Hindi Page 511

ਕਾਇਆ ਮਿਟੀ ਅੰਧੁ ਹੈ ਪਉਣੈ ਪੁਛਹੁ ਜਾਇ ॥
काइआ मिटी अंधु है पउणै पुछहु जाइ ॥
यह शरीर तो मिट्टी है, अन्धा अर्थात् ज्ञानहीन है।

ਹਉ ਤਾ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿਆ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵਾ ਜਾਇ ॥
हउ ता माइआ मोहिआ फिरि फिरि आवा जाइ ॥
यदि जीवात्मा से पूछा जाए तो जीवात्मा कहती है कि मुझे तो मोह-माया ने आकर्षित किया हुआ है, इसलिए मैं बार-बार संसार में आती-जाती रहती हूँ।

ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੁ ਨ ਜਾਤੋ ਖਸਮ ਕਾ ਜਿ ਰਹਾ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥
नानक हुकमु न जातो खसम का जि रहा सचि समाइ ॥१॥
हे नानक ! जीवात्मा संबोधन करती है कि मैं अपने पति-प्रभु के हुक्म को नहीं जानती, जिससे मैं सत्य में समा जाती ॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਏਕੋ ਨਿਹਚਲ ਨਾਮ ਧਨੁ ਹੋਰੁ ਧਨੁ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
एको निहचल नाम धनु होरु धनु आवै जाइ ॥
एक ईश्वर का नाम-धन ही शाश्वत है, अन्य सांसारिक धन तो आता-जाता रहता है।

ਇਸੁ ਧਨ ਕਉ ਤਸਕਰੁ ਜੋਹਿ ਨ ਸਕਈ ਨਾ ਓਚਕਾ ਲੈ ਜਾਇ ॥
इसु धन कउ तसकरु जोहि न सकई ना ओचका लै जाइ ॥
इस नाम-धन पर चोर कुदृष्टि नहीं रख सकता और न ही कोई उचक्का ले जा सकता है।

ਇਹੁ ਹਰਿ ਧਨੁ ਜੀਐ ਸੇਤੀ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਜੀਐ ਨਾਲੇ ਜਾਇ ॥
इहु हरि धनु जीऐ सेती रवि रहिआ जीऐ नाले जाइ ॥
हरि का नाम रूपी यह धन आत्मा के साथ ही बसता है और आत्मा के साथ ही परलोक में जाता है।

ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਈਐ ਮਨਮੁਖਿ ਪਲੈ ਨ ਪਾਇ ॥
पूरे गुर ते पाईऐ मनमुखि पलै न पाइ ॥
लेकिन यह अमूल्य नाम धन पूर्ण गुरु से ही प्राप्त होता है तथा स्वेच्छाचारी लोगों को यह धन प्राप्त नहीं होता।

ਧਨੁ ਵਾਪਾਰੀ ਨਾਨਕਾ ਜਿਨੑਾ ਨਾਮ ਧਨੁ ਖਟਿਆ ਆਇ ॥੨॥
धनु वापारी नानका जिन्हा नाम धनु खटिआ आइ ॥२॥
हे नानक ! वे व्यापारी धन्य हैं, जिन्होंने संसार में आकर हरि के नाम-धन को अर्जित किया है।॥ २ ॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥

ਮੇਰਾ ਸਾਹਿਬੁ ਅਤਿ ਵਡਾ ਸਚੁ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰਾ ॥
मेरा साहिबु अति वडा सचु गहिर ग्मभीरा ॥
मेरा परमेश्वर बड़ा महान् है, वह सदैव सत्य एवं गहन-गंभीर है।

ਸਭੁ ਜਗੁ ਤਿਸ ਕੈ ਵਸਿ ਹੈ ਸਭੁ ਤਿਸ ਕਾ ਚੀਰਾ ॥
सभु जगु तिस कै वसि है सभु तिस का चीरा ॥
समूचा जगत उसके वश में है और सारी शक्ति उसी की है।

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਾਈਐ ਨਿਹਚਲੁ ਧਨੁ ਧੀਰਾ ॥
गुर परसादी पाईऐ निहचलु धनु धीरा ॥
गुरु की कृपा से ही सदैव अटल एवं धैर्यवान हरि का नाम-धन प्राप्त होता है।

ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸੈ ਭੇਟੈ ਗੁਰੁ ਸੂਰਾ ॥
किरपा ते हरि मनि वसै भेटै गुरु सूरा ॥
यदि शूरवीर गुरु से भेंट हो जाए तो उसकी कृपा से हरि प्राणी के मन में निवास कर जाता है।

ਗੁਣਵੰਤੀ ਸਾਲਾਹਿਆ ਸਦਾ ਥਿਰੁ ਨਿਹਚਲੁ ਹਰਿ ਪੂਰਾ ॥੭॥
गुणवंती सालाहिआ सदा थिरु निहचलु हरि पूरा ॥७॥
गुणवान लोग ही सदा अटल एवं पूर्ण हरि की सराहना करते हैं।॥ ७ ॥

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥

ਧ੍ਰਿਗੁ ਤਿਨੑਾ ਦਾ ਜੀਵਿਆ ਜੋ ਹਰਿ ਸੁਖੁ ਪਰਹਰਿ ਤਿਆਗਦੇ ਦੁਖੁ ਹਉਮੈ ਪਾਪ ਕਮਾਇ ॥
ध्रिगु तिन्हा दा जीविआ जो हरि सुखु परहरि तिआगदे दुखु हउमै पाप कमाइ ॥
उन मनुष्यों के जीवन को धिक्कार है, जो हरि-नाम स्मरण के सुख को त्याग देते हैं और अभिमान में पाप करके दुःख भोगते हैं।

ਮਨਮੁਖ ਅਗਿਆਨੀ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਵਿਆਪੇ ਤਿਨੑ ਬੂਝ ਨ ਕਾਈ ਪਾਇ ॥
मनमुख अगिआनी माइआ मोहि विआपे तिन्ह बूझ न काई पाइ ॥
अज्ञानी-मनमुख माया के मोह में फँसे रहतें हैं और उन्हें कोई सूझ नहीं आती।

ਹਲਤਿ ਪਲਤਿ ਓਇ ਸੁਖੁ ਨ ਪਾਵਹਿ ਅੰਤਿ ਗਏ ਪਛੁਤਾਇ ॥
हलति पलति ओइ सुखु न पावहि अंति गए पछुताइ ॥
इस लोक एवं परलोक में उन्हें सुख उपलब्ध नहीं होता और अंततः पछताते हुए चले जाते हैं।

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਕੋ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ਤਿਸੁ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
गुर परसादी को नामु धिआए तिसु हउमै विचहु जाइ ॥
गुरु की कृपा से कोई विरला व्यक्ति ही नाम की आराधना करता है और उसके अन्तर्मन से अहंत्व दूर हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਪੂਰਬਿ ਹੋਵੈ ਲਿਖਿਆ ਸੋ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਆਇ ਪਾਇ ॥੧॥
नानक जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो गुर चरणी आइ पाइ ॥१॥
हे नानक ! जिसके भाग्य में शुरु से लिखा होता है, वह गुरु के चरणों में आ जाता है॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਮਨਮੁਖੁ ਊਧਾ ਕਉਲੁ ਹੈ ਨਾ ਤਿਸੁ ਭਗਤਿ ਨ ਨਾਉ ॥
मनमुखु ऊधा कउलु है ना तिसु भगति न नाउ ॥
मनमुख इन्सान उलटा पड़ा हुआ कमल है, उसके पास न ही भक्ति है और न ही प्रभु का नाम है।

ਸਕਤੀ ਅੰਦਰਿ ਵਰਤਦਾ ਕੂੜੁ ਤਿਸ ਕਾ ਹੈ ਉਪਾਉ ॥
सकती अंदरि वरतदा कूड़ु तिस का है उपाउ ॥
यह माया में ही क्रियाशील रहता है और झूठ ही उसका जीवन-मनोरथ होता है।

ਤਿਸ ਕਾ ਅੰਦਰੁ ਚਿਤੁ ਨ ਭਿਜਈ ਮੁਖਿ ਫੀਕਾ ਆਲਾਉ ॥
तिस का अंदरु चितु न भिजई मुखि फीका आलाउ ॥
उस मनमुख का अन्तर्मन भी स्नेह से नहीं भीगता, उसके मुँह से निकले वचन भी फीके (निरर्थक) ही होते हैं।

