ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੀ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਇਆ ॥
सतिगुरु सेवी सबदि सुहाइआ ॥
जो सतिगुरु की सेवा करता है, गुरु की वाणी से शोभा पा रहा है।
ਜਿਨਿ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇਆ ॥
जिनि हरि का नामु मंनि वसाइआ ॥
जिस व्यक्ति ने भगवान का नाम अपने मन में बसा लिया है,
ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਗਵਾਏ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਵਣਿਆ ॥੨॥
हरि निरमलु हउमै मैलु गवाए दरि सचै सोभा पावणिआ ॥२॥
निर्मल भगवान उसके मन की अहंकार रूपी मैल को दूर कर देता है और वह व्यक्ति सत्य के दरबार में शोभा प्राप्त करता है।॥२॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਨਾਮੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
बिनु गुर नामु न पाइआ जाइ ॥
गुरु के बिना नाम की प्राप्ति नहीं होती।
ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਰਹੇ ਬਿਲਲਾਇ ॥
सिध साधिक रहे बिललाइ ॥
सिद्ध-साधक इससे विहीन होकर विलाप करते हैं।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਸੇਵੇ ਸੁਖੁ ਨ ਹੋਵੀ ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਗੁਰੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੩॥
बिनु गुर सेवे सुखु न होवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥३॥
गुरु की सेवा के बिना सुख नहीं मिलता लेकिन बड़े सौभाग्य से सुकर्मो द्वारा गुरु जी मिलते हैं।॥३॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਆਰਸੀ ਕੋਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੇਖੈ ॥
इहु मनु आरसी कोई गुरमुखि वेखै ॥
यह मन एक दर्पण है। कोई विरला गुरमुख ही उसमें अपने-आपको देखता है।
ਮੋਰਚਾ ਨ ਲਾਗੈ ਜਾ ਹਉਮੈ ਸੋਖੈ ॥
मोरचा न लागै जा हउमै सोखै ॥
यदि मनुष्य अपना अहंकार जला दे तो उसे अहंकार रूपी जंगाल नहीं लगता।
ਅਨਹਤ ਬਾਣੀ ਨਿਰਮਲ ਸਬਦੁ ਵਜਾਏ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸਚਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੪॥
अनहत बाणी निरमल सबदु वजाए गुर सबदी सचि समावणिआ ॥४॥
जिस गुरमुख के मन में अनहद ध्वनि वाला निर्मल अनहद बजने लग जाता है, वह गुरु के शब्द द्वारा सत्य (परमेश्वर) में समा जाता है॥४॥
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕਿਹੁ ਨ ਦੇਖਿਆ ਜਾਇ ॥
बिनु सतिगुर किहु न देखिआ जाइ ॥
सतिगुरु के बिना परमेश्वर किसी तरह भी देखा नहीं जा सकता।
ਗੁਰਿ ਕਿਰਪਾ ਕਰਿ ਆਪੁ ਦਿਤਾ ਦਿਖਾਇ ॥
गुरि किरपा करि आपु दिता दिखाइ ॥
अपनी दया करके गुरदेव ने स्वयं ही मुझे ईश्वर के दर्शन करवा दिए हैं।
ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪਿ ਮਿਲਿ ਰਹਿਆ ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੫॥
आपे आपि आपि मिलि रहिआ सहजे सहजि समावणिआ ॥५॥
ईश्वर अपने आप स्वयं ही सर्वव्यापक हो रहा है। ब्रह्म-ज्ञान द्वारा मनुष्य सहज ही उसमें लीन हो जाता है॥५॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਇਕਸੁ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
गुरमुखि होवै सु इकसु सिउ लिव लाए ॥
जो व्यक्ति गुरमुख बन जाता है, वह एक ईश्वर के साथ स्नेह करता है।
ਦੂਜਾ ਭਰਮੁ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਜਲਾਏ ॥
