Hindi Page 932

ਤਾ ਮਿਲੀਐ ਜਾ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥
ता मिलीऐ जा लए मिलाइ ॥
प्रभु से तभी मिलाप होता है, जब वह स्वयं जीव को विलीन कर लेता है।

ਗੁਣਵੰਤੀ ਗੁਣ ਸਾਰੇ ਨੀਤ ॥
गुणवंती गुण सारे नीत ॥
गुणवान जीव-स्त्री नित्य परमात्मा के गुणों का चिंतन करती है।

ਨਾਨਕ ਗੁਰਮਤਿ ਮਿਲੀਐ ਮੀਤ ॥੧੭॥
नानक गुरमति मिलीऐ मीत ॥१७॥
हे नानक ! मित्र-प्रभु गुरु मतानुसार ही मिलता है॥ १७॥

ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਕਾਇਆ ਕਉ ਗਾਲੈ ॥
कामु क्रोधु काइआ कउ गालै ॥
काम-क्रोध शरीर को ऐसे गला देते हैं,

ਜਿਉ ਕੰਚਨ ਸੋਹਾਗਾ ਢਾਲੈ ॥
जिउ कंचन सोहागा ढालै ॥
जैसे सुहागा स्वर्ण को पिघला कर रख देता है।

ਕਸਿ ਕਸਵਟੀ ਸਹੈ ਸੁ ਤਾਉ ॥
कसि कसवटी सहै सु ताउ ॥
पहले स्वर्ण कसौटी की रगड़ सहता है और फिर वह अग्नि की ऑच सहन करता है।

ਨਦਰਿ ਸਰਾਫ ਵੰਨੀ ਸਚੜਾਉ ॥
नदरि सराफ वंनी सचड़ाउ ॥
जब स्वर्ण सुन्दर बन जाता है तो वह सर्राफ की नजर में स्वीकार हो जाता है।

ਜਗਤੁ ਪਸੂ ਅਹੰ ਕਾਲੁ ਕਸਾਈ ॥
जगतु पसू अहं कालु कसाई ॥
यह जगत् पशु है और अभिमान रूपी काल कसाई है।

ਕਰਿ ਕਰਤੈ ਕਰਣੀ ਕਰਿ ਪਾਈ ॥
करि करतै करणी करि पाई ॥
परमात्मा ने जीवों को पैदा करके कर्मानुसार उनका भाग्य लिख दिया है अर्थात् जो जैसा करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है।

ਜਿਨਿ ਕੀਤੀ ਤਿਨਿ ਕੀਮਤਿ ਪਾਈ ॥
जिनि कीती तिनि कीमति पाई ॥
जिसने जगत्-रचना की है, वही इसकी कीमत कर सकता है।

ਹੋਰ ਕਿਆ ਕਹੀਐ ਕਿਛੁ ਕਹਣੁ ਨ ਜਾਈ ॥੧੮॥
होर किआ कहीऐ किछु कहणु न जाई ॥१८॥
अन्य क्या कहा जा सकता है, कुछ भी कहा नहीं जा सकता ॥ १८ ॥

ਖੋਜਤ ਖੋਜਤ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆ ॥
खोजत खोजत अम्रितु पीआ ॥
जिसने खोज-खोज कर नामामृत का पान किया है,

ਖਿਮਾ ਗਹੀ ਮਨੁ ਸਤਗੁਰਿ ਦੀਆ ॥
खिमा गही मनु सतगुरि दीआ ॥
उसने क्षमा-भावना ग्रहण करके मन सतगुरु को अर्पण कर दिया है।

ਖਰਾ ਖਰਾ ਆਖੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
खरा खरा आखै सभु कोइ ॥
अब हर कोई उसे श्रेष्ठ अथवा अच्छा कहता है,

ਖਰਾ ਰਤਨੁ ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਹੋਇ ॥
खरा रतनु जुग चारे होइ ॥
चारों युगों में वही शुद्ध रत्न होता है।

ਖਾਤ ਪੀਅੰਤ ਮੂਏ ਨਹੀ ਜਾਨਿਆ ॥
खात पीअंत मूए नही जानिआ ॥
जिन्होंने ईश्वर को नहीं समझा, वे खाते-पीते ही प्राण त्याग गए हैं।

ਖਿਨ ਮਹਿ ਮੂਏ ਜਾ ਸਬਦੁ ਪਛਾਨਿਆ ॥
खिन महि मूए जा सबदु पछानिआ ॥
जिन्होंने शब्द के रहस्य को पहचान लिया है, वे पल में अहम् प्रति मर गए हैं।

ਅਸਥਿਰੁ ਚੀਤੁ ਮਰਨਿ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥
असथिरु चीतु मरनि मनु मानिआ ॥
उनका चित स्थिर हो गया है, जिनका मन मृत्यु के लिए सहमत हो गया है।

ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਨਾਮੁ ਪਛਾਨਿਆ ॥੧੯॥
गुर किरपा ते नामु पछानिआ ॥१९॥
गुरु की कृपा से ही उन्हें नाम की पहचान हुई है ॥१६॥

ਗਗਨ ਗੰਭੀਰੁ ਗਗਨੰਤਰਿ ਵਾਸੁ ॥
गगन ग्मभीरु गगनंतरि वासु ॥
गगन की तरह सर्वव्यापक गहनगंभीर परमात्मा का निवास गगन रूपी हृदय में है।

ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਸੁਖ ਸਹਜਿ ਨਿਵਾਸੁ ॥
गुण गावै सुख सहजि निवासु ॥
जो उसका गुणगान करता है, वह सहज सुख भोगता रहता है।

ਗਇਆ ਨ ਆਵੈ ਆਇ ਨ ਜਾਇ ॥ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
गइआ न आवै आइ न जाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥
ऐसा जीव आवागमन से मुक्त हो जाता है। गुरु की कृपा से उसकी परमेश्वर में ही लगन लगी रहती है।

ਗਗਨੁ ਅਗੰਮੁ ਅਨਾਥੁ ਅਜੋਨੀ ॥
गगनु अगमु अनाथु अजोनी ॥
सर्वव्यापक ईश्वर अगम्य है, वह जन्म-मरण के चक्र से परे है, सबका मालिक है।

ਅਸਥਿਰੁ ਚੀਤੁ ਸਮਾਧਿ ਸਗੋਨੀ ॥
असथिरु चीतु समाधि सगोनी ॥
उसके ध्यान में समाधि लगाना उपयोगी है, जिससे मन स्थिर हो जाता है।

ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਚੇਤਿ ਫਿਰਿ ਪਵਹਿ ਨ ਜੂਨੀ ॥
हरि नामु चेति फिरि पवहि न जूनी ॥
हरि-नाम स्मरण करने से मनुष्य पुनः योनियों में नहीं पड़ता।

ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਰੁ ਹੋਰ ਨਾਮ ਬਿਹੂਨੀ ॥੨੦॥
गुरमति सारु होर नाम बिहूनी ॥२०॥
गुरुमत ही सर्वोपरि है और अन्य सब कुछ नामविहीन है॥ २०॥

ਘਰ ਦਰ ਫਿਰਿ ਥਾਕੀ ਬਹੁਤੇਰੇ ॥
घर दर फिरि थाकी बहुतेरे ॥
यहाँ आत्मा द्वारा संबोधन किया है कि मैं अनेक घरों-द्वारों पर भटक-भटक बहुत थक चुकी हूँ।

ਜਾਤਿ ਅਸੰਖ ਅੰਤ ਨਹੀ ਮੇਰੇ ॥
जाति असंख अंत नही मेरे ॥
मेरे जन्मों का कोई अंत नहीं, अनेक जातियों में मेरी असंख्य ही योनियां हो चुकी हैं।

