Hindi Page 607

ਗਲਿ ਜੇਵੜੀ ਆਪੇ ਪਾਇਦਾ ਪਿਆਰਾ ਜਿਉ ਪ੍ਰਭੁ ਖਿੰਚੈ ਤਿਉ ਜਾਹਾ ॥
गलि जेवड़ी आपे पाइदा पिआरा जिउ प्रभु खिंचै तिउ जाहा ॥
वह स्वयं ही प्राणियों के गले में जीवन की डोर डालता है और जैसे प्रभु उन्हें खींचता है, वैसे ही प्राणी जीवन-मार्ग की ओर जाते हैं।

ਜੋ ਗਰਬੈ ਸੋ ਪਚਸੀ ਪਿਆਰੇ ਜਪਿ ਨਾਨਕ ਭਗਤਿ ਸਮਾਹਾ ॥੪॥੬॥
जो गरबै सो पचसी पिआरे जपि नानक भगति समाहा ॥४॥६॥
नानक का कथन है कि हे प्यारे ! जो व्यक्ति केवल घमण्ड ही करता है, उसका अंत हो जाता है। इसलिए ईश्वर का नाम जपकर उसकी भक्ति में ही लीन रहो।॥ ४॥ ६ ॥

ਸੋਰਠਿ ਮਃ ੪ ਦੁਤੁਕੇ ॥
सोरठि मः ४ दुतुके ॥
सोरठि मः ४ दुतुके ॥

ਅਨਿਕ ਜਨਮ ਵਿਛੁੜੇ ਦੁਖੁ ਪਾਇਆ ਮਨਮੁਖਿ ਕਰਮ ਕਰੈ ਅਹੰਕਾਰੀ ॥
अनिक जनम विछुड़े दुखु पाइआ मनमुखि करम करै अहंकारी ॥
अनेक जन्मों से भगवान से जुदा हुआ मनमुख पुरुष अत्यंत दुःख ही भोग रहा है और वह तो अहंकार के वशीभूत होकर कर्म करने में सक्रिय है।

ਸਾਧੂ ਪਰਸਤ ਹੀ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਇਆ ਗੋਬਿਦ ਸਰਣਿ ਤੁਮਾਰੀ ॥੧॥
साधू परसत ही प्रभु पाइआ गोबिद सरणि तुमारी ॥१॥
साधु रूपी गुरु के चरण-छूने से ही प्रभु की प्राप्ति हो गई है। हे गोविन्द ! मैं तो तुम्हारी शरण में ही आया हूँ॥ १॥

ਗੋਬਿਦ ਪ੍ਰੀਤਿ ਲਗੀ ਅਤਿ ਪਿਆਰੀ ॥
गोबिद प्रीति लगी अति पिआरी ॥
गोविन्द की प्रीति मुझे अत्यन्त प्यारी लगती है।

ਜਬ ਸਤਸੰਗ ਭਏ ਸਾਧੂ ਜਨ ਹਿਰਦੈ ਮਿਲਿਆ ਸਾਂਤਿ ਮੁਰਾਰੀ ॥ ਰਹਾਉ ॥
जब सतसंग भए साधू जन हिरदै मिलिआ सांति मुरारी ॥ रहाउ ॥
जब साधुओं के साथ मेरा सत्संग हुआ तो मुझे मेरे हृदय में ही शांति प्रदान करने वाला मुरारि प्रभु प्राप्त हो गया।॥ रहाउ ॥

ਤੂ ਹਿਰਦੈ ਗੁਪਤੁ ਵਸਹਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਤੇਰਾ ਭਾਉ ਨ ਬੁਝਹਿ ਗਵਾਰੀ ॥
तू हिरदै गुपतु वसहि दिनु राती तेरा भाउ न बुझहि गवारी ॥
हे भगवान ! तू हम जीवों के हृदय में ही गुप्त रूप में रहता है लेकिन हम गंवार तुम्हारे स्नेह को नहीं समझते।

ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੁਰਖੁ ਮਿਲਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਪ੍ਰਗਟਿਆ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਗੁਣ ਵੀਚਾਰੀ ॥੨॥
सतिगुरु पुरखु मिलिआ प्रभु प्रगटिआ गुण गावै गुण वीचारी ॥२॥
महापुरुष सतगुरु के मिलाप से प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन हो गए हैं। अब तो मैं उसका ही यशगान करता हूँ और प्रभु के गुणों पर ही चिंतन करता हूँ॥ २॥

ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ਭਇਆ ਸਾਤਿ ਆਈ ਦੁਰਮਤਿ ਬੁਧਿ ਨਿਵਾਰੀ ॥
गुरमुखि प्रगासु भइआ साति आई दुरमति बुधि निवारी ॥
गुरु के सान्निध्य में रहकर मेरा मन उज्जवल हो गया है और शांति प्राप्त होने के कारण मेरे मन में से खोटी बुद्धि दूर हो गई है।