ਓਇ ਧਰਮਿ ਰਲਾਏ ਨਾ ਰਲਨੑਿ ਓਨਾ ਅੰਦਰਿ ਕੂੜੁ ਸੁਆਉ ॥
ओइ धरमि रलाए ना रलन्हि ओना अंदरि कूड़ु सुआउ ॥
ऐसे लोग धर्म में मिलाने पर भी धर्म से दूर रहते हैं और उनके भीतर झूठ एवं मक्कारी विद्यमान होती है।

ਨਾਨਕ ਕਰਤੈ ਬਣਤ ਬਣਾਈ ਮਨਮੁਖ ਕੂੜੁ ਬੋਲਿ ਬੋਲਿ ਡੁਬੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਤਰੇ ਜਪਿ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥੨॥
नानक करतै बणत बणाई मनमुख कूड़ु बोलि बोलि डुबे गुरमुखि तरे जपि हरि नाउ ॥२॥
हे नानक ! विश्व रचयिता प्रभु ने ऐसी रचना रची है कि मनमुख झूठ बोल-बोलकर डूब गए हैं और गुरुमुख हरिनाम का जाप करके संसार-सागर से पार हो गए है ॥ २॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।

ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਵਡਾ ਫੇਰੁ ਪਇਆ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਈ ॥
बिनु बूझे वडा फेरु पइआ फिरि आवै जाई ॥
सत्य को समझे बिना आवागमन का लम्बा चक्र लगाना पड़ता है, मनुष्य पुनः पुनः योनियों के चक्र में संसार में आता-जाता रहता है।

ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਨ ਕੀਤੀਆ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਈ ॥
सतिगुर की सेवा न कीतीआ अंति गइआ पछुताई ॥
वह गुरु की सेवा में तल्लीन नहीं होता, जिसके फलस्वरूप आखिर में पछताता हुआ जगत से चला जाता है।

ਆਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਈ ॥
आपणी किरपा करे गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाई ॥
जब परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि करता है तो गुरु से मिलन हो जाता है और प्राणी का अहंत्व दूर हो जाता है।

ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਭੁਖ ਵਿਚਹੁ ਉਤਰੈ ਸੁਖੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਈ ॥
त्रिसना भुख विचहु उतरै सुखु वसै मनि आई ॥
तब सांसारिक मोह की तृष्णा की भूख दूर हो जाती है और मन में आत्मिक सुख का निवास हो जाता है।

ਸਦਾ ਸਦਾ ਸਾਲਾਹੀਐ ਹਿਰਦੈ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥੮॥
सदा सदा सालाहीऐ हिरदै लिव लाई ॥८॥
अपने हृदय में प्रभु से लगन लगाकर सदैव ही उसकी स्तुति करनी चाहिए ॥८॥

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥

ਜਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਆਪਣਾ ਤਿਸ ਨੋ ਪੂਜੇ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
जि सतिगुरु सेवे आपणा तिस नो पूजे सभु कोइ ॥
जो व्यक्ति अपने सतिगुरु की श्रद्धा से सेवा करता है, सभी उसकी पूजा करते हैं।

ਸਭਨਾ ਉਪਾਵਾ ਸਿਰਿ ਉਪਾਉ ਹੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
सभना उपावा सिरि उपाउ है हरि नामु परापति होइ ॥
सभी उपायों में श्रेष्ठ उपाय यह है कि हरि के नाम की प्राप्ति हो जाए।

ਅੰਤਰਿ ਸੀਤਲ ਸਾਤਿ ਵਸੈ ਜਪਿ ਹਿਰਦੈ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
अंतरि सीतल साति वसै जपि हिरदै सदा सुखु होइ ॥
नाम का जाप करने से अन्तर्मन में शीतलता एवं शांति का निवास होता है और हृदय सदैव सुखी रहता है।

ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਖਾਣਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੈਨਣਾ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਵਡਾਈ ਹੋਇ ॥੧॥
अम्रितु खाणा अम्रितु पैनणा नानक नामु वडाई होइ ॥१॥
हे नानक। नामामृत ही उसका भोजन एवं उसका पहरावा बन जाता है, नाम से ही उसे जगत में कीर्ति प्राप्त होती है।॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਏ ਮਨ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣਿ ਹਰਿ ਪਾਵਹਿ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥
ए मन गुर की सिख सुणि हरि पावहि गुणी निधानु ॥
हे मेरे मन ! सच्चे गुरु की शिक्षा सुन, तुझे गुणों का भण्डार प्रभु प्राप्त हो जाएगा।

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