ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਦਾ ਧਿਆਇ ਤੂ ਗੁਰਮੁਖਿ ਏਕੰਕਾਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि जीउ सदा धिआइ तू गुरमुखि एकंकारु ॥१॥ रहाउ ॥
तुम गुरुमुख होकर परमेश्वर हरि-प्रभु को स्मरण करो॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਰਮੁਖਾ ਕੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਬੀਚਾਰਿ ॥
गुरमुखा के मुख उजले गुर सबदी बीचारि ॥
जो गुरुमुख जीव गुरु उपदेश ग्रहण करके उस पर विचार करता है, वह लोक-परलोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है।
ਹਲਤਿ ਪਲਤਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਦੇ ਜਪਿ ਜਪਿ ਰਿਦੈ ਮੁਰਾਰਿ ॥
हलति पलति सुखु पाइदे जपि जपि रिदै मुरारि ॥
वह अपने हृदय में मुरारि के नाम को जपने से मृत्युलोक व परलोक में सुखों को प्राप्त करता है।
ਘਰ ਹੀ ਵਿਚਿ ਮਹਲੁ ਪਾਇਆ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥੨॥
घर ही विचि महलु पाइआ गुर सबदी वीचारि ॥२॥
गुरु के उपदेश का चिन्तन करने से वह गृह रूपी अंतःकरण में परमात्मा के स्वरूप को पा लेता है॥ २॥
ਸਤਗੁਰ ਤੇ ਜੋ ਮੁਹ ਫੇਰਹਿ ਮਥੇ ਤਿਨ ਕਾਲੇ ॥
सतगुर ते जो मुह फेरहि मथे तिन काले ॥
जो जीव सतिगुरु से परामुख होते हैं उनके मुख कलंकित होते हैं।
ਅਨਦਿਨੁ ਦੁਖ ਕਮਾਵਦੇ ਨਿਤ ਜੋਹੇ ਜਮ ਜਾਲੇ ॥
अनदिनु दुख कमावदे नित जोहे जम जाले ॥
वे प्रतिदिन कष्ट भोगते हैं और नित्य यमों के जाल में फँसते हैं।
ਸੁਪਨੈ ਸੁਖੁ ਨ ਦੇਖਨੀ ਬਹੁ ਚਿੰਤਾ ਪਰਜਾਲੇ ॥੩॥
सुपनै सुखु न देखनी बहु चिंता परजाले ॥३॥
उनको स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता तथा कई तरह की चिंताग्नि उन्हें पूर्णतया जला देती है॥ ३॥
ਸਭਨਾ ਕਾ ਦਾਤਾ ਏਕੁ ਹੈ ਆਪੇ ਬਖਸ ਕਰੇਇ ॥
सभना का दाता एकु है आपे बखस करेइ ॥
समस्त प्राणियों को देने वाला ईश्वर एक ही है और वह स्वयं ही अनुग्रह करता है।
ਕਹਣਾ ਕਿਛੂ ਨ ਜਾਵਈ ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਦੇਇ ॥
कहणा किछू न जावई जिसु भावै तिसु देइ ॥
उसके अनुग्रह के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिसे चाहे वह देता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਈਐ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਸੋਇ ॥੪॥੯॥੪੨॥
नानक गुरमुखि पाईऐ आपे जाणै सोइ ॥४॥९॥४२॥
नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु की शरण में जाकर जो प्रभु को पाने का उद्यम करता है, वही उसके आनंद को जान सकता है॥ ४॥ ६॥ ४२॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸੇਵੀਐ ਸਚੁ ਵਡਿਆਈ ਦੇਇ ॥
सचा साहिबु सेवीऐ सचु वडिआई देइ ॥
सत्य परमात्मा की सेवा-उपासना की जाए तो वह सत्य स्वरूप रूपी सम्मान प्रदान करता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਦੂਰਿ ਕਰੇਇ ॥
गुर परसादी मनि वसै हउमै दूरि करेइ ॥
गुरु की कृपा द्वारा वह हृदय में वास करता है और अहंकार को दूर करता है।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਧਾਵਤੁ ਤਾ ਰਹੈ ਜਾ ਆਪੇ ਨਦਰਿ ਕਰੇਇ ॥੧॥
इहु मनु धावतु ता रहै जा आपे नदरि करेइ ॥१॥
यह मन भटकने से तभी बच सकता है, जब वह परमेश्वर स्वयं कृपा-दृष्टि करता है॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥
