Hindi Page 516

ਨਾਨਕ ਵਾਹੁ ਵਾਹੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਈਐ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਲਏਇ ॥੧॥
नानक वाहु वाहु गुरमुखि पाईऐ अनदिनु नामु लएइ ॥१॥
हे नानक ! गुरुमुख बनकर ही वाह-वाह रूपी स्तुतिगान की देन प्राप्त होती है और जीव सदा परमात्मा का ही नाम जपता है ॥१॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸੇਵੇ ਸਾਤਿ ਨ ਆਵਈ ਦੂਜੀ ਨਾਹੀ ਜਾਇ ॥
बिनु सतिगुर सेवे साति न आवई दूजी नाही जाइ ॥
सतगुरु की सेवा किए बिना मन को शान्ति नहीं आती और द्वैतभाव दूर नहीं होते।

ਜੇ ਬਹੁਤੇਰਾ ਲੋਚੀਐ ਵਿਣੁ ਕਰਮੈ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमै न पाइआ जाइ ॥
मनुष्य चाहे कितनी ही अभिलाषा करे परन्तु प्रभु की कृपा के बिना उसकी प्राप्ति नहीं होती।

ਜਿਨੑਾ ਅੰਤਰਿ ਲੋਭ ਵਿਕਾਰੁ ਹੈ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਇ ॥
जिन्हा अंतरि लोभ विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥
जिनकी अन्तरात्मा में लोभ विकार हैं, उन्हें द्वैतभाव नष्ट कर देता है।

ਜੰਮਣੁ ਮਰਣੁ ਨ ਚੁਕਈ ਹਉਮੈ ਵਿਚਿ ਦੁਖੁ ਪਾਇ ॥
जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥
इसलिए उनका जन्म-मरण का चक्र मिटता नहीं और अहंत्व में वे दुःख भोगते हैं।

ਜਿਨੑਾ ਸਤਿਗੁਰ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਇਆ ਸੁ ਖਾਲੀ ਕੋਈ ਨਾਹਿ ॥
जिन्हा सतिगुर सिउ चितु लाइआ सु खाली कोई नाहि ॥
जिन्होंने सतगुरु से अपना चित्त लगाया है, उनमें कोई भी नाम की देन से खाली नहीं रहा।

ਤਿਨ ਜਮ ਕੀ ਤਲਬ ਨ ਹੋਵਈ ਨਾ ਓਇ ਦੁਖ ਸਹਾਹਿ ॥
तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥
यमदूत उन्हें नहीं बुलाता और न ही वे दुःख सहते हैं।

ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਉਬਰੇ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਹਿ ॥੨॥
नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥२॥
हे नानक ! गुरुमुख पार हो जाते हैं और परम-सत्य परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।॥२॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥

ਢਾਢੀ ਤਿਸ ਨੋ ਆਖੀਐ ਜਿ ਖਸਮੈ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥
ढाढी तिस नो आखीऐ जि खसमै धरे पिआरु ॥
जो अपने मालिक से प्रेम करता है, उसे ही ढाढी कहा जाता है।

ਦਰਿ ਖੜਾ ਸੇਵਾ ਕਰੇ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰੁ ॥
दरि खड़ा सेवा करे गुर सबदी वीचारु ॥
प्रभु के द्वार पर खड़ा हुआ वह उसकी सेवा करता है और गुरु के शब्द द्वारा ईश्वर का चिन्तन करता है।

ਢਾਢੀ ਦਰੁ ਘਰੁ ਪਾਇਸੀ ਸਚੁ ਰਖੈ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
ढाढी दरु घरु पाइसी सचु रखै उर धारि ॥
ढाढी प्रभु के दरबार एवं मन्दिर को प्राप्त कर लेता है और सत्य को अपने हृदय से लगाकर रखता है।

ਢਾਢੀ ਕਾ ਮਹਲੁ ਅਗਲਾ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਇ ਪਿਆਰਿ ॥
ढाढी का महलु अगला हरि कै नाइ पिआरि ॥
ढाढी की पदवी सर्वोच्च होती है क्योंकि हरि के नाम से उसका प्रेम है।

ਢਾਢੀ ਕੀ ਸੇਵਾ ਚਾਕਰੀ ਹਰਿ ਜਪਿ ਹਰਿ ਨਿਸਤਾਰਿ ॥੧੮॥
ढाढी की सेवा चाकरी हरि जपि हरि निसतारि ॥१८॥
ऐसे ढाढी की सेवा-चाकरी यही है कि वह हरि का नाम-सिमरन करता है और प्रभु उसे मोक्ष प्रदान कर देता है। ॥१८॥

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥

ਗੂਜਰੀ ਜਾਤਿ ਗਵਾਰਿ ਜਾ ਸਹੁ ਪਾਏ ਆਪਣਾ ॥
गूजरी जाति गवारि जा सहु पाए आपणा ॥
गूजरी की जाति गंवार है परन्तु उसने भी अपना पति प्राप्त कर लिया है क्योंकि

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਜਪੁ ਜਾਪਣਾ ॥
गुर कै सबदि वीचारि अनदिनु हरि जपु जापणा ॥
वह गुरु के शब्द का चिंतन करती है और रात-दिन प्रभु के नाम का जाप जपती है।

ਜਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਤਿਸੁ ਭਉ ਪਵੈ ਸਾ ਕੁਲਵੰਤੀ ਨਾਰਿ ॥
जिसु सतिगुरु मिलै तिसु भउ पवै सा कुलवंती नारि ॥
जिसे सच्चा गुरु मिल जाता है, वह प्रभु-भय में रहती है और वही नारी कुलीन बन जाती है।

ਸਾ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣੈ ਕੰਤ ਕਾ ਜਿਸ ਨੋ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕੀਤੀ ਕਰਤਾਰਿ ॥
सा हुकमु पछाणै कंत का जिस नो क्रिपा कीती करतारि ॥
जिस पर करतार कृपा करता है, वह अपने पति-प्रभु के हुक्म को पहचान लेती है।

ਓਹ ਕੁਚਜੀ ਕੁਲਖਣੀ ਪਰਹਰਿ ਛੋਡੀ ਭਤਾਰਿ ॥
ओह कुचजी कुलखणी परहरि छोडी भतारि ॥
जो जीव-स्त्री मूर्ख एवं कुलक्षणी होती है, उसे पति-प्रभु त्याग देता है।

ਭੈ ਪਇਐ ਮਲੁ ਕਟੀਐ ਨਿਰਮਲ ਹੋਵੈ ਸਰੀਰੁ ॥
भै पइऐ मलु कटीऐ निरमल होवै सरीरु ॥
प्रभु का भय धारण करने से मन की मैल शुद्ध हो जाती है और शरीर पवित्र हो जाता है।

ਅੰਤਰਿ ਪਰਗਾਸੁ ਮਤਿ ਊਤਮ ਹੋਵੈ ਹਰਿ ਜਪਿ ਗੁਣੀ ਗਹੀਰੁ ॥
अंतरि परगासु मति ऊतम होवै हरि जपि गुणी गहीरु ॥
गुणों के समुद्र प्रभु का सुमिरन करने से आत्मा आलोकित एवं बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है।

ਭੈ ਵਿਚਿ ਬੈਸੈ ਭੈ ਰਹੈ ਭੈ ਵਿਚਿ ਕਮਾਵੈ ਕਾਰ ॥
भै विचि बैसै भै रहै भै विचि कमावै कार ॥
जो प्रभु-भय में बैठता है, भय में रहता है और भय में ही अपना कार्य करता है,

ਐਥੈ ਸੁਖੁ ਵਡਿਆਈਆ ਦਰਗਹ ਮੋਖ ਦੁਆਰ ॥
ऐथै सुखु वडिआईआ दरगह मोख दुआर ॥
वह इहलोक में सुख एवं प्रशंसा तथा प्रभु के दरबार में मोक्ष का द्वार प्राप्त कर लेता है।

ਭੈ ਤੇ ਨਿਰਭਉ ਪਾਈਐ ਮਿਲਿ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਅਪਾਰ ॥
भै ते निरभउ पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥
प्रभु-भय द्वारा ही निर्भय प्रभु पाया जाता है और प्राणी की ज्योति अपार प्रभु में विलीन हो जाती है।

ਨਾਨਕ ਖਸਮੈ ਭਾਵੈ ਸਾ ਭਲੀ ਜਿਸ ਨੋ ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਕਰਤਾਰੁ ॥੧॥
नानक खसमै भावै सा भली जिस नो आपे बखसे करतारु ॥१॥
हे नानक ! जिसे करतार आप क्षमा कर देता है, वही जीव-स्त्री भली है जो अपने पति-प्रभु को अच्छी लगती है ॥१॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਸਦਾ ਸਦਾ ਸਾਲਾਹੀਐ ਸਚੇ ਕਉ ਬਲਿ ਜਾਉ ॥
सदा सदा सालाहीऐ सचे कउ बलि जाउ ॥
सदैव ही सत्यस्वरूप परमात्मा की प्रशंसा करनी चाहिए, में उस परम-सत्य पर सर्वदा बलिहारी जाता हूँ।

ਨਾਨਕ ਏਕੁ ਛੋਡਿ ਦੂਜੈ ਲਗੈ ਸਾ ਜਿਹਵਾ ਜਲਿ ਜਾਉ ॥੨॥
नानक एकु छोडि दूजै लगै सा जिहवा जलि जाउ ॥२॥
हे नानक ! जो एक ईश्वर को छोड़कर किसी दूसरे के गुणानुवाद में लगती है, वह जिव्हा जल जानी चाहिए ॥२॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥

ਅੰਸਾ ਅਉਤਾਰੁ ਉਪਾਇਓਨੁ ਭਾਉ ਦੂਜਾ ਕੀਆ ॥
अंसा अउतारु उपाइओनु भाउ दूजा कीआ ॥
परमात्मा ने अंशावतारों की उत्पत्ति की और माया का मोह भी स्वयं ही उत्पन्न किया।

ਜਿਉ ਰਾਜੇ ਰਾਜੁ ਕਮਾਵਦੇ ਦੁਖ ਸੁਖ ਭਿੜੀਆ ॥
जिउ राजे राजु कमावदे दुख सुख भिड़ीआ ॥
ये अंशावतार भी राजाओं की भाँति राज्य करते रहे तथा दुःख-सुख हेतु भिड़ने लगे।

ਈਸਰੁ ਬ੍ਰਹਮਾ ਸੇਵਦੇ ਅੰਤੁ ਤਿਨੑੀ ਨ ਲਹੀਆ ॥
ईसरु ब्रहमा सेवदे अंतु तिन्ही न लहीआ ॥
शिवजी एवं ब्रह्मा भी एक परमात्मा का सिमरन करते हैं लेकिन उन्हें भी उसका भेद नहीं मिला।

ਨਿਰਭਉ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ਅਲਖੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰਗਟੀਆ ॥
निरभउ निरंकारु अलखु है गुरमुखि प्रगटीआ ॥
वह निर्भय, निराकार एवं अलक्ष्य है और गुरुमुख के अन्तर में ही प्रगट होता है।

ਤਿਥੈ ਸੋਗੁ ਵਿਜੋਗੁ ਨ ਵਿਆਪਈ ਅਸਥਿਰੁ ਜਗਿ ਥੀਆ ॥੧੯॥
तिथै सोगु विजोगु न विआपई असथिरु जगि थीआ ॥१९॥
उस अवस्था में शोक एवं वियोग का प्रभाव नहीं होता और वह दुनिया में सदा स्थिर हो जाता है॥ १६॥

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥

ਏਹੁ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਵਣ ਜਾਣੁ ਹੈ ਜੇਤਾ ਹੈ ਆਕਾਰੁ ॥
एहु सभु किछु आवण जाणु है जेता है आकारु ॥
जितना यह संसार दृष्टिगोचर है, सब नाशवान है।

ਜਿਨਿ ਏਹੁ ਲੇਖਾ ਲਿਖਿਆ ਸੋ ਹੋਆ ਪਰਵਾਣੁ ॥
जिनि एहु लेखा लिखिआ सो होआ परवाणु ॥
जो इस लेखे (बात) को समझता है, वह स्वीकार हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਜੇ ਕੋ ਆਪੁ ਗਣਾਇਦਾ ਸੋ ਮੂਰਖੁ ਗਾਵਾਰੁ ॥੧॥
नानक जे को आपु गणाइदा सो मूरखु गावारु ॥१॥
हे नानक ! यदि कोई अपने आपको महान् कहलवाता है, वह मूर्ख एवं गंवार है॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਮਨੁ ਕੁੰਚਰੁ ਪੀਲਕੁ ਗੁਰੂ ਗਿਆਨੁ ਕੁੰਡਾ ਜਹ ਖਿੰਚੇ ਤਹ ਜਾਇ ॥
मनु कुंचरु पीलकु गुरू गिआनु कुंडा जह खिंचे तह जाइ ॥
यह मन हाथी है, गुरु महावत एवं ज्ञान अंकुश है, जहाँ कहीं भी गुरु ले जाता है, वहाँ ही मन जाता है।

ਨਾਨਕ ਹਸਤੀ ਕੁੰਡੇ ਬਾਹਰਾ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਉਝੜਿ ਪਾਇ ॥੨॥
नानक हसती कुंडे बाहरा फिरि फिरि उझड़ि पाइ ॥२॥
हे नानक ! ज्ञान रूपी अंकुश के बिना मन रूपी हाथी बार-बार उजाड़ में भटकता है॥ २॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥

ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਅਰਦਾਸਿ ਜਿਨਿ ਉਪਾਇਆ ॥
तिसु आगै अरदासि जिनि उपाइआ ॥
मेरी उस परमात्मा के समक्ष प्रार्थना है, जिसने सारा जगत पैदा किया है।

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