ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੩ ਵਾਰ ਸਤ ਘਰੁ ੧੦
बिलावलु महला ३ वार सत घरु १०
बिलावलु महला ३ वार सत घरु १०
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਆਦਿਤ ਵਾਰਿ ਆਦਿ ਪੁਰਖੁ ਹੈ ਸੋਈ ॥
आदित वारि आदि पुरखु है सोई ॥
आदित्यवार (रविवार)-आदिपुरुष परमेश्वर सबमें व्याप्त है,
ਆਪੇ ਵਰਤੈ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਈ ॥
आपे वरतै अवरु न कोई ॥
उसके बिना अन्य कोई नहीं।
ਓਤਿ ਪੋਤਿ ਜਗੁ ਰਹਿਆ ਪਰੋਈ ॥
ओति पोति जगु रहिआ परोई ॥
उसने समूचा जगत ताने बाने की तरह संजों कर रखा हुआ है।
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਰੈ ਸੁ ਹੋਈ ॥
आपे करता करै सु होई ॥
वह कर्तापुरुष जो करता है, वही होता है।
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥
नामि रते सदा सुखु होई ॥
उसके नाम में लीन रहने से सदैव सुख मिलता है,
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਿਰਲਾ ਬੂਝੈ ਕੋਈ ॥੧॥
गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥१॥
यह तथ्य कोई विरला गुरुमुख ही समझता है।॥ १॥
ਹਿਰਦੈ ਜਪਨੀ ਜਪਉ ਗੁਣਤਾਸਾ ॥
हिरदै जपनी जपउ गुणतासा ॥
मेरी तो यही माला है कि मैं उस गुणों के भण्डार को हृदय में जपता रहता हूँ।
ਹਰਿ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਅਪਰੰਪਰ ਸੁਆਮੀ ਜਨ ਪਗਿ ਲਗਿ ਧਿਆਵਉ ਹੋਇ ਦਾਸਨਿ ਦਾਸਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि अगम अगोचरु अपर्मपर सुआमी जन पगि लगि धिआवउ होइ दासनि दासा ॥१॥ रहाउ ॥
परमात्मा अपहुँच, मन-वाणी से परे, अपरंपार एवं पूरे जगत का स्वामी है। मैं उसके दासों का दास बनकर हरि जनों के चरणों में लगकर प्रभु का ध्यान करता हूँ॥ १॥ रहाउ ॥
ਸੋਮਵਾਰਿ ਸਚਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
सोमवारि सचि रहिआ समाइ ॥
सोमवार-सत्य स्वरूप परमेश्वर सबमें समा रहा है,
ਤਿਸ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥
तिस की कीमति कही न जाइ ॥
उसकी गरिमा को व्यक्त नहीं किया जा सकता।
ਆਖਿ ਆਖਿ ਰਹੇ ਸਭਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
आखि आखि रहे सभि लिव लाइ ॥
उसके गुण कह-कह कर उसमें वृति लगाकर कितने ही थक गए हैं।
ਜਿਸੁ ਦੇਵੈ ਤਿਸੁ ਪਲੈ ਪਾਇ ॥
जिसु देवै तिसु पलै पाइ ॥
परमात्मा का नाम उसे ही मिलता है, जिसे वह स्वयं देता है।
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਲਖਿਆ ਨ ਜਾਇ ॥
अगम अगोचरु लखिआ न जाइ ॥
अपहुँच, मन-वाणी से परे परमात्मा का रहस्य जाना नहीं जा सकता और
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਹਰਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੨॥
गुर कै सबदि हरि रहिआ समाइ ॥२॥
गुरु के उपदेश द्वारा ही जीव परमात्मा में लीन रहता है॥ २॥
ਮੰਗਲਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਉਪਾਇਆ ॥
मंगलि माइआ मोहु उपाइआ ॥
मंगलवार-ईश्वर ने माया-मोह को पैदा किया है और
ਆਪੇ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਧੰਧੈ ਲਾਇਆ ॥
आपे सिरि सिरि धंधै लाइआ ॥
स्वयं ही जीवों को मोह में जगत धंधे में लगाया है।
ਆਪਿ ਬੁਝਾਏ ਸੋਈ ਬੂਝੈ ॥
आपि बुझाए सोई बूझै ॥
इस तथ्य को वही समझता है, जिसे यह ज्ञान प्रदान करता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਦਰੁ ਘਰੁ ਸੂਝੈ ॥
गुर कै सबदि दरु घरु सूझै ॥
गुरु के शब्द द्वारा जीव को अपने वास्तविक घर की सूझ हो जाती है।
ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਕਰੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
प्रेम भगति करे लिव लाइ ॥
वह भक्ति करके इसमें ही वृति लगाकर रखता है।
ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇ ॥੩॥
हउमै ममता सबदि जलाइ ॥३॥
इस तरह वह अपने अहंत्व एवं ममता को शब्द द्वारा जला देता है॥ ३॥
ਬੁਧਵਾਰਿ ਆਪੇ ਬੁਧਿ ਸਾਰੁ ॥
बुधवारि आपे बुधि सारु ॥
बुधवार-वह स्वयं ही श्रेष्ठ बुद्धि देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰਣੀ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि करणी सबदु वीचारु ॥
गुरुमुख शब्द का चिंतन एवं सत्कर्म करता है।
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥
नामि रते मनु निरमलु होइ ॥
नाम में लीन रहने से मन निर्मल हो जाता है।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਹਉਮੈ ਮਲੁ ਖੋਇ ॥
हरि गुण गावै हउमै मलु खोइ ॥
भगवान का स्तुतिगान करने से अहंत्व रूपी मैल दूर हो जाती है।
ਦਰਿ ਸਚੈ ਸਦ ਸੋਭਾ ਪਾਏ ॥
दरि सचै सद सोभा पाए ॥
इस तरह जीव सत्य के दरबार में सदैव शोभा पाता है।
ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਏ ॥੪॥
नामि रते गुर सबदि सुहाए ॥४॥
गुरु के शब्द द्वारा नाम में लीन होकर वह सुन्दर बन जाता है॥ ४ ॥
ਲਾਹਾ ਨਾਮੁ ਪਾਏ ਗੁਰ ਦੁਆਰਿ ॥
लाहा नामु पाए गुर दुआरि ॥
जीव गुरु के द्वार पर सेवा करके नाम रूपी लाभ हासिल करता है।
ਆਪੇ ਦੇਵੈ ਦੇਵਣਹਾਰੁ ॥
आपे देवै देवणहारु ॥
वह देने वाला दाता बख्शिशें देता रहता है।
ਜੋ ਦੇਵੈ ਤਿਸ ਕਉ ਬਲਿ ਜਾਈਐ ॥
जो देवै तिस कउ बलि जाईऐ ॥
जो देता है, मैं उस पर बलिहारी जाता हूँ।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਆਪੁ ਗਵਾਈਐ ॥
गुर परसादी आपु गवाईऐ ॥
गुरु की कृपा से अहंत्व दूर होता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਰਖਹੁ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
नानक नामु रखहु उर धारि ॥
हे नानक ! परमात्मा का नाम हृदय में बसाकर रखो और
ਦੇਵਣਹਾਰੇ ਕਉ ਜੈਕਾਰੁ ॥੫॥
देवणहारे कउ जैकारु ॥५॥
दाता का ही यशोगान करते रहो ॥ ५॥
ਵੀਰਵਾਰਿ ਵੀਰ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਏ ॥
वीरवारि वीर भरमि भुलाए ॥
गुरुवार-परमात्मा ने जीवों को बावन वीरों के भ्रम में भुलाया हुआ है।
ਪ੍ਰੇਤ ਭੂਤ ਸਭਿ ਦੂਜੈ ਲਾਏ ॥
प्रेत भूत सभि दूजै लाए ॥
उसने भूतों-प्रेतों को भी दैतभाव में लगाया हुआ है।
ਆਪਿ ਉਪਾਏ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਵੇਕਾ ॥
