Hindi Page 940

ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਆਸਾ ਮਨਸਾ ਖਾਈ ॥
कितु बिधि आसा मनसा खाई ॥
तूने किस विधि द्वारा अपनी आशा एवं अभिलाषाओं को समाप्त कर लिया है और

ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਤਰਿ ਪਾਈ ॥
कितु बिधि जोति निरंतरि पाई ॥
किस विधि द्वारा परम-ज्योति प्राप्त कर ली है?

ਬਿਨੁ ਦੰਤਾ ਕਿਉ ਖਾਈਐ ਸਾਰੁ ॥
बिनु दंता किउ खाईऐ सारु ॥
दