ਜੋਬਨੁ ਧਨੁ ਪ੍ਰਭਤਾ ਕੈ ਮਦ ਮੈ ਅਹਿਨਿਸਿ ਰਹੈ ਦਿਵਾਨਾ ॥੧॥
जोबनु धनु प्रभता कै मद मै अहिनिसि रहै दिवाना ॥१॥
यह यौवन, धन एवं प्रभुता के नशे में दिन-रात दीवाना हुआ रहता है॥१॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਸਦਾ ਦੁਖ ਭੰਜਨ ਤਾ ਸਿਉ ਮਨੁ ਨ ਲਗਾਨਾ ॥
दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ मनु न लगाना ॥
जो सदैव ही दीनदयालु एवं दुखों का नाश करने वाला है, इसने उस भगवान के साथ अपना मन नहीं लगाया।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕੋਟਨ ਮੈ ਕਿਨਹੂ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ਪਛਾਨਾ ॥੨॥੨॥
जन नानक कोटन मै किनहू गुरमुखि होइ पछाना ॥२॥२॥
हे नानक ! करोड़ों में किसी विरले मनुष्य ने ही गुरुमुख बनकर भगवान की पहचान की है॥२॥२॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੯ ॥
धनासरी महला ९ ॥
धनासरी महला ९ ॥
ਤਿਹ ਜੋਗੀ ਕਉ ਜੁਗਤਿ ਨ ਜਾਨਉ ॥
तिह जोगी कउ जुगति न जानउ ॥
उस योगी को योग-साधना की युक्ति की सूझ नहीं है
ਲੋਭ ਮੋਹ ਮਾਇਆ ਮਮਤਾ ਫੁਨਿ ਜਿਹ ਘਟਿ ਮਾਹਿ ਪਛਾਨਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
लोभ मोह माइआ ममता फुनि जिह घटि माहि पछानउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिस के हृदय में लोभ, मोह एवं माया की ममता प्रबल रहती है॥ १॥ रहाउ॥
ਪਰ ਨਿੰਦਾ ਉਸਤਤਿ ਨਹ ਜਾ ਕੈ ਕੰਚਨ ਲੋਹ ਸਮਾਨੋ ॥
पर निंदा उसतति नह जा कै कंचन लोह समानो ॥
जिसके स्वभाव में पराई निन्दा एवं प्रशंसा नहीं है, जिसके लिए सोना एवं लोहा एक समान है और
ਹਰਖ ਸੋਗ ਤੇ ਰਹੈ ਅਤੀਤਾ ਜੋਗੀ ਤਾਹਿ ਬਖਾਨੋ ॥੧॥
हरख सोग ते रहै अतीता जोगी ताहि बखानो ॥१॥
जो खुशी एवं चिन्ता से तटस्थ रहता है, उसे ही वास्तविक योगी समझो।॥१॥
ਚੰਚਲ ਮਨੁ ਦਹ ਦਿਸਿ ਕਉ ਧਾਵਤ ਅਚਲ ਜਾਹਿ ਠਹਰਾਨੋ ॥
चंचल मनु दह दिसि कउ धावत अचल जाहि ठहरानो ॥
यह चंचल मन दसों दिशाओं में भटकता रहता है, जिसने इसे स्थिर कर लिया है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਇਹ ਬਿਧਿ ਕੋ ਜੋ ਨਰੁ ਮੁਕਤਿ ਤਾਹਿ ਤੁਮ ਮਾਨੋ ॥੨॥੩॥
कहु नानक इह बिधि को जो नरु मुकति ताहि तुम मानो ॥२॥३॥
हे नानक ! जो आदमी इस प्रकार का है, उसे ही माया के बन्धनों से मुक्त हुआ समझो॥२॥३॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੯ ॥
धनासरी महला ९ ॥
धनासरी महला ९ ॥
ਅਬ ਮੈ ਕਉਨੁ ਉਪਾਉ ਕਰਉ ॥
अब मै कउनु उपाउ करउ ॥
अब मैं क्या उपाय करूँ ?
