Hindi Page 837

ਸੇਜ ਏਕ ਏਕੋ ਪ੍ਰਭੁ ਠਾਕੁਰੁ ਮਹਲੁ ਨ ਪਾਵੈ ਮਨਮੁਖ ਭਰਮਈਆ ॥
सेज एक एको प्रभु ठाकुरु महलु न पावै मनमुख भरमईआ ॥
हृदय रूपी सेज एक ही है और एक ठाकुर प्रभु ही उस पर आ बसता है लेकिन मनमुखी जीव भ्रमों में ही भटकता रहता है और उसे आत्मस्वरूप नहीं मिलता।

ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਤ ਸਰਣਿ ਜੇ ਆਵੈ ਪ੍ਰਭੁ ਆਇ ਮਿਲੈ ਖਿਨੁ ਢੀਲ ਨ ਪਈਆ ॥੫॥
गुरु गुरु करत सरणि जे आवै प्रभु आइ मिलै खिनु ढील न पईआ ॥५॥
जो ‘गुरु-गुरु’ करता हुआ उसकी शरण में आता है, उसे वह प्रभु से मिला देता है और क्षण भर के लिए भी विलम्ब नहीं करता ॥ ५ ॥

ਕਰਿ ਕਰਿ ਕਿਰਿਆਚਾਰ ਵਧਾਏ ਮਨਿ ਪਾਖੰਡ ਕਰਮੁ ਕਪਟ ਲੋਭਈਆ ॥
करि करि किरिआचार वधाए मनि पाखंड करमु कपट लोभईआ ॥
यदि कोई मनुष्य धर्म-कर्म करके कर्मकाण्ड में वृद्धि करता जाए तो उसके मन में पाखण्ड, लोभ, कपट वाले कर्म ही टिके रहेंगे।

ਬੇਸੁਆ ਕੈ ਘਰਿ ਬੇਟਾ ਜਨਮਿਆ ਪਿਤਾ ਤਾਹਿ ਕਿਆ ਨਾਮੁ ਸਦਈਆ ॥੬॥
बेसुआ कै घरि बेटा जनमिआ पिता ताहि किआ नामु सदईआ ॥६॥
अगर वेश्या के घर पुत्र पैदा हो गया है, तो उसके पिता का कोई नाम नहीं बताया जा सकता ॥ ६ ॥

ਪੂਰਬ ਜਨਮਿ ਭਗਤਿ ਕਰਿ ਆਏ ਗੁਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਜਮਈਆ ॥
पूरब जनमि भगति करि आए गुरि हरि हरि हरि हरि भगति जमईआ ॥
जो जीव पूर्व जन्म भक्ति करके इस जन्म में आया है, गुरु ने उसके मन में हरि की भक्ति का मंत्र पैदा कर दिया है।

ਭਗਤਿ ਭਗਤਿ ਕਰਤੇ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਜਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਈਆ ॥੭॥
भगति भगति करते हरि पाइआ जा हरि हरि हरि हरि नामि समईआ ॥७॥
जब भक्ति करके परमात्मा को पा लिया, तो वह हरि-नाम में ही विलीन हो गया ॥ ७ ॥

ਪ੍ਰਭਿ ਆਣਿ ਆਣਿ ਮਹਿੰਦੀ ਪੀਸਾਈ ਆਪੇ ਘੋਲਿ ਘੋਲਿ ਅੰਗਿ ਲਈਆ ॥
प्रभि आणि आणि महिंदी पीसाई आपे घोलि घोलि अंगि लईआ ॥
प्रभु ने स्वयं लाकर भक्ति रूपी मेहंदी पीसी है और स्वयं ही घोलकर भक्तों के अंगों पर लगाई है।

ਜਿਨ ਕਉ ਠਾਕੁਰਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀ ਬਾਹ ਪਕਰਿ ਨਾਨਕ ਕਢਿ ਲਈਆ ॥੮॥੬॥੨॥੧॥੬॥੯॥
जिन कउ ठाकुरि किरपा धारी बाह पकरि नानक कढि लईआ ॥८॥६॥२॥१॥६॥९॥
हे नानक ! जिन पर ठाकुर जी ने अपनी कृपा की है, उसने उनकी बांह पकड़कर भवसागर में से निकाल लिया है ॥८॥६॥२॥१॥६॥९॥

ਰਾਗੁ ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੫ ਅਸਟਪਦੀ ਘਰੁ ੧੨
रागु बिलावलु महला ५ असटपदी घरु १२
रागु बिलावलु महला ५ असटपदी घरु १२

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

ਉਪਮਾ ਜਾਤ ਨ ਕਹੀ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਉਪਮਾ ਜਾਤ ਨ ਕਹੀ ॥
उपमा जात न कही मेरे प्रभ की उपमा जात न कही ॥
मेरे प्रभु की उपमा कहीं नहीं जा सकती,

ਤਜਿ ਆਨ ਸਰਣਿ ਗਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तजि आन सरणि गही ॥१॥ रहाउ ॥
अतः सब कुछ छोड़कर उसकी ही शरण ले ली है॥ १॥ रहाउ॥

ਪ੍ਰਭ ਚਰਨ ਕਮਲ ਅਪਾਰ ॥
प्रभ चरन कमल अपार ॥
प्रभु के चरण कमल अपार हैं,

ਹਉ ਜਾਉ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰ ॥
हउ जाउ सद बलिहार ॥
मैं सदैव उन पर कुर्बान जाता हूँ।

ਮਨਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਲਾਗੀ ਤਾਹਿ ॥
मनि प्रीति लागी ताहि ॥
मेरे मन में उससे प्रीति लग चुकी है,

ਤਜਿ ਆਨ ਕਤਹਿ ਨ ਜਾਹਿ ॥੧॥
तजि आन कतहि न जाहि ॥१॥
उसे छोड़कर कहीं नहीं जाता ॥ १॥

ਹਰਿ ਨਾਮ ਰਸਨਾ ਕਹਨ ॥
हरि नाम रसना कहन ॥
मैं जिव्हा से हरि-नाम कहता रहता हूँ,

ਮਲ ਪਾਪ ਕਲਮਲ ਦਹਨ ॥
मल पाप कलमल दहन ॥
जिससे सारे पापों एवं दोषों की मैल जल गई है।

ਚੜਿ ਨਾਵ ਸੰਤ ਉਧਾਰਿ ॥
चड़ि नाव संत उधारि ॥
संतों की नाव पर चढ़कर मेरा उद्धार हो गया है और

ਭੈ ਤਰੇ ਸਾਗਰ ਪਾਰਿ ॥੨॥
भै तरे सागर पारि ॥२॥
भवसागर से पार हो गया हूँ॥ २॥

ਮਨਿ ਡੋਰਿ ਪ੍ਰੇਮ ਪਰੀਤਿ ॥
मनि डोरि प्रेम परीति ॥
संतों का मन प्रभु के प्रेम एवं प्रीति की डोर से बंधा होता है

ਇਹ ਸੰਤ ਨਿਰਮਲ ਰੀਤਿ ॥
इह संत निरमल रीति ॥
यह संतों की निर्मल मर्यादा है

ਤਜਿ ਗਏ ਪਾਪ ਬਿਕਾਰ ॥
तजि गए पाप बिकार ॥
पाप एवं विकार उनका साथ छोड़ गए हैं और

ਹਰਿ ਮਿਲੇ ਪ੍ਰਭ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥੩॥
हरि मिले प्रभ निरंकार ॥३॥
उन्हें निराकार प्रभु मिल गया है॥ ३॥

ਪ੍ਰਭ ਪੇਖੀਐ ਬਿਸਮਾਦ ॥
प्रभ पेखीऐ बिसमाद ॥
प्रभु के दर्शन करके बड़ा आश्चर्य होता है और

ਚਖਿ ਅਨਦ ਪੂਰਨ ਸਾਦ ॥
चखि अनद पूरन साद ॥
पूर्ण आनंद का स्वाद चखने को मिलता है।

ਨਹ ਡੋਲੀਐ ਇਤ ਊਤ ॥ ਪ੍ਰਭ ਬਸੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਚੀਤ ॥੪॥
नह डोलीऐ इत ऊत ॥ प्रभ बसे हरि हरि चीत ॥४॥
इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता जब प्रभु चित्त में बस जाता है ॥ ४॥

ਤਿਨੑ ਨਾਹਿ ਨਰਕ ਨਿਵਾਸੁ ॥ ਨਿਤ ਸਿਮਰਿ ਪ੍ਰਭ ਗੁਣਤਾਸੁ ॥
तिन्ह नाहि नरक निवासु ॥ नित सिमरि प्रभ गुणतासु ॥
उनका नरक में निवास नहीं होता, जो नित्य गुणों के भण्डार प्रभु का चिंतन करते रहते हैं, ।