दूजा भरमु गुर सबदि जलाए ॥
गुरु के शब्द द्वारा वह मोह माया रूपी भ्रम को जला फेंकता है।
ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਵਣਜੁ ਕਰੇ ਵਾਪਾਰਾ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਸਚੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੬॥
काइआ अंदरि वणजु करे वापारा नामु निधानु सचु पावणिआ ॥६॥
अपनी देहि में ही वह नाम रूपी वस्तु का व्यापार करता है और सत्यनाम की निधि पा लेता है॥६॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰਣੀ ਹਰਿ ਕੀਰਤਿ ਸਾਰੁ ॥
गुरमुखि करणी हरि कीरति सारु ॥
भगवान की महिमा-स्तुति करना ही गुरमुख की श्रेष्ठ करनी है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਏ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥
इसलिए गुरमुख मोक्ष द्वार को पा लेता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਰੰਗਿ ਰਤਾ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਅੰਦਰਿ ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਵਣਿਆ ॥੭॥
अनदिनु रंगि रता गुण गावै अंदरि महलि बुलावणिआ ॥७॥
प्रभु के स्नेह में रंगा हुआ वह रात-दिन उसकी कीर्ति का गायन करता रहता है और प्रभु उसे अपने आत्म-स्वरूप में आमंत्रित कर लेता है॥७॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਮਿਲੈ ਮਿਲਾਇਆ ॥
सतिगुरु दाता मिलै मिलाइआ ॥
सतिगुरु नाम का दाता है और सतिगुरु भगवान का मिलाया हुआ ही जीव को मिलता है।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਮਨਿ ਸਬਦੁ ਵਸਾਇਆ ॥
पूरै भागि मनि सबदु वसाइआ ॥
जिस व्यक्ति के पूर्ण भाग्य होते हैं, सतिगुरु उसके मन में नाम बसा देते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਹਰਿ ਸਚੇ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੮॥੯॥੧੦॥
नानक नामु मिलै वडिआई हरि सचे के गुण गावणिआ ॥८॥९॥१०॥
हे नानक ! यदि सत्यस्वरूप परमात्मा की महिमा-स्तुति की जाए तो ही मनुष्य को नाम की शोभा प्राप्त होती है ॥८॥९॥१०॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ महला ३ ॥
माझ महला ३ ॥
ਆਪੁ ਵੰਞਾਏ ਤਾ ਸਭ ਕਿਛੁ ਪਾਏ ॥
आपु वंञाए ता सभ किछु पाए ॥
यदि मनुष्य अपने अहंत्व को त्याग दे तो वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸਚੀ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
गुर सबदी सची लिव लाए ॥
गुरु के शब्द द्वारा वह सत्य परमेश्वर में सुरति लगाता है।
ਸਚੁ ਵਣੰਜਹਿ ਸਚੁ ਸੰਘਰਹਿ ਸਚੁ ਵਾਪਾਰੁ ਕਰਾਵਣਿਆ ॥੧॥
सचु वणंजहि सचु संघरहि सचु वापारु करावणिआ ॥१॥
वह सत्य-नाम का व्यापार करता है और सत्य नाम रूपी धन ही एकत्रित करता है और सत्य नाम का ही वह दूसरों से व्यापार करवाता है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਹਰਿ ਗੁਣ ਅਨਦਿਨੁ ਗਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी हरि गुण अनदिनु गावणिआ ॥
मैं तन-मन से उन पर बलिहारी जाता हूँ, जो सदैव ही ईश्वर का यशोगान करते हैं।
ਹਉ ਤੇਰਾ ਤੂੰ ਠਾਕੁਰੁ ਮੇਰਾ ਸਬਦਿ ਵਡਿਆਈ ਦੇਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हउ तेरा तूं ठाकुरु मेरा सबदि वडिआई देवणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
हे प्रभु ! मैं तेरा सेवक हूँ, तुम मेरे ठाकुर हो। तुम मुझे नाम की शोभा प्रदान करते हो॥१॥ रहाउ॥