ਆਤਮ ਬ੍ਰਹਮੁ ਚੀਨਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਸਤਸੰਗਤਿ ਪੁਰਖ ਤੁਮਾਰੀ ॥੩॥
आतम ब्रहमु चीनि सुखु पाइआ सतसंगति पुरख तुमारी ॥३॥
हे सतगुरु ! तुम्हारी सत्संगति के फलस्वरूप आत्मा में ही ब्रह्म को जान कर मुझे सुख प्राप्त हो गया है ॥३॥

ਪੁਰਖੈ ਪੁਰਖੁ ਮਿਲਿਆ ਗੁਰੁ ਪਾਇਆ ਜਿਨ ਕਉ ਕਿਰਪਾ ਭਈ ਤੁਮਾਰੀ ॥
पुरखै पुरखु मिलिआ गुरु पाइआ जिन कउ किरपा भई तुमारी ॥
हे प्रभु ! जिन पर तुम्हारी अपार कृपा हुई है, उन्हें गुरु प्राप्त हो गया है और गुरु से साक्षात्कार करके उन्हें तेरी प्राप्ति हो गई है।

ਨਾਨਕ ਅਤੁਲੁ ਸਹਜ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗਤੁ ਰਹੈ ਬਨਵਾਰੀ ॥੪॥੭॥
नानक अतुलु सहज सुखु पाइआ अनदिनु जागतु रहै बनवारी ॥४॥७॥
हे नानक ! उसे अतुलनीय सहज सुख प्राप्त हो गया है और वह अब प्रतिदिन भगवान में मग्न होकर जाग्रत रहता है॥ ४ ॥ ७ ॥

ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੪ ॥
सोरठि महला ४ ॥
सोरठि महला ४ ॥

ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਅੰਤਰੁ ਮਨੁ ਬੇਧਿਆ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਰਹਣੁ ਨ ਜਾਈ ॥
हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥
हरि के प्रेम से मेरा मन बिंध गया है एवं हरि के बिना में रह नहीं सकता।

ਜਿਉ ਮਛੁਲੀ ਬਿਨੁ ਨੀਰੈ ਬਿਨਸੈ ਤਿਉ ਨਾਮੈ ਬਿਨੁ ਮਰਿ ਜਾਈ ॥੧॥
जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥
जैसे मछली जल के बिना नाश हो जाती है, वैसे ही जीवात्मा हरि-नाम बिना मर जाती है॥ १॥

ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਜਲੁ ਦੇਵਹੁ ਹਰਿ ਨਾਈ ॥
मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥
हे मेरे प्रभु ! मुझे हरि-नाम रूपी कृपा-जल प्रदान कीजिए।

ਹਉ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਮੰਗਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਨਾਮੇ ਹੀ ਸਾਂਤਿ ਪਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ ॥
मैं अपने मन में दिन-रात नाम ही माँगता रहता हूँ और नाम से ही शांति प्राप्त होती है ॥ रहाउ ॥

ਜਿਉ ਚਾਤ੍ਰਿਕੁ ਜਲ ਬਿਨੁ ਬਿਲਲਾਵੈ ਬਿਨੁ ਜਲ ਪਿਆਸ ਨ ਜਾਈ ॥
जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥
जैसे पपीहा जल के बिना तड़पता रहता है और जल के बिना उसकी प्यास नहीं बुझती;

ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਲੁ ਪਾਵੈ ਸੁਖ ਸਹਜੇ ਹਰਿਆ ਭਾਇ ਸੁਭਾਈ ॥੨॥
गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥
वैसे ही गुरु के माध्यम से ही ब्रह्म रूपी जल का सुख प्राप्त होता है और वह प्रभु-प्रेम से सहज ही प्रफुल्लित हो जाता है॥ २ ॥

ਮਨਮੁਖ ਭੂਖੇ ਦਹ ਦਿਸ ਡੋਲਹਿ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਦੁਖੁ ਪਾਈ ॥
मनमुख भूखे दह दिस डोलहि बिनु नावै दुखु पाई ॥
मोह-माया के भूखे मनमुख पुरुष दसों दिशाओं में भटकते रहते हैं और नाम से वंचित रहने के कारण अत्यंत दु:ख भोगते हैं।

ਜਨਮਿ ਮਰੈ ਫਿਰਿ ਜੋਨੀ ਆਵੈ ਦਰਗਹਿ ਮਿਲੈ ਸਜਾਈ ॥੩॥
जनमि मरै फिरि जोनी आवै दरगहि मिलै सजाई ॥३॥
ऐसे लोग जन्मते-मरते रहते हैं, पुनः पुनः योनियों में आते हैं और भगवान के दरबार में उन्हें कठोर दण्ड मिलता है॥ ३॥

ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਹਿ ਤਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਹ ਹਰਿ ਰਸੁ ਅੰਤਰਿ ਪਾਈ ॥
क्रिपा करहि ता हरि गुण गावह हरि रसु अंतरि पाई ॥
यदि भगवान कृपा करे तो मनुष्य हरि का गुणगान करता है और उसे हृदय में ही हरि-रस प्राप्त हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਭਏ ਹੈ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਸਬਦਿ ਬੁਝਾਈ ॥੪॥੮॥
नानक दीन दइआल भए है त्रिसना सबदि बुझाई ॥४॥८॥
हे नानक ! भगवान दीनदयालु है, जिस पर वह दयालु होता है, उसकी शब्द के माध्यम से तृष्णा बुझा देता है॥ ४॥ ८॥

ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੪ ਪੰਚਪਦਾ ॥
सोरठि महला ४ पंचपदा ॥
सोरठि महला ४ पंचपदा ॥

ਅਚਰੁ ਚਰੈ ਤਾ ਸਿਧਿ ਹੋਈ ਸਿਧੀ ਤੇ ਬੁਧਿ ਪਾਈ ॥
अचरु चरै ता सिधि होई सिधी ते बुधि पाई ॥
यदि मनुष्य अजेय मन पर विजय प्राप्त कर ले तो उसे सिद्धि की प्राप्ति होती है और सिद्धि के फलस्वरूप ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।

ਪ੍ਰੇਮ ਕੇ ਸਰ ਲਾਗੇ ਤਨ ਭੀਤਰਿ ਤਾ ਭ੍ਰਮੁ ਕਾਟਿਆ ਜਾਈ ॥੧॥
प्रेम के सर लागे तन भीतरि ता भ्रमु काटिआ जाई ॥१॥
जब भगवान के प्रेम के तीर तन के भीतर लगते हैं तो भ्रम दूर हो जाता है ॥१॥

ਮੇਰੇ ਗੋਬਿਦ ਅਪੁਨੇ ਜਨ ਕਉ ਦੇਹਿ ਵਡਿਆਈ ॥
मेरे गोबिद अपुने जन कउ देहि वडिआई ॥
हे मेरे गोविन्द ! अपने सेवक को अपने नाम की बड़ाई प्रदान करो।

ਗੁਰਮਤਿ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਪਰਗਾਸਹੁ ਸਦਾ ਰਹਹੁ ਸਰਣਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरमति राम नामु परगासहु सदा रहहु सरणाई ॥ रहाउ ॥
गुरु के उपदेश द्वारा ही अपना राम नाम मेरे हृदय में उज्ज्वल करो चूंकि मैं हमेशा ही तुम्हारी शरण में पड़ा रहूँ ॥ रहाउ ॥

ਇਹੁ ਸੰਸਾਰੁ ਸਭੁ ਆਵਣ ਜਾਣਾ ਮਨ ਮੂਰਖ ਚੇਤਿ ਅਜਾਣਾ ॥
इहु संसारु सभु आवण जाणा मन मूरख चेति अजाणा ॥
हे मूर्ख एवं अचेतन मन ! यह सारी दुनिया आवागमन (जन्म मरण) के वशीभूत है, इसलिए केवल भगवान का ही भजन करो।

ਹਰਿ ਜੀਉ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਹੁ ਗੁਰੁ ਮੇਲਹੁ ਤਾ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਣਾ ॥੨॥
हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु ता हरि नामि समाणा ॥२॥
हे श्री हरि ! मुझ पर कृपा करो और मुझे गुरु से मिला दो ताकि मैं तेरे हरि-नाम में लीन हो जाऊँ॥ २॥

ਜਿਸ ਕੀ ਵਥੁ ਸੋਈ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਣੈ ਜਿਸ ਨੋ ਦੇਇ ਸੁ ਪਾਏ ॥
जिस की वथु सोई प्रभु जाणै जिस नो देइ सु पाए ॥
जिसकी अनमोल वस्तु यह नाम है, वह प्रभु ही इसे जानता है। जिसे यह अनमोल वस्तु देता है, वही इसे प्राप्त करता है।

ਵਸਤੁ ਅਨੂਪ ਅਤਿ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਅਲਖੁ ਲਖਾਏ ॥੩॥
वसतु अनूप अति अगम अगोचर गुरु पूरा अलखु लखाए ॥३॥
यह नाम-वस्तु अत्यंत अनूप, अगम्य, अगोचर है और पूर्ण गुरु के द्वारा ही अलक्ष्य वस्तु प्रगट होती है॥ ३॥

ਜਿਨਿ ਇਹ ਚਾਖੀ ਸੋਈ ਜਾਣੈ ਗੂੰਗੇ ਕੀ ਮਿਠਿਆਈ ॥
जिनि इह चाखी सोई जाणै गूंगे की मिठिआई ॥
जिसने इसे चखा है, वही इसके स्वाद को जानता है। जैसे गूंगा मिठाई का स्वाद नहीं बता सकता यह वैसे ही है।

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