ਤੇ ਜਮੁ ਨ ਪੇਖਹਿ ਨੈਨ ॥ ਸੁਨਿ ਮੋਹੇ ਅਨਹਤ ਬੈਨ ॥੫॥
ते जमु न पेखहि नैन ॥ सुनि मोहे अनहत बैन ॥५॥
वे यमों को अपनी आंखों से देखते भी नहीं और अनहद शब्द की ध्वनि से मुग्ध हो जाते हैं॥ ५॥

ਹਰਿ ਸਰਣਿ ਸੂਰ ਗੁਪਾਲ ॥ ਪ੍ਰਭ ਭਗਤ ਵਸਿ ਦਇਆਲ ॥
हरि सरणि सूर गुपाल ॥ प्रभ भगत वसि दइआल ॥
शूरवीर परमेश्वर की शरण में ही पड़े रहना चाहिए दयालु प्रभु अपने भक्तों के वश में है।

ਹਰਿ ਨਿਗਮ ਲਹਹਿ ਨ ਭੇਵ ॥ ਨਿਤ ਕਰਹਿ ਮੁਨਿ ਜਨ ਸੇਵ ॥੬॥
हरि निगम लहहि न भेव ॥ नित करहि मुनि जन सेव ॥६॥
वेद हरि का भेद नहीं पा सकते और मुनिजन भी नित्य उसकी भक्ति करते रहते हैं।६॥

ਦੁਖ ਦੀਨ ਦਰਦ ਨਿਵਾਰ ॥ ਜਾ ਕੀ ਮਹਾ ਬਿਖੜੀ ਕਾਰ ॥
दुख दीन दरद निवार ॥ जा की महा बिखड़ी कार ॥
परमात्मा दीनों के दुख-दर्द दूर करने वाला है, उसकी भक्ति बड़ी कठिन है।

ਤਾ ਕੀ ਮਿਤਿ ਨ ਜਾਨੈ ਕੋਇ ॥ ਜਲਿ ਥਲਿ ਮਹੀਅਲਿ ਸੋਇ ॥੭॥
ता की मिति न जानै कोइ ॥ जलि थलि महीअलि सोइ ॥७॥
उसका विस्तार कोई नहीं जानता, जो जल, धरती, आकाश, सब में समाया हुआ है॥ ७ ॥

ਕਰਿ ਬੰਦਨਾ ਲਖ ਬਾਰ ॥ ਥਕਿ ਪਰਿਓ ਪ੍ਰਭ ਦਰਬਾਰ ॥
करि बंदना लख बार ॥ थकि परिओ प्रभ दरबार ॥
मैं लाख बार प्रभु की ही वन्दना करता हूँ और हार कर प्रभु-दरबार में आ पड़ा हूँ ।

ਪ੍ਰਭ ਕਰਹੁ ਸਾਧੂ ਧੂਰਿ ॥ ਨਾਨਕ ਮਨਸਾ ਪੂਰਿ ॥੮॥੧॥
प्रभ करहु साधू धूरि ॥ नानक मनसा पूरि ॥८॥१॥
हे प्रभु जी ! मुझे साधु की धूलि बना दो और नानक की यह अभिलाषा पूरी कर दो ॥ ८॥१॥

ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੫ ॥
बिलावलु महला ५ ॥
बिलावलु महला ५ ॥

ਪ੍ਰਭ ਜਨਮ ਮਰਨ ਨਿਵਾਰਿ ॥ ਹਾਰਿ ਪਰਿਓ ਦੁਆਰਿ ॥
प्रभ जनम मरन निवारि ॥ हारि परिओ दुआरि ॥
हे प्रभु ! मेरा जन्म-मरण मिटा दो, मैं हार कर तेरे द्वार पर आ गया हूँ।

ਗਹਿ ਚਰਨ ਸਾਧੂ ਸੰਗ ॥ ਮਨ ਮਿਸਟ ਹਰਿ ਹਰਿ ਰੰਗ ॥
गहि चरन साधू संग ॥ मन मिसट हरि हरि रंग ॥
मैं साधु के चरण पकड़ कर उसके साथ ही रहता हूँ और मन को हरि-रंग ही मीठा लगता है।

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