ਸਦਾ ਕਾਰਜੁ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਸੁਹੇਲਾ ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਕਾਰਜੁ ਕੇਹਾ ਹੇ ॥੭॥
सदा कारजु सचि नामि सुहेला बिनु सबदै कारजु केहा हे ॥७॥
सच्चे नाम का कार्य सदा आनंददायक है और शब्द के बिना कार्य कैसे साकार हो सकता है ॥७॥
ਖਿਨ ਮਹਿ ਹਸੈ ਖਿਨ ਮਹਿ ਰੋਵੈ ॥
खिन महि हसै खिन महि रोवै ॥
मनुष्य पल में ही हँसने लग पड़ता है और पल में ही रोने लगता है अर्थात् खुशी एवं गम महसूस करता है।
ਦੂਜੀ ਦੁਰਮਤਿ ਕਾਰਜੁ ਨ ਹੋਵੈ ॥
दूजी दुरमति कारजु न होवै ॥
द्वैतभाव-दुर्मति के कारण उसका कार्य सिद्ध नहीं होता।
ਸੰਜੋਗੁ ਵਿਜੋਗੁ ਕਰਤੈ ਲਿਖਿ ਪਾਏ ਕਿਰਤੁ ਨ ਚਲੈ ਚਲਾਹਾ ਹੇ ॥੮॥
संजोगु विजोगु करतै लिखि पाए किरतु न चलै चलाहा हे ॥८॥
संयोग एवं वियोग ईश्वर ने पूर्व से ही लिख दिया है और भाग्य बदलने से भी बदला नहीं जा सकता॥ ८॥
ਜੀਵਨ ਮੁਕਤਿ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਕਮਾਏ ॥
जीवन मुकति गुर सबदु कमाए ॥
जो शब्द-गुरु के अनुसार आचरण अपनाता है, उसे ही जीवन-मुक्ति प्राप्त होती है।
ਹਰਿ ਸਿਉ ਸਦ ਹੀ ਰਹੈ ਸਮਾਏ ॥
हरि सिउ सद ही रहै समाए ॥
ऐसा व्यक्ति सदैव ईश्वर में लीन रहता है।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਹਉਮੈ ਰੋਗੁ ਨ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੯॥
गुर किरपा ते मिलै वडिआई हउमै रोगु न ताहा हे ॥९॥
गुरु की कृपा से ही उसे लोक-परलोक में बड़ाई मिलती है और उसे अभिमान का रोग नहीं लगता॥९॥
ਰਸ ਕਸ ਖਾਏ ਪਿੰਡੁ ਵਧਾਏ ॥
रस कस खाए पिंडु वधाए ॥
जो व्यक्ति मीठे -नमकीन व्यंजन खाकर अपना शरीर बढ़ाता है,”
ਭੇਖ ਕਰੈ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਨ ਕਮਾਏ ॥
भेख करै गुर सबदु न कमाए ॥
वह अनेक आडम्बर करता है, परन्तु शब्द-गुरु के अनुसार आचरण नहीं करता।
ਅੰਤਰਿ ਰੋਗੁ ਮਹਾ ਦੁਖੁ ਭਾਰੀ ਬਿਸਟਾ ਮਾਹਿ ਸਮਾਹਾ ਹੇ ॥੧੦॥
अंतरि रोगु महा दुखु भारी बिसटा माहि समाहा हे ॥१०॥
उसके अन्तर्मन में रोग एवं महा दुख लग जाता है और अन्त में वह विष्ठा में ही गल-सड़ जाता है। १०॥
ਬੇਦ ਪੜਹਿ ਪੜਿ ਬਾਦੁ ਵਖਾਣਹਿ ॥
बेद पड़हि पड़ि बादु वखाणहि ॥
जो व्यक्ति वेदों का अध्ययन करता है और तदन्तर वाद-विवाद की बातें करता रहता है।
ਘਟ ਮਹਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਤਿਸੁ ਸਬਦਿ ਨ ਪਛਾਣਹਿ ॥
घट महि ब्रहमु तिसु सबदि न पछाणहि ॥
ब्रहा तो हृदय में ही है किन्तु वह शब्द द्वारा उसकी पहचान नहीं करता।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਤਤੁ ਬਿਲੋਵੈ ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੧੧॥
गुरमुखि होवै सु ततु बिलोवै रसना हरि रसु ताहा हे ॥११॥
जो गुरुमुख होता है वही परम-तत्व का मंथन करता है और उसकी रसना हरि-नाम रस का पान करती रहती है। ११॥
ਘਰਿ ਵਥੁ ਛੋਡਹਿ ਬਾਹਰਿ ਧਾਵਹਿ ॥
घरि वथु छोडहि बाहरि धावहि ॥
जो मनुष्य हृदय-घर में मौजूद नाम रूपी वस्तु को छोड़कर बाहर भटकता रहता है,”
ਮਨਮੁਖ ਅੰਧੇ ਸਾਦੁ ਨ ਪਾਵਹਿ ॥
मनमुख अंधे सादु न पावहि ॥
ऐसे अन्धे मनमुखी को नाम का स्वाद प्राप्त नहीं होता।
ਅਨ ਰਸ ਰਾਤੀ ਰਸਨਾ ਫੀਕੀ ਬੋਲੇ ਹਰਿ ਰਸੁ ਮੂਲਿ ਨ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੧੨॥
अन रस राती रसना फीकी बोले हरि रसु मूलि न ताहा हे ॥१२॥
उसकी रसना अन्य रसों में लीन होकर रुक्ष बोलती है और हरि-नाम रस का उसे बिल्कुल स्वाद नहीं मिलता॥ १२॥
ਮਨਮੁਖ ਦੇਹੀ ਭਰਮੁ ਭਤਾਰੋ ॥
मनमुख देही भरमु भतारो ॥
मनमुख जीवात्मा का स्वामी भ्रम है और
ਦੁਰਮਤਿ ਮਰੈ ਨਿਤ ਹੋਇ ਖੁਆਰੋ ॥
दुरमति मरै नित होइ खुआरो ॥
वह दुर्मति के कारण मरती एवं नित्य ही ख्वार होती है।
ਕਾਮਿ ਕ੍ਰੋਧਿ ਮਨੁ ਦੂਜੈ ਲਾਇਆ ਸੁਪਨੈ ਸੁਖੁ ਨ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੧੩॥
कामि क्रोधि मनु दूजै लाइआ सुपनै सुखु न ताहा हे ॥१३॥
वह अपना मन काम, क्रोध एवं द्वैतभाव में लगा लेती है, जिससे उसे सपने में भी सुख हासिल नहीं होता।॥ १३॥
ਕੰਚਨ ਦੇਹੀ ਸਬਦੁ ਭਤਾਰੋ ॥
कंचन देही सबदु भतारो ॥
जो जीवात्मा कंचन सरीखी है, उसका स्वामी शब्द है।
ਅਨਦਿਨੁ ਭੋਗ ਭੋਗੇ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪਿਆਰੋ ॥
अनदिनु भोग भोगे हरि सिउ पिआरो ॥
वह प्रभु के प्रेम में लीन होकर नित्य भोग भोगती है।
ਮਹਲਾ ਅੰਦਰਿ ਗੈਰ ਮਹਲੁ ਪਾਏ ਭਾਣਾ ਬੁਝਿ ਸਮਾਹਾ ਹੇ ॥੧੪॥
महला अंदरि गैर महलु पाए भाणा बुझि समाहा हे ॥१४॥
यदि कोई अन्य जीव के शरीर रूपी महल में प्रभु का दसम द्वार प्राप्त कर ले तो वह ईश्वरेच्छा को समझ कर उस में ही लीन हो जाती है॥ १४॥
ਆਪੇ ਦੇਵੈ ਦੇਵਣਹਾਰਾ ॥
आपे देवै देवणहारा ॥
वह दातार स्वयं ही देता रहता है और
ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਨਹੀ ਕਿਸੈ ਕਾ ਚਾਰਾ ॥
तिसु आगै नही किसै का चारा ॥
उसके आगे किसी का कोई उपाय नहीं चल सकता।
ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਏ ਤਿਸ ਦਾ ਸਬਦੁ ਅਥਾਹਾ ਹੇ ॥੧੫॥
आपे बखसे सबदि मिलाए तिस दा सबदु अथाहा हे ॥१५॥
वह स्वयं ही क्षमा करके जीव को शब्द द्वारा मिला लेता है और उसका शब्द अटल है॥ १५॥
ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭੁ ਹੈ ਤਿਸੁ ਕੇਰਾ ॥
जीउ पिंडु सभु है तिसु केरा ॥
यह प्राण एवं शरीर सब उसका ही दिया हुआ है और
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਠਾਕੁਰੁ ਮੇਰਾ ॥
सचा साहिबु ठाकुरु मेरा ॥
वह सच्चा साहिब ही मेरा मालिक है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਬਾਣੀ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਹਰਿ ਜਪੁ ਜਾਪਿ ਸਮਾਹਾ ਹੇ ॥੧੬॥੫॥੧੪॥
नानक गुरबाणी हरि पाइआ हरि जपु जापि समाहा हे ॥१६॥५॥१४॥
हे नानक ! गुरु की वाणी द्वारा मैंने परमेश्वर को पा लिया है और उसका जाप कर उसमें ही लीन हूँ॥१६॥५॥१४॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੩ ॥
मारू महला ३ ॥
मारू महला ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਦ ਬੇਦ ਬੀਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥
गुरुमुख का शब्द वेदों का ज्ञान एवं चिन्तन है,”
ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਆਪਾਰੁ ॥
गुरमुखि गिआनु धिआनु आपारु ॥
गुरुमुख को ही अपार ज्ञान एवं ध्यान की लब्धि होती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਾਰ ਕਰੇ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪੂਰਾ ਪਾਇਦਾ ॥੧॥
गुरमुखि कार करे प्रभ भावै गुरमुखि पूरा पाइदा ॥१॥
जो वह कार्य करता है वही प्रभु को अच्छा लगता है और गुरुमुख ही पूर्ण परमेश्वर को पाता है॥ १॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਨੂਆ ਉਲਟਿ ਪਰਾਵੈ ॥
गुरमुखि मनूआ उलटि परावै ॥
गुरु-मुख संसार की वृतियों से मन को बदल देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਾਣੀ ਨਾਦੁ ਵਜਾਵੈ ॥
गुरमुखि बाणी नादु वजावै ॥
गुरुमुख वाणी का नाद बजाता रहता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚਿ ਰਤੇ ਬੈਰਾਗੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਪਾਇਦਾ ॥੨॥
गुरमुखि सचि रते बैरागी निज घरि वासा पाइदा ॥२॥
सत्य में लीन रहकर वैरागी होकर सच्चे घर में वास प्राप्त कर लेता है॥ २॥
ਗੁਰ ਕੀ ਸਾਖੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਭਾਖੀ ॥
गुर की साखी अम्रित भाखी ॥
गुरु की शिक्षा अमृत वाणी है और
ਸਚੈ ਸਬਦੇ ਸਚੁ ਸੁਭਾਖੀ ॥
सचै सबदे सचु सुभाखी ॥
सच्चे शब्द द्वारा सत्य का ही उच्चारण किया है।
ਸਦਾ ਸਚਿ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਮਨੁ ਮੇਰਾ ਸਚੇ ਸਚਿ ਸਮਾਇਦਾ ॥੩॥
सदा सचि रंगि राता मनु मेरा सचे सचि समाइदा ॥३॥
सदा सत्य के रंग में लीन मेरा मन परम-सत्य में ही समा जाता है॥ ३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਸਤ ਸਰਿ ਨਾਵੈ ॥
गुरमुखि मनु निरमलु सत सरि नावै ॥
गुरुमुख का निर्मल मन सत्य के सरोवर में स्नान करता है,”
ਮੈਲੁ ਨ ਲਾਗੈ ਸਚਿ ਸਮਾਵੈ ॥
मैलु न लागै सचि समावै ॥
उसे कोई मैल नहीं लगती और वह सत्य में ही समा जाता है।
ਸਚੋ ਸਚੁ ਕਮਾਵੈ ਸਦ ਹੀ ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਦ੍ਰਿੜਾਇਦਾ ॥੪॥
सचो सचु कमावै सद ही सची भगति द्रिड़ाइदा ॥४॥
वह सदैव सत्य कर्म करता है और सच्ची भक्ति ही मन में बसाता है॥ ४॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਬੈਣੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਨੈਣੀ ॥
गुरमुखि सचु बैणी गुरमुखि सचु नैणी ॥
गुरु-मुख सत्य ही बताता है और ऑखों से सत्य ही देखता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਕਮਾਵੈ ਕਰਣੀ ॥
गुरमुखि सचु कमावै करणी ॥
वह सत्य का ही जीवन-आचरण अपनाता है।
ਸਦ ਹੀ ਸਚੁ ਕਹੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਅਵਰਾ ਸਚੁ ਕਹਾਇਦਾ ॥੫॥
सद ही सचु कहै दिनु राती अवरा सचु कहाइदा ॥५॥
वह सदैव सत्य बोलता है और अन्यों को सत्य बोलने के लिए प्रेरित करता है॥ ५॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੀ ਊਤਮ ਬਾਣੀ ॥
गुरमुखि सची ऊतम बाणी ॥
वह सच्ची एवं उत्तम वाणी पढ़ता, बोलता एवं गाता रहता है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੋ ਸਚੁ ਵਖਾਣੀ ॥
गुरमुखि सचो सचु वखाणी ॥
परम सत्य का ही बखान करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦ ਸੇਵਹਿ ਸਚੋ ਸਚਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦੁ ਸੁਣਾਇਦਾ ॥੬॥
गुरमुखि सद सेवहि सचो सचा गुरमुखि सबदु सुणाइदा ॥६॥
वह सदैव परम-सत्य की अर्चना करता है और दूसरों को भी शब्द सुनाता रहता है॥६॥