आपि उपाए करि वेखै वेका ॥
उसने स्वयं सबको उत्पन्न किया है और भिन्न-भिन्न प्रकार का बनाकर सबकी देखभाल करता है।
ਸਭਨਾ ਕਰਤੇ ਤੇਰੀ ਟੇਕਾ ॥
सभना करते तेरी टेका ॥
हे कर्ता ! सब जीवों को तेरा ही सहारा है और
ਜੀਅ ਜੰਤ ਤੇਰੀ ਸਰਣਾਈ ॥
जीअ जंत तेरी सरणाई ॥
सब तेरी ही शरण में हैं।
ਸੋ ਮਿਲੈ ਜਿਸੁ ਲੈਹਿ ਮਿਲਾਈ ॥੬॥
सो मिलै जिसु लैहि मिलाई ॥६॥
वही मनुष्य तुझसे मिलता है, जिसे तू अपने साथ मिला लेता है॥ ६॥
ਸੁਕ੍ਰਵਾਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ ॥
सुक्रवारि प्रभु रहिआ समाई ॥
शुक्रवार-प्रभु विश्वव्याप्त है।
ਆਪਿ ਉਪਾਇ ਸਭ ਕੀਮਤਿ ਪਾਈ ॥
आपि उपाइ सभ कीमति पाई ॥
उसने सृष्टि की रचना करके स्वयं ही उसका मूल्यांकन किया है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਕਰੈ ਬੀਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि होवै सु करै बीचारु ॥
जो गुरुमुख बन जाता है, वही परमात्मा का चिंतन करता है।
ਸਚੁ ਸੰਜਮੁ ਕਰਣੀ ਹੈ ਕਾਰ ॥
सचु संजमु करणी है कार ॥
सत्य एवं संयम का आचरण ही उसका कर्म होता है।
ਵਰਤੁ ਨੇਮੁ ਨਿਤਾਪ੍ਰਤਿ ਪੂਜਾ ॥
वरतु नेमु निताप्रति पूजा ॥
व्रत, नियम एवं नित्य की पूजा-अर्चना
ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਸਭੁ ਭਾਉ ਹੈ ਦੂਜਾ ॥੭॥
बिनु बूझे सभु भाउ है दूजा ॥७॥
प्रभु को समझे बिना सब द्वैतभाव का प्रेम है ॥७॥
ਛਨਿਛਰਵਾਰਿ ਸਉਣ ਸਾਸਤ ਬੀਚਾਰੁ ॥
छनिछरवारि सउण सासत बीचारु ॥
शनिवार-शुभ मुहूर्त एवं शास्त्रों का विचार कर
ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਭਰਮੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
हउमै मेरा भरमै संसारु ॥
सारा संसार अहंत्व, ममत्व एवं भ्रम में भटक रहा है।
ਮਨਮੁਖੁ ਅੰਧਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
मनमुखु अंधा दूजै भाइ ॥
ज्ञानहीन स्वेच्छाचारी जीव द्वैतभाव में ही लीन है।
ਜਮ ਦਰਿ ਬਾਧਾ ਚੋਟਾ ਖਾਇ ॥
जम दरि बाधा चोटा खाइ ॥
इसलिए यम के द्वार पर चोटें खाता रहता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ॥ ਸਚੁ ਕਰਣੀ ਸਾਚਿ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥੮॥
गुर परसादी सदा सुखु पाए ॥ सचु करणी साचि लिव लाए ॥८॥
गुरु की कृपा से जीव सदैव सुख प्राप्त करता है। वह सत्कर्म करता है और सत्य में ही ध्यान लगाकर रखता है॥ ८॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਹਿ ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ॥
सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥
कोई भाग्यवाला ही सतगुरु की सेवा करता है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਸਚਿ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ॥
हउमै मारि सचि लिव लागी ॥
अपने अहंत्व को नष्ट करके सत्य में ही उसकी वृति लग गई है।
ਤੇਰੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
तेरै रंगि राते सहजि सुभाइ ॥
हे प्रभु ! वह सहज स्वभाव तेरे रंग में लीन है।