ਜਿਹ ਬਿਧਿ ਮਨ ਕੋ ਸੰਸਾ ਚੂਕੈ ਭਉ ਨਿਧਿ ਪਾਰਿ ਪਰਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिह बिधि मन को संसा चूकै भउ निधि पारि परउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिस विधि से मेरे मन का संशय दूर हो जाए और मैं भयानक संसार-सागर से पार हो जाऊँ॥१॥ रहाउ ॥
ਜਨਮੁ ਪਾਇ ਕਛੁ ਭਲੋ ਨ ਕੀਨੋ ਤਾ ਤੇ ਅਧਿਕ ਡਰਉ ॥
जनमु पाइ कछु भलो न कीनो ता ते अधिक डरउ ॥
अमूल्य मानव जन्म प्राप्त करके मैंने कोई शुभ-कर्म नहीं किया, इसलिए मैं बहुत डरता हूँ।
ਮਨ ਬਚ ਕ੍ਰਮ ਹਰਿ ਗੁਨ ਨਹੀ ਗਾਏ ਯਹ ਜੀਅ ਸੋਚ ਧਰਉ ॥੧॥
मन बच क्रम हरि गुन नही गाए यह जीअ सोच धरउ ॥१॥
यह चिन्ता मेरे मन में लगी रहती है कि मैंने अपने मन, वचन एवं कर्म से कभी भी भगवान का गुणगान नहीं किया॥१॥
ਗੁਰਮਤਿ ਸੁਨਿ ਕਛੁ ਗਿਆਨੁ ਨ ਉਪਜਿਓ ਪਸੁ ਜਿਉ ਉਦਰੁ ਭਰਉ ॥
गुरमति सुनि कछु गिआनु न उपजिओ पसु जिउ उदरु भरउ ॥
गुरु का उपदेश सुनकर मेरे मन में कुछ भी ज्ञान पैदा नहीं हुआ और मैं तो पशु की भांति अपना पेट भरता रहता हूँ।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਬਿਰਦੁ ਪਛਾਨਉ ਤਬ ਹਉ ਪਤਿਤ ਤਰਉ ॥੨॥੪॥੯॥੯॥੧੩॥੫੮॥੪॥੯੩॥
कहु नानक प्रभ बिरदु पछानउ तब हउ पतित तरउ ॥२॥४॥९॥९॥१३॥५८॥४॥९३॥
नानक का कथन है कि हे प्रभु ! तुम अपने विरद् को पहचानो, तब ही मैं पतित भवसागर में से पार हो सकता ॥२॥४॥९॥९॥१३॥५८॥४॥९३॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੨ ਅਸਟਪਦੀਆ
धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ
धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਗੁਰੁ ਸਾਗਰੁ ਰਤਨੀ ਭਰਪੂਰੇ ॥
गुरु सागरु रतनी भरपूरे ॥
गुरु नाम रूपी रत्नों से भरा हुआ सागर है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸੰਤ ਚੁਗਹਿ ਨਹੀ ਦੂਰੇ ॥
अम्रितु संत चुगहि नही दूरे ॥
संत रूपी हंस इस में से अमृत रूपी रत्न चुगते हैं और वे गुरु रूपी सागर से दूर नहीं होते।
ਹਰਿ ਰਸੁ ਚੋਗ ਚੁਗਹਿ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ॥
हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै ॥
संत रूपी हंस हरि रस रूपी चोगा चुगते हैं और वे प्रभु को अच्छे लगते हैं।
ਸਰਵਰ ਮਹਿ ਹੰਸੁ ਪ੍ਰਾਨਪਤਿ ਪਾਵੈ ॥੧॥
सरवर महि हंसु प्रानपति पावै ॥१॥
हंस रूपी संत, सागर रूपी गुरु में से अपने प्राणपति परमेश्वर को पा लेते हैं।॥१॥
ਕਿਆ ਬਗੁ ਬਪੁੜਾ ਛਪੜੀ ਨਾਇ ॥
किआ बगु बपुड़ा छपड़ी नाइ ॥
बेचारा बगुला (पाखण्डी) छोटे तालाब में क्यों स्नान करता है ?
ਕੀਚੜਿ ਡੂਬੈ ਮੈਲੁ ਨ ਜਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
कीचड़ि डूबै मैलु न जाइ ॥१॥ रहाउ ॥
वह तो छोटे तालाब के कीचड़ में ही डूबता है परन्तु उसकी (विकारों की) मैल दूर नहीं होती ॥१॥ रहाउ ॥
ਰਖਿ ਰਖਿ ਚਰਨ ਧਰੇ ਵੀਚਾਰੀ ॥
रखि रखि चरन धरे वीचारी ॥
विचारवान पुरुष बड़े ध्यानपूर्वक अपने पैर धरती पर रखते हैं और
ਦੁਬਿਧਾ ਛੋਡਿ ਭਏ ਨਿਰੰਕਾਰੀ ॥
दुबिधा छोडि भए निरंकारी ॥
वे दुविधा को छोड़कर निरंकार के उपासक बन जाते है।
ਮੁਕਤਿ ਪਦਾਰਥੁ ਹਰਿ ਰਸ ਚਾਖੇ ॥
मुकति पदारथु हरि रस चाखे ॥
वे मुक्ति पदार्थ को प्राप्त कर लेते हैं और हरि रस चखते रहते हैं।
ਆਵਣ ਜਾਣ ਰਹੇ ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ॥੨॥
आवण जाण रहे गुरि राखे ॥२॥
गुरु ने उन्हें भवसागर में डूबने से बचा लिया है और उनके जन्म-मरण के चक्र मिट गए हैं।॥२॥
ਸਰਵਰ ਹੰਸਾ ਛੋਡਿ ਨ ਜਾਇ ॥
सरवर हंसा छोडि न जाइ ॥
हंस रूपी संत, सागर रूपी गुरु को छोड़कर कहीं नहीं जाता और
ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਕਰਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਇ ॥
प्रेम भगति करि सहजि समाइ ॥
वह प्रेम-भक्ति करके सहज अवस्था में ही लीन रहता है।
ਸਰਵਰ ਮਹਿ ਹੰਸੁ ਹੰਸ ਮਹਿ ਸਾਗਰੁ ॥
सरवर महि हंसु हंस महि सागरु ॥
हंस रूपी संत, सागर रूपी गुरु में और सागर रूपी गुरु, हंस रूपी संत में मिलकर एक रूप हो जाते हैं।
ਅਕਥ ਕਥਾ ਗੁਰ ਬਚਨੀ ਆਦਰੁ ॥੩॥
अकथ कथा गुर बचनी आदरु ॥३॥
यह एक अकथनीय कथा है कि संत गुरु की वाणी द्वारा प्रभु के दरबार में आदर-सत्कार प्राप्त करता है ॥३॥
ਸੁੰਨ ਮੰਡਲ ਇਕੁ ਜੋਗੀ ਬੈਸੇ ॥
सुंन मंडल इकु जोगी बैसे ॥
शून्य मण्डल में एक योगी अर्थात् प्रभु विराजमान है।
ਨਾਰਿ ਨ ਪੁਰਖੁ ਕਹਹੁ ਕੋਊ ਕੈਸੇ ॥
नारि न पुरखु कहहु कोऊ कैसे ॥
वह न तो स्त्री है और न ही वह पुरुष है।कोई कैसे कहे कि वह कैसा है ?
ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਜੋਤਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥
त्रिभवण जोति रहे लिव लाई ॥
धरती, आकाश एवं पाताल-इन तीनों भवनों के जीव उस ज्योति में ध्यान लगाकर रखते हैं।
ਸੁਰਿ ਨਰ ਨਾਥ ਸਚੇ ਸਰਣਾਈ ॥੪॥
सुरि नर नाथ सचे सरणाई ॥४॥
देवते, मनुष्य एवं नाथ परम-सत्य परमेश्वर की शरण में रहते हैं।॥ ४ ॥
ਆਨੰਦ ਮੂਲੁ ਅਨਾਥ ਅਧਾਰੀ ॥
आनंद मूलु अनाथ अधारी ॥
परमेश्वर आनंद का स्रोत है, अनाथों का सहारा है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਸਹਜਿ ਬੀਚਾਰੀ ॥
गुरमुखि भगति सहजि बीचारी ॥
गुरुमुख जन सहज अवस्था में उसकी भक्ति एवं सिमरन करते रहते हैं।
ਭਗਤਿ ਵਛਲ ਭੈ ਕਾਟਣਹਾਰੇ ॥
भगति वछल भै काटणहारे ॥
हे भय का नाश करने वाले प्रभु ! तू भक्तवत्सल है,
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਮਿਲੇ ਪਗੁ ਧਾਰੇ ॥੫॥
हउमै मारि मिले पगु धारे ॥५॥
तेरे चरण को अपने ह्रदय में बसा कर एवं अपने अहंत्व को मारकर ही तेरे भक्तजन तुझे मिले हैं।॥ ५॥
ਅਨਿਕ ਜਤਨ ਕਰਿ ਕਾਲੁ ਸੰਤਾਏ ॥
अनिक जतन करि कालु संताए ॥
मनुष्य अनेक यत्न करता है परन्तु मृत्यु उसे बहुत दुःख देती है।
ਮਰਣੁ ਲਿਖਾਇ ਮੰਡਲ ਮਹਿ ਆਏ ॥
मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥
सभी जीव अपने माथे पर मृत्यु का लेख लिखवा कर पृथ्वी में आए हैं