भाई रे गुरमुखि हरि नामु धिआइ ॥
हे भाई ! गुरु के उपदेश द्वारा हरि-प्रभु के नाम का सिमरन करो।
ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਸਦ ਮਨਿ ਵਸੈ ਮਹਲੀ ਪਾਵੈ ਥਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
नामु निधानु सद मनि वसै महली पावै थाउ ॥१॥ रहाउ ॥
यदि नाम-भण्डार सदा के लिए मन में स्थिर हो जाए तो जीव उस प्रभु के स्वरूप में स्थान प्राप्त कर लेता है ॥१॥ रहाउ ॥
ਮਨਮੁਖ ਮਨੁ ਤਨੁ ਅੰਧੁ ਹੈ ਤਿਸ ਨਉ ਠਉਰ ਨ ਠਾਉ ॥
मनमुख मनु तनु अंधु है तिस नउ ठउर न ठाउ ॥
स्वेच्छाचारी जीव का हृदय व शरीर अविद्या के कारण अन्धा हो रहा है, इसलिए उसे ठहरने के लिए कोई आश्रय नहीं होता।
ਬਹੁ ਜੋਨੀ ਭਉਦਾ ਫਿਰੈ ਜਿਉ ਸੁੰਞੈਂ ਘਰਿ ਕਾਉ ॥
बहु जोनी भउदा फिरै जिउ सुंञैं घरि काउ ॥
वह अनेकानेक योनियों में भटकता फिरता है, जैसे सूने घर में कौवा रहता हो।
ਗੁਰਮਤੀ ਘਟਿ ਚਾਨਣਾ ਸਬਦਿ ਮਿਲੈ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥੨॥
गुरमती घटि चानणा सबदि मिलै हरि नाउ ॥२॥
गुरु की शिक्षा द्वारा हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है और वाणी द्वारा परमेश्वर का नाम प्राप्त होता है।॥ २॥
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਬਿਖਿਆ ਅੰਧੁ ਹੈ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਗੁਬਾਰ ॥
त्रै गुण बिखिआ अंधु है माइआ मोह गुबार ॥
संसार में त्रिगुणी (सत्त्व, रज, तम) विषय-विकारों का अंधेरा छाया हुआ है और माया के मोह की धूलि चढ़ी हुई है।
ਲੋਭੀ ਅਨ ਕਉ ਸੇਵਦੇ ਪੜਿ ਵੇਦਾ ਕਰੈ ਪੂਕਾਰ ॥
लोभी अन कउ सेवदे पड़ि वेदा करै पूकार ॥
लोभी जीव वेद आदि धर्म ग्रंथों को पढ़-पढ़ कर परमेश्वर को पुकारते तो हैं, लेकिन द्वैत-भाव के कारण वह एकेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को स्मरण करते हैं।
ਬਿਖਿਆ ਅੰਦਰਿ ਪਚਿ ਮੁਏ ਨਾ ਉਰਵਾਰੁ ਨ ਪਾਰੁ ॥੩॥
बिखिआ अंदरि पचि मुए ना उरवारु न पारु ॥३॥
विषय-विकारों की अग्नि में जल कर वे मर गए तथा वह न इस संसार के सुख भोग सके और न ही परलोक में स्थान पा सके॥ ३॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਵਿਸਾਰਿਆ ਜਗਤ ਪਿਤਾ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲਿ ॥
माइआ मोहि विसारिआ जगत पिता प्रतिपालि ॥
उन्होंने माया-मोह में लिप्त होकर उस प्रतिपालक परमात्मा को विस्मृत कर दिया है।
ਬਾਝਹੁ ਗੁਰੂ ਅਚੇਤੁ ਹੈ ਸਭ ਬਧੀ ਜਮਕਾਲਿ ॥
बाझहु गुरू अचेतु है सभ बधी जमकालि ॥
सम्पूर्ण सृष्टि गुरु के बिना चेतना रहित है और वह यमों के जाल में फँसी हुई है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮਤਿ ਉਬਰੇ ਸਚਾ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥੪॥੧੦॥੪੩॥
नानक गुरमति उबरे सचा नामु समालि ॥४॥१०॥४३॥
नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु के उपदेशानुसार सत्य-नाम का सिमरन करके ही जीव यमों के बंधन से बच सकते हैं। ४॥ १० ॥ ४३ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਚਉਥਾ ਪਦੁ ਪਾਇ ॥
त्रै गुण माइआ मोहु है गुरमुखि चउथा पदु पाइ ॥
गुरुमुख जीवों ने त्रिगुणी माया का मोह त्याग कर तुरीयावस्था (चौथा पद) को प्राप्त किया है।
