ਕਿਨਹੀ ਕਹਿਆ ਬਾਹ ਬਹੁ ਭਾਈ ॥
किनही कहिआ बाह बहु भाई ॥
किसी ने कहा है कि अपने भाईयों की मदद के कारण मेरा बड़ा बाहुबल है,
ਕੋਈ ਕਹੈ ਮੈ ਧਨਹਿ ਪਸਾਰਾ ॥
कोई कहै मै धनहि पसारा ॥
कोई कह रहा है कि अधिक धन दौलत के कारण मैं ही धनवान हूँ,
ਮੋਹਿ ਦੀਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਆਧਾਰਾ ॥੪॥
मोहि दीन हरि हरि आधारा ॥४॥
परन्तु मुझ दीन को हरि का ही आधार है॥ ४॥
ਕਿਨਹੀ ਘੂਘਰ ਨਿਰਤਿ ਕਰਾਈ ॥
किनही घूघर निरति कराई ॥
कोई पैरों में धुंघरू बाँधकर नाच रहा है।
ਕਿਨਹੂ ਵਰਤ ਨੇਮ ਮਾਲਾ ਪਾਈ ॥
किनहू वरत नेम माला पाई ॥
किसी ने व्रत-उपवास, नियम एवं माला पहनी हुई है,
ਕਿਨਹੀ ਤਿਲਕੁ ਗੋਪੀ ਚੰਦਨ ਲਾਇਆ ॥
किनही तिलकु गोपी चंदन लाइआ ॥
किसी ने अपने माथे पर गोपीचन्दन का तिलक लगाया हुआ है,
ਮੋਹਿ ਦੀਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਧਿਆਇਆ ॥੫॥
मोहि दीन हरि हरि हरि धिआइआ ॥५॥
परन्तु मुझ दीन ने ईश्वर का ही ध्यान किया है॥ ५॥
ਕਿਨਹੀ ਸਿਧ ਬਹੁ ਚੇਟਕ ਲਾਏ ॥
किनही सिध बहु चेटक लाए ॥
कोई मनुष्य सिद्धों की ऋद्धियाँ सिद्धियाँ वाले कारनामे दिखा रहे हैं,
ਕਿਨਹੀ ਭੇਖ ਬਹੁ ਥਾਟ ਬਨਾਏ ॥
किनही भेख बहु थाट बनाए ॥
किसी ने पेश बनाकर अपने बहुत आश्रम बना लिए हैं,
ਕਿਨਹੀ ਤੰਤ ਮੰਤ ਬਹੁ ਖੇਵਾ ॥
किनही तंत मंत बहु खेवा ॥
कोई तंत्र-मंत्र की विद्या में प्रवृत्त रहता है।
ਮੋਹਿ ਦੀਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸੇਵਾ ॥੬॥
मोहि दीन हरि हरि हरि सेवा ॥६॥
परन्तु मैं गरीब तो परमात्मा की उपासना में ही लीन रहता हूँ॥ ६॥
ਕੋਈ ਚਤੁਰੁ ਕਹਾਵੈ ਪੰਡਿਤ ॥
कोई चतुरु कहावै पंडित ॥
कोई स्वयं को चतुर पण्डित कहलवाता है,
ਕੋ ਖਟੁ ਕਰਮ ਸਹਿਤ ਸਿਉ ਮੰਡਿਤ ॥
को खटु करम सहित सिउ मंडित ॥
कोई छः कर्मों में प्रवृत्त रहता है और शिव की पूजा करता है,
ਕੋਈ ਕਰੈ ਆਚਾਰ ਸੁਕਰਣੀ ॥
कोई करै आचार सुकरणी ॥
कोई शुभ कर्म एवं धर्म-कर्म करता है
ਮੋਹਿ ਦੀਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸਰਣੀ ॥੭॥
मोहि दीन हरि हरि हरि सरणी ॥७॥
परन्तु मुझ दीन ने परमात्मा की ही शरण ली है॥ ७ ॥
ਸਗਲੇ ਕਰਮ ਧਰਮ ਜੁਗ ਸੋਧੇ ॥
सगले करम धरम जुग सोधे ॥
मैंने सब युगों के धर्म-कर्म का भलीभांति विश्लेषण कर लिया है,
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਇਹੁ ਮਨੁ ਨ ਪ੍ਰਬੋਧੇ ॥
बिनु नावै इहु मनु न प्रबोधे ॥
परन्तु नाम के बिना यह मन किसी अन्य धर्म-कर्म को उचित नहीं समझता।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਉ ਸਾਧਸੰਗੁ ਪਾਇਆ ॥
कहु नानक जउ साधसंगु पाइआ ॥
हे नानक ! जब साधुओं की संगति प्राप्त हुई तो
ਬੂਝੀ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮਹਾ ਸੀਤਲਾਇਆ ॥੮॥੧॥
बूझी त्रिसना महा सीतलाइआ ॥८॥१॥
सारी तृष्णा बुझ गई और मन शान्त हो गया ॥ ८ ॥ १॥
ਰਾਮਕਲੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
रामकली महला ५ ॥
रामकली महला ५ ॥
ਇਸੁ ਪਾਨੀ ਤੇ ਜਿਨਿ ਤੂ ਘਰਿਆ ॥
इसु पानी ते जिनि तू घरिआ ॥
हे जीव ! जिसने वीर्य रूपी बूंद से तुझे उत्पन्न किया है और
ਮਾਟੀ ਕਾ ਲੇ ਦੇਹੁਰਾ ਕਰਿਆ ॥
माटी का ले देहुरा करिआ ॥
मिट्टी को लेकर तेरा शरीर बनाया है,
ਉਕਤਿ ਜੋਤਿ ਲੈ ਸੁਰਤਿ ਪਰੀਖਿਆ ॥
उकति जोति लै सुरति परीखिआ ॥
जिसने बुद्धि की ज्योति एवं सोचने परखने का ज्ञान देकर
ਮਾਤ ਗਰਭ ਮਹਿ ਜਿਨਿ ਤੂ ਰਾਖਿਆ ॥੧॥
मात गरभ महि जिनि तू राखिआ ॥१॥
माता के गर्भ में तेरी रक्षा की है॥ १॥
ਰਾਖਨਹਾਰੁ ਸਮ੍ਹਾਰਿ ਜਨਾ ॥
राखनहारु सम्हारि जना ॥
हे जीव ! अपने रचयिता एवं रखवाले का चिंतन कर;
ਸਗਲੇ ਛੋਡਿ ਬੀਚਾਰ ਮਨਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सगले छोडि बीचार मना ॥१॥ रहाउ ॥
मन के सब विचार छोड़ दे॥ १॥ रहाउ॥
ਜਿਨਿ ਦੀਏ ਤੁਧੁ ਬਾਪ ਮਹਤਾਰੀ ॥
जिनि दीए तुधु बाप महतारी ॥
जिसने तुझे माता-पिता दिए हैं,
ਜਿਨਿ ਦੀਏ ਭ੍ਰਾਤ ਪੁਤ ਹਾਰੀ ॥
जिनि दीए भ्रात पुत हारी ॥
जिसने तुझे भाई, पुत्र एवं साथी दिए हैं,
ਜਿਨਿ ਦੀਏ ਤੁਧੁ ਬਨਿਤਾ ਅਰੁ ਮੀਤਾ ॥
जिनि दीए तुधु बनिता अरु मीता ॥
जिसने तुझे पत्नी और मित्र दिए हैं,
ਤਿਸੁ ਠਾਕੁਰ ਕਉ ਰਖਿ ਲੇਹੁ ਚੀਤਾ ॥੨॥
तिसु ठाकुर कउ रखि लेहु चीता ॥२॥
उस ठाकुर जी को अपने हृदय में बसाकर रखो ॥ २॥
ਜਿਨਿ ਦੀਆ ਤੁਧੁ ਪਵਨੁ ਅਮੋਲਾ ॥
जिनि दीआ तुधु पवनु अमोला ॥
जिसने तुझे अमूल्य पवन दी है,
ਜਿਨਿ ਦੀਆ ਤੁਧੁ ਨੀਰੁ ਨਿਰਮੋਲਾ ॥
जिनि दीआ तुधु नीरु निरमोला ॥
जिसने तुझे निर्मल जल दिया है,
ਜਿਨਿ ਦੀਆ ਤੁਧੁ ਪਾਵਕੁ ਬਲਨਾ ॥
जिनि दीआ तुधु पावकु बलना ॥
जिसने तुझे अग्नि एवं ईधन दिया है,
ਤਿਸੁ ਠਾਕੁਰ ਕੀ ਰਹੁ ਮਨ ਸਰਨਾ ॥੩॥
तिसु ठाकुर की रहु मन सरना ॥३॥
हे मन ! उस मालिक की शरण में पड़े रहो॥ ३॥
ਛਤੀਹ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਜਿਨਿ ਭੋਜਨ ਦੀਏ ॥
छतीह अम्रित जिनि भोजन दीए ॥
जिसने तुझे छत्तीस प्रकार का अमृत भोजन दिया है,
ਅੰਤਰਿ ਥਾਨ ਠਹਰਾਵਨ ਕਉ ਕੀਏ ॥
अंतरि थान ठहरावन कउ कीए ॥
जिसने भोजन को तेरे पेट में ठहरने के लिए स्थान बनाया है,
ਬਸੁਧਾ ਦੀਓ ਬਰਤਨਿ ਬਲਨਾ ॥
बसुधा दीओ बरतनि बलना ॥
जिसने तुझे धरती एवं उपयोग के लिए सामग्री दी है,
ਤਿਸੁ ਠਾਕੁਰ ਕੇ ਚਿਤਿ ਰਖੁ ਚਰਨਾ ॥੪॥