ਵੇਲਾ ਵਖਤ ਸਭਿ ਸੁਹਾਇਆ ॥
वेला वखत सभि सुहाइआ ॥
वह समय एवं क्षण सभी सुन्दर हैं,
ਜਿਤੁ ਸਚਾ ਮੇਰੇ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥
जितु सचा मेरे मनि भाइआ ॥
जब सत्यस्वरूप परमात्मा मेरे चित्त को अच्छा लगता है।
ਸਚੇ ਸੇਵਿਐ ਸਚੁ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਸਚੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੨॥
सचे सेविऐ सचु वडिआई गुर किरपा ते सचु पावणिआ ॥२॥
सत्य प्रभु की सेवा-भक्ति द्वारा सच्ची महानता प्राप्त होती है किन्तु गुरु की दया से ही सत्यस्वरूप ईश्वर मिलता है।॥२॥
ਭਾਉ ਭੋਜਨੁ ਸਤਿਗੁਰਿ ਤੁਠੈ ਪਾਏ ॥
भाउ भोजनु सतिगुरि तुठै पाए ॥
प्रभु प्रीति का भोजन तभी मिलता है जब सतिगुरु जी परम प्रसन्न होते हैं।
ਅਨ ਰਸੁ ਚੂਕੈ ਹਰਿ ਰਸੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥
अन रसु चूकै हरि रसु मंनि वसाए ॥
मनुष्य अन्य रस भूल जाता है जब वह हरि रस को अपने मन में बसा लेता है।
ਸਚੁ ਸੰਤੋਖੁ ਸਹਜ ਸੁਖੁ ਬਾਣੀ ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਵਣਿਆ ॥੩॥
सचु संतोखु सहज सुखु बाणी पूरे गुर ते पावणिआ ॥३॥
प्राणी पूर्ण गुरु की वाणी से ही सत्य, संतोष एवं सहज सुख प्राप्त करता है॥३॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਨ ਸੇਵਹਿ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਗਵਾਰਾ ॥
सतिगुरु न सेवहि मूरख अंध गवारा ॥
मूर्ख, अंधे, गंवार मनुष्य सतिगुरु की सेवा नहीं करते।
ਫਿਰਿ ਓਇ ਕਿਥਹੁ ਪਾਇਨਿ ਮੋਖ ਦੁਆਰਾ ॥
फिरि ओइ किथहु पाइनि मोख दुआरा ॥
तब वह किस तरह मोक्ष-द्वार को प्राप्त होंगे?
ਮਰਿ ਮਰਿ ਜੰਮਹਿ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵਹਿ ਜਮ ਦਰਿ ਚੋਟਾ ਖਾਵਣਿਆ ॥੪॥
मरि मरि जमहि फिरि फिरि आवहि जम दरि चोटा खावणिआ ॥४॥
वह बार-बार मरते और जन्म लेते हैं और पुनःपुनः जीवन-मृत्यु के बंधन में फँसकर आवागमन करते हैं। मृत्यु के द्वार पर वह चोटें खाते हैं।॥४॥
ਸਬਦੈ ਸਾਦੁ ਜਾਣਹਿ ਤਾ ਆਪੁ ਪਛਾਣਹਿ ॥
सबदै सादु जाणहि ता आपु पछाणहि ॥
वह अपने स्वरूप की तभी पहचान कर सकते हैं, यदि वह शब्द के स्वाद को जानते हो
ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਸਬਦਿ ਵਖਾਣਹਿ ॥
निरमल बाणी सबदि वखाणहि ॥
और निर्मल वाणी द्वारा नाम-सिमरन करते हों।
ਸਚੇ ਸੇਵਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਨਿ ਨਉ ਨਿਧਿ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥੫॥
सचे सेवि सदा सुखु पाइनि नउ निधि नामु मंनि वसावणिआ ॥५॥
गुरमुख सत्य परमेश्वर की भक्ति द्वारा सदैव सुख प्राप्त करते हैं और अपने चित्त में ईश्वर के नाम की नवनिधि को बसाते हैं।॥५॥
ਸੋ ਥਾਨੁ ਸੁਹਾਇਆ ਜੋ ਹਰਿ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥
सो थानु सुहाइआ जो हरि मनि भाइआ ॥
वह स्थान अति सुन्दर है जो परमेश्वर के मन को लुभाता है।
ਸਤਸੰਗਤਿ ਬਹਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇਆ ॥
सतसंगति बहि हरि गुण गाइआ ॥
केवल वही सत्संग है, जिस में बैठकर मनुष्य हरि-प्रभु का यशोगान करता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਸਾਲਾਹਹਿ ਸਾਚਾ ਨਿਰਮਲ ਨਾਦੁ ਵਜਾਵਣਿਆ ॥੬॥
अनदिनु हरि सालाहहि साचा निरमल नादु वजावणिआ ॥६॥
गुरमुख प्रतिदिन भगवान की महिमा-स्तुति करते रहते हैं और उनके मन में निर्मल नाद अर्थात् अनहद शब्द बजने लग जाता है।॥६॥