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਮੇਲਾਇਅਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥
करि किरपा मेलाइअनु हरि नामु वसिआ मनि आइ ॥
उसके हृदय में ही उस हरि-प्रभु का नाम बसा है।
ਪੋਤੈ ਜਿਨ ਕੈ ਪੁੰਨੁ ਹੈ ਤਿਨ ਸਤਸੰਗਤਿ ਮੇਲਾਇ ॥੧॥
पोतै जिन कै पुंनु है तिन सतसंगति मेलाइ ॥१॥
जिनके भाग्य रूपी खज़ाने में पुण्य जमा है, प्रभु उनको सत्संगति में मिलाता है॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਚਿ ਰਹਾਉ ॥
भाई रे गुरमति साचि रहाउ ॥
हे माई ! गुरु की शिक्षा द्वारा सत्य में निवास करो।
ਸਾਚੋ ਸਾਚੁ ਕਮਾਵਣਾ ਸਾਚੈ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साचो साचु कमावणा साचै सबदि मिलाउ ॥१॥ रहाउ ॥
केवल सत्य की साधना करो, जिससे उस सत्य स्वरूप से मिलन संभव हो सके ॥ १॥ रहाउ ॥
ਜਿਨੀ ਨਾਮੁ ਪਛਾਣਿਆ ਤਿਨ ਵਿਟਹੁ ਬਲਿ ਜਾਉ ॥
जिनी नामु पछाणिआ तिन विटहु बलि जाउ ॥
जिन्होंने पारब्रह्म परमेश्वर के नाम को पहचाना है, उन पर मैं बलिहारी जाता हूँ।
ਆਪੁ ਛੋਡਿ ਚਰਣੀ ਲਗਾ ਚਲਾ ਤਿਨ ਕੈ ਭਾਇ ॥
आपु छोडि चरणी लगा चला तिन कै भाइ ॥
अहंत्व का त्याग करके उनके चरणों में पड़ जाऊँ और उनकी इच्छानुसार चलू।
ਲਾਹਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮਿਲੈ ਸਹਜੇ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੨॥
लाहा हरि हरि नामु मिलै सहजे नामि समाइ ॥२॥
क्योंकि उनकी संगति में रह कर नाम-सिमरन का लाभ मिलता है, तथा सहज ही नाम की प्राप्ति हो जाती है॥ २॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਈਐ ਨਾਮੁ ਨ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
बिनु गुर महलु न पाईऐ नामु न परापति होइ ॥
किन्तु गुरु के बिना नाम की प्राप्ति नहीं हो सकती और नाम के बिना सत्य स्वरूप को नहीं पाया जा सकता।
ਐਸਾ ਸਤਗੁਰੁ ਲੋੜਿ ਲਹੁ ਜਿਦੂ ਪਾਈਐ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥
ऐसा सतगुरु लोड़ि लहु जिदू पाईऐ सचु सोइ ॥
फिर कोई ऐसा सत्य गुरु ढूंढ लो, जिसके द्वारा वह सत्य परमात्मा प्राप्त किया जाए।
ਅਸੁਰ ਸੰਘਾਰੈ ਸੁਖਿ ਵਸੈ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੁ ਹੋਇ ॥੩॥
असुर संघारै सुखि वसै जो तिसु भावै सु होइ ॥३॥
जो जीव गुरु के मार्गदर्शन में सत्य परमात्मा को पा लेता है उसके काम, क्रोध, लोभ रूपी दैत्यों का संहार हो
ਜੇਹਾ ਸਤਗੁਰੁ ਕਰਿ ਜਾਣਿਆ ਤੇਹੋ ਜੇਹਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
जेहा सतगुरु करि जाणिआ तेहो जेहा सुखु होइ ॥
जैसी सतिगुरु में श्रद्धा होगी, वैसा सुख-फल जीव को प्राप्त होगा।
ਏਹੁ ਸਹਸਾ ਮੂਲੇ ਨਾਹੀ ਭਾਉ ਲਾਏ ਜਨੁ ਕੋਇ ॥
एहु सहसा मूले नाही भाउ लाए जनु कोइ ॥
इस तथ्य में बिल्कुल भी संदेह नहीं है, निस्संकोच कोई भी जीव सतिगुरु से प्रेम करके देख ले।
ਨਾਨਕ ਏਕ ਜੋਤਿ ਦੁਇ ਮੂਰਤੀ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥੪॥੧੧॥੪੪॥
नानक एक जोति दुइ मूरती सबदि मिलावा होइ ॥४॥११॥४४॥
नानक देव जी कथन करते हैं कि अकाल पुरुष एवं गुरु बेशक दो रूप दिखाई देते हैं, परंतु इन दोनों में ज्योति एक ही है, गुरु के उपदेश द्वारा ही अकाल-पुरुष से मिलन संभव है॥ ४॥ ११॥ ४४॥