॥२॥
गुरु नानक कहते हैं कि परमसत्य परमेश्वर का नाम जपने वाले जीव की आगे परलोक में कोई पूछताछ नहीं होती ॥ २ ॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਹਰਿ ਕਾ ਮੰਦਰੁ ਆਖੀਐ ਕਾਇਆ ਕੋਟੁ ਗੜੁ ॥
हरि का मंदरु आखीऐ काइआ कोटु गड़ु ॥
यह मानव-शरीर रूपी किला हरि का मन्दिर कहा जाता है।

ਅੰਦਰਿ ਲਾਲ ਜਵੇਹਰੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪੜੁ ॥
अंदरि लाल जवेहरी गुरमुखि हरि नामु पड़ु ॥
इस में लाल एवं जवाहर रूपी शुभ गुण पड़े हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए गुरु के माध्यम से हरि का नाम जपो।

ਹਰਿ ਕਾ ਮੰਦਰੁ ਸਰੀਰੁ ਅਤਿ ਸੋਹਣਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦਿੜੁ ॥
हरि का मंदरु सरीरु अति सोहणा हरि हरि नामु दिड़ु ॥
यह शरीर रूपी हरि का मन्दिर अति सुन्दर है, इसलिए हरि नाम को मन में बसा लो।

ਮਨਮੁਖ ਆਪਿ ਖੁਆਇਅਨੁ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਨਿਤ ਕੜੁ ॥
मनमुख आपि खुआइअनु माइआ मोह नित कड़ु ॥
स्वेच्छाचारी जीव स्वयं ही कुमार्गगामी होते हैं और नित्य मोह-माया में फँसकर दुखी होते रहते हैं।

ਸਭਨਾ ਸਾਹਿਬੁ ਏਕੁ ਹੈ ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਪਾਇਆ ਜਾਈ ॥੧੧॥
सभना साहिबु एकु है पूरै भागि पाइआ जाई ॥११॥
सबका मालिक एक परमेश्वर ही है, परन्तु उत्तम भाग्य से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है॥ ११॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥
सलोक मः १ ॥
श्लोक महला १॥

ਨਾ ਸਤਿ ਦੁਖੀਆ ਨਾ ਸਤਿ ਸੁਖੀਆ ਨਾ ਸਤਿ ਪਾਣੀ ਜੰਤ ਫਿਰਹਿ ॥
ना सति दुखीआ ना सति सुखीआ ना सति पाणी जंत फिरहि ॥
दुख भोगने, सुखों में लीन रहने एवं जल में जीवों की तरह डुबकियां लगाने से भी सिद्धि नहीं मिलती।

ਨਾ ਸਤਿ ਮੂੰਡ ਮੁਡਾਈ ਕੇਸੀ ਨਾ ਸਤਿ ਪੜਿਆ ਦੇਸ ਫਿਰਹਿ ॥
ना सति मूंड मुडाई केसी ना सति पड़िआ देस फिरहि ॥
सिर के केश मुंडवा लेने एवं विद्या पढ़कर देश-प्रदेश में भटकने से भी सिद्धि नहीं होती।

ਨਾ ਸਤਿ ਰੁਖੀ ਬਿਰਖੀ ਪਥਰ ਆਪੁ ਤਛਾਵਹਿ ਦੁਖ ਸਹਹਿ ॥
ना सति रुखी बिरखी पथर आपु तछावहि दुख सहहि ॥
पेड़ों, पहाड़ों में रहकर और खुद को आरे से चिरवा कर दुख सहने से भी सिद्धि नहीं होती।

ਨਾ ਸਤਿ ਹਸਤੀ ਬਧੇ ਸੰਗਲ ਨਾ ਸਤਿ ਗਾਈ ਘਾਹੁ ਚਰਹਿ ॥
ना सति हसती बधे संगल ना सति गाई घाहु चरहि ॥
हाथी को जंजीर से बांधकर एवं गाय को घास चराने से भी सिद्धि नहीं होती।