तिसु ठाकुर के चिति रखु चरना ॥४॥
उस ठाकुर जी के चरणों को अपने चित्त में बसाकर रखो॥ ४॥
ਪੇਖਨ ਕਉ ਨੇਤ੍ਰ ਸੁਨਨ ਕਉ ਕਰਨਾ ॥
पेखन कउ नेत्र सुनन कउ करना ॥
जिसने देखने के लिए ऑखें, सुनने के लिए कान,
ਹਸਤ ਕਮਾਵਨ ਬਾਸਨ ਰਸਨਾ ॥
हसत कमावन बासन रसना ॥
काम करने के लिए हाथ, सूंघने के लिए नाक और स्वाद के लिए जीभ दी है,
ਚਰਨ ਚਲਨ ਕਉ ਸਿਰੁ ਕੀਨੋ ਮੇਰਾ ॥
चरन चलन कउ सिरु कीनो मेरा ॥
चलने के लिए पैर और सिर को सब अंगों में शीर्ष बनाया है,
ਮਨ ਤਿਸੁ ਠਾਕੁਰ ਕੇ ਪੂਜਹੁ ਪੈਰਾ ॥੫॥
मन तिसु ठाकुर के पूजहु पैरा ॥५॥
हे मन ! उस मालिक के चरणों की पूजा अर्चना करो।॥ ५॥
ਅਪਵਿਤ੍ਰ ਪਵਿਤ੍ਰੁ ਜਿਨਿ ਤੂ ਕਰਿਆ ॥
अपवित्र पवित्रु जिनि तू करिआ ॥
जिसने तुझे अपवित्र से पवित्र कर दिया है,
ਸਗਲ ਜੋਨਿ ਮਹਿ ਤੂ ਸਿਰਿ ਧਰਿਆ ॥
सगल जोनि महि तू सिरि धरिआ ॥
सब योनियों में तेरा मानव-जन्म उत्तम बना दिया है,
ਅਬ ਤੂ ਸੀਝੁ ਭਾਵੈ ਨਹੀ ਸੀਝੈ ॥
अब तू सीझु भावै नही सीझै ॥
अब यह तेरे ही वश में है कि तू उसका सिमरन करके अपना जीवन सफल कर ले।
ਕਾਰਜੁ ਸਵਰੈ ਮਨ ਪ੍ਰਭੁ ਧਿਆਈਜੈ ॥੬॥
कारजु सवरै मन प्रभु धिआईजै ॥६॥
हे मन ! प्रभु का ध्यान करने से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।६॥
ਈਹਾ ਊਹਾ ਏਕੈ ਓਹੀ ॥
ईहा ऊहा एकै ओही ॥
लोक-परलोक में एक वही मौजूद है।
ਜਤ ਕਤ ਦੇਖੀਐ ਤਤ ਤਤ ਤੋਹੀ ॥
जत कत देखीऐ तत तत तोही ॥
जिधर किधर भी देखता हूँ, उधर ही परमात्मा नजर आता है।
ਤਿਸੁ ਸੇਵਤ ਮਨਿ ਆਲਸੁ ਕਰੈ ॥
तिसु सेवत मनि आलसु करै ॥
उसकी भक्ति करने के लिए मन में क्यों आलस्य पैदा होता है
ਜਿਸੁ ਵਿਸਰਿਐ ਇਕ ਨਿਮਖ ਨ ਸਰੈ ॥੭॥
जिसु विसरिऐ इक निमख न सरै ॥७॥
जिसे विस्मृत करने से एक पल भी जीवन निर्वाह नहीं होता॥ ७॥
ਹਮ ਅਪਰਾਧੀ ਨਿਰਗੁਨੀਆਰੇ ॥
हम अपराधी निरगुनीआरे ॥
हम जीव अपराधी एवं गुणविहीन हैं,
ਨਾ ਕਿਛੁ ਸੇਵਾ ਨਾ ਕਰਮਾਰੇ ॥
ना किछु सेवा ना करमारे ॥
न कोई सेवा-भक्ति की है और न ही कोई शुभ कर्म किया है,
ਗੁਰੁ ਬੋਹਿਥੁ ਵਡਭਾਗੀ ਮਿਲਿਆ ॥
गुरु बोहिथु वडभागी मिलिआ ॥
किन्तु अहोभाग्य से गुरु रूपी जहाज मिल गया है।
ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਸੰਗਿ ਪਾਥਰ ਤਰਿਆ ॥੮॥੨॥
नानक दास संगि पाथर तरिआ ॥८॥२॥
हे नानक ! उस गुरु के संग लगकर हम पत्थर जीव भी संसार-सागर से पार हो गए हैं।॥ ८ ॥ २ ॥
ਰਾਮਕਲੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
रामकली महला ५ ॥
रामकली महला ५ ॥
ਕਾਹੂ ਬਿਹਾਵੈ ਰੰਗ ਰਸ ਰੂਪ ॥
काहू बिहावै रंग रस रूप ॥
कोई अपना जीवन दुनिया की रंगरलियों, रसों एवं सौन्दर्य में ही व्यतीत करता है,