ਕੇਤੇ ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਸੁਤ ਧੀਆ ॥
केते मात पिता सुत धीआ ॥
पूर्व जन्मों में मेरे कितने ही माता-पिता, पुत्र एवं पुत्रियां हो चुकी हैं।

ਕੇਤੇ ਗੁਰ ਚੇਲੇ ਫੁਨਿ ਹੂਆ ॥
केते गुर चेले फुनि हूआ ॥
मेरे कितने ही गुरु और फिर कितने ही मेरे अपने चेले हो चुके हैं,

ਕਾਚੇ ਗੁਰ ਤੇ ਮੁਕਤਿ ਨ ਹੂਆ ॥
काचे गुर ते मुकति न हूआ ॥
किन्तु कच्चे गुरु के कारण ही मेरी मुक्ति नहीं हुई।

ਕੇਤੀ ਨਾਰਿ ਵਰੁ ਏਕੁ ਸਮਾਲਿ ॥
केती नारि वरु एकु समालि ॥
यह बात हमेशा याद रखो कि जीव रूपी नारियां तो अनेक हैं, पर उन सबका मालिक परमात्मा ही है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਰਣੁ ਜੀਵਣੁ ਪ੍ਰਭ ਨਾਲਿ ॥
गुरमुखि मरणु जीवणु प्रभ नालि ॥
गुरुमुख जीव-स्त्रियों का जीवन-मरण प्रभु की इच्छा से ही होता है।

ਦਹ ਦਿਸ ਢੂਢਿ ਘਰੈ ਮਹਿ ਪਾਇਆ ॥
दह दिस ढूढि घरै महि पाइआ ॥
दसों दिशाओं में ढूंढ-ढूंढ कर मैंने पति-प्रभु को हृदय-घर में ही पा लिया है।

ਮੇਲੁ ਭਇਆ ਸਤਿਗੁਰੂ ਮਿਲਾਇਆ ॥੨੧॥
मेलु भइआ सतिगुरू मिलाइआ ॥२१॥
मेरा पति-परमेश्वर से मिलाप हो गया है, पर यह मिलन सतगुरु ने करवाया है।॥२१॥

ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਾਵੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੋਲੈ ॥
गुरमुखि गावै गुरमुखि बोलै ॥
गुरु-मुख परमात्मा का कीर्ति-गान करता है और उसका हीं नाम जपता है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਤੋਲਿ ਤੋੁਲਾਵੈ ਤੋਲੈ ॥
गुरमुखि तोलि तोलावै तोलै ॥
वहीं परख करता-करवाता है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਵੈ ਜਾਇ ਨਿਸੰਗੁ ॥
गुरमुखि आवै जाइ निसंगु ॥
वह निडर होकर आता जाता है और

ਪਰਹਰਿ ਮੈਲੁ ਜਲਾਇ ਕਲੰਕੁ ॥
परहरि मैलु जलाइ कलंकु ॥
मन की मैल दूर कर के कलंक को जला देता है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਦ ਬੇਦ ਬੀਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥
गुरु-मुख का शब्द वेदों का ज्ञान व चिंतन है और

ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਜਨੁ ਚਜੁ ਅਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि मजनु चजु अचारु ॥
यही शुभ आचरण-व्यवहार एवं तीर्थ स्नान है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹੈ ਸਾਰੁ ॥
गुरमुखि सबदु अम्रितु है सारु ॥
गुरु-मुख का शब्द अमृतमय सार तत्व है।

ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਵੈ ਪਾਰੁ ॥੨੨॥
नानक गुरमुखि पावै पारु ॥२२॥
है नानक ! गुरु-मुख संसार-सागर से पार हो जाता है॥२२॥

ਚੰਚਲੁ ਚੀਤੁ ਨ ਰਹਈ ਠਾਇ ॥
चंचलु चीतु न रहई ठाइ ॥
मनुष्य का चंचल चित टिक कर नहीं बैठता और