ਜਿਸੁ ਹਥਿ ਸਿਧਿ ਦੇਵੈ ਜੇ ਸੋਈ ਜਿਸ ਨੋ ਦੇਇ ਤਿਸੁ ਆਇ ਮਿਲੈ ॥
जिसु हथि सिधि देवै जे सोई जिस नो देइ तिसु आइ मिलै ॥
जिस परमेश्वर के हाथ में सिद्धि है, यदि वह किसी को सिद्धि प्रदान करे तो ही वह उसे आकर मिलता है, जिसे सिद्धि देता है।

ਨਾਨਕ ਤਾ ਕਉ ਮਿਲੈ ਵਡਾਈ ਜਿਸੁ ਘਟ ਭੀਤਰਿ ਸਬਦੁ ਰਵੈ ॥
नानक ता कउ मिलै वडाई जिसु घट भीतरि सबदु रवै ॥
हे नानक ! यह कीर्ति उसे ही मिलती है, जिसके हदय में ब्रहा-शब्द बस जाता है।

ਸਭਿ ਘਟ ਮੇਰੇ ਹਉ ਸਭਨਾ ਅੰਦਰਿ ਜਿਸਹਿ ਖੁਆਈ ਤਿਸੁ ਕਉਣੁ ਕਹੈ ॥
सभि घट मेरे हउ सभना अंदरि जिसहि खुआई तिसु कउणु कहै ॥
परमेश्वर का फुरमान है कि सब शरीर मेरे ही बनाए हुए हैं और सबमें मैं ही मौजूद हूँ, जिसे मैं कुमार्गगामी कर देता हूँ, उसे कौन सन्मार्ग बता सकता है।

ਜਿਸਹਿ ਦਿਖਾਲਾ ਵਾਟੜੀ ਤਿਸਹਿ ਭੁਲਾਵੈ ਕਉਣੁ ॥
जिसहि दिखाला वाटड़ी तिसहि भुलावै कउणु ॥
जिसे मार्गदर्शन करता है, उसे कौन भुला सकता है?”

ਜਿਸਹਿ ਭੁਲਾਈ ਪੰਧ ਸਿਰਿ ਤਿਸਹਿ ਦਿਖਾਵੈ ਕਉਣੁ ॥੧॥
जिसहि भुलाई पंध सिरि तिसहि दिखावै कउणु ॥१॥
जिसे प्रारम्भ से ही रास्ता भुला दिया है, उसे कौन रास्ता दिखा सकता हे ?॥१॥

ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १॥

ਸੋ ਗਿਰਹੀ ਜੋ ਨਿਗ੍ਰਹੁ ਕਰੈ ॥
सो गिरही जो निग्रहु करै ॥
वही गृहस्थी उत्तम है, जो अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है।

ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਭੀਖਿਆ ਕਰੈ ॥
जपु तपु संजमु भीखिआ करै ॥
वह जप, तप एवं संयम को भिक्षा बना लेता है और

ਪੁੰਨ ਦਾਨ ਕਾ ਕਰੇ ਸਰੀਰੁ ॥
पुंन दान का करे सरीरु ॥
अपने शरीर को दान-पुण्य करने वाला बना लेता है।

ਸੋ ਗਿਰਹੀ ਗੰਗਾ ਕਾ ਨੀਰੁ ॥
सो गिरही गंगा का नीरु ॥
ऐसा गंगा जल की तरह पावन हो जाता है।

ਬੋਲੈ ਈਸਰੁ ਸਤਿ ਸਰੂਪੁ ॥
बोलै ईसरु सति सरूपु ॥
ईसर कहता है कि परमात्मा सत्यस्वरूप है,

ਪਰਮ ਤੰਤ ਮਹਿ ਰੇਖ ਨ ਰੂਪੁ ॥੨॥
परम तंत महि रेख न रूपु ॥२॥
उस परमतत्व में कोई चक्र-चिन्ह एवं रूप नहीं है॥ २ ॥

ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १॥

ਸੋ ਅਉਧੂਤੀ ਜੋ ਧੂਪੈ ਆਪੁ ॥
सो अउधूती जो धूपै आपु ॥
वही अवधूत है, जो आत्माभिमान को जला देता है।

ਭਿਖਿਆ ਭੋਜਨੁ ਕਰੈ ਸੰਤਾਪੁ ॥
भिखिआ भोजनु करै संतापु ॥
वह अपने शारीरिक संताप को भिक्षा भोजन बना लेता है।

ਅਉਹਠ ਪਟਣ ਮਹਿ ਭੀਖਿਆ ਕਰੈ ॥
अउहठ पटण महि भीखिआ करै ॥
वह अपने हृदय रूपी नगर में जाकर नाम की भिक्षा मांगता है।

ਸੋ ਅਉਧੂਤੀ ਸਿਵ ਪੁਰਿ ਚੜੈ ॥
सो अउधूती सिव पुरि चड़ै ॥
ऐसा अवधूत परमात्मा के चरणों में विलीन हो जाता है।

ਬੋਲੈ ਗੋਰਖੁ ਸਤਿ ਸਰੂਪੁ ॥
बोलै गोरखु सति सरूपु ॥
गोरख कहता है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है,

ਪਰਮ ਤੰਤ ਮਹਿ ਰੇਖ ਨ ਰੂਪੁ ॥੩॥
परम तंत महि रेख न रूपु ॥३॥
उस परमतत्व का कोई रूप अथवा चिन्ह नहीं है॥ ३ ॥

ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १॥

ਸੋ ਉਦਾਸੀ ਜਿ ਪਾਲੇ ਉਦਾਸੁ ॥
सो उदासी जि पाले उदासु ॥
वही उदासी साधु भला है जो वैराग्य का पालन करता है।

ਅਰਧ ਉਰਧ ਕਰੇ ਨਿਰੰਜਨ ਵਾਸੁ ॥
अरध उरध करे निरंजन वासु ॥
वह निरंजन का ध्यान करता रहता है, जिसका निवास पृथ्वी एवं गगन इत्यादि सब लोकों में है।

ਚੰਦ ਸੂਰਜ ਕੀ ਪਾਏ ਗੰਢਿ ॥
चंद सूरज की पाए गंढि ॥
जो शिव रूपी चाँद एवं शक्ति रूपी सूर्य का सुमेल करवा देता है

ਤਿਸੁ ਉਦਾਸੀ ਕਾ ਪੜੈ ਨ ਕੰਧੁ ॥
तिसु उदासी का पड़ै न कंधु ॥
उस विरक्त की शरीर रूपी दीवार ध्वस्त नहीं होती ।

ਬੋਲੈ ਗੋਪੀ ਚੰਦੁ ਸਤਿ ਸਰੂਪੁ ॥
बोलै गोपी चंदु सति सरूपु ॥
गोपीचंद कहता है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है,

ਪਰਮ ਤੰਤ ਮਹਿ ਰੇਖ ਨ ਰੂਪੁ ॥੪॥
परम तंत महि रेख न रूपु ॥४॥
वह परमतत्व निराकार है॥ ४ ॥

ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १॥

ਸੋ ਪਾਖੰਡੀ ਜਿ ਕਾਇਆ ਪਖਾਲੇ ॥
सो पाखंडी जि काइआ पखाले ॥
वही जैनी साधु उत्तम है, जो काया की मैल को शुद्ध करता है।

ਕਾਇਆ ਕੀ ਅਗਨਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਰਜਾਲੇ ॥
काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले ॥
वह अपनी काया की अग्नि में ब्रह्म को प्रज्वलित करता है और

ਸੁਪਨੈ ਬਿੰਦੁ ਨ ਦੇਈ ਝਰਣਾ ॥
सुपनै बिंदु न देई झरणा ॥
स्वप्न में भी अपने वीर्य को बहने नहीं देता।

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