ਚੋਰੀ ਮਿਰਗੁ ਅੰਗੂਰੀ ਖਾਇ ॥
चोरी मिरगु अंगूरी खाइ ॥
मन रूपी मृग चोरी-चोरी विषय-विकार रूपी अंगूरी खाता रहता है।

ਚਰਨ ਕਮਲ ਉਰ ਧਾਰੇ ਚੀਤ ॥
चरन कमल उर धारे चीत ॥
जो व्यक्ति प्रभु के चरण हृदय में बसा लेता है,

ਚਿਰੁ ਜੀਵਨੁ ਚੇਤਨੁ ਨਿਤ ਨੀਤ ॥
चिरु जीवनु चेतनु नित नीत ॥
वह दीर्घायु वाला हो जाता हैं और नित्य माया से चेतन रहता है।

ਚਿੰਤਤ ਹੀ ਦੀਸੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
चिंतत ही दीसै सभु कोइ ॥
दुनिया में हर कोई इन्सान चिंतित ही दिखाई देता है,

ਚੇਤਹਿ ਏਕੁ ਤਹੀ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
चेतहि एकु तही सुखु होइ ॥
परन्तु जो परमात्मा को याद करता है, वह सुखी हो जाता है।

ਚਿਤਿ ਵਸੈ ਰਾਚੈ ਹਰਿ ਨਾਇ ॥
चिति वसै राचै हरि नाइ ॥
जो प्रभु-नाम को चित में बसा लेता है और उसमें ही लीन रहता है,

ਮੁਕਤਿ ਭਇਆ ਪਤਿ ਸਿਉ ਘਰਿ ਜਾਇ ॥੨੩॥
मुकति भइआ पति सिउ घरि जाइ ॥२३॥
उसकी मुक्ति हो जाती है और वह आदरपूर्वक प्रभु-दरबार में चला जाता हैं॥ २३॥

ਛੀਜੈ ਦੇਹ ਖੁਲੈ ਇਕ ਗੰਢਿ ॥
छीजै देह खुलै इक गंढि ॥
जब प्राणों की एक गांठ खुल जाती है तो देह नाश हो जाती है।

ਛੇਆ ਨਿਤ ਦੇਖਹੁ ਜਗਿ ਹੰਢਿ ॥
छेआ नित देखहु जगि हंढि ॥
जगत् में घूम कर देख लो, यह नित्य ही नाश हो रहा है।

ਧੂਪ ਛਾਵ ਜੇ ਸਮ ਕਰਿ ਜਾਣੈ ॥
धूप छाव जे सम करि जाणै ॥
यदि व्यक्ति दुख-सुख को एक समान समझे तो

ਬੰਧਨ ਕਾਟਿ ਮੁਕਤਿ ਘਰਿ ਆਣੈ ॥
बंधन काटि मुकति घरि आणै ॥
वह बन्धनों को काट कर मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

ਛਾਇਆ ਛੂਛੀ ਜਗਤੁ ਭੁਲਾਨਾ ॥
छाइआ छूछी जगतु भुलाना ॥
इस खोखली माया ने पूरे जगत् को कुमार्गगामी किया हुआ है।

ਲਿਖਿਆ ਕਿਰਤੁ ਧੁਰੇ ਪਰਵਾਨਾ ॥
लिखिआ किरतु धुरे परवाना ॥
जीवों का भाग्य प्रारम्भ से ही लिखा हुआ है।

ਛੀਜੈ ਜੋਬਨੁ ਜਰੂਆ ਸਿਰਿ ਕਾਲੁ ॥ ਕਾਇਆ ਛੀਜੈ ਭਈ ਸਿਬਾਲੁ ॥੨੪॥
छीजै जोबनु जरूआ सिरि कालु ॥ काइआ छीजै भई सिबालु ॥२४॥
जब मनुष्य का यौवन नाश हो जाता हैं तो बुढ़ापा आ जाता है और मृत्यु उसके सिर पर मंडराने लगती है। उसकी काया पानी के ऊपर काई की तरह क्षीण हो जाती है ॥२४॥

error: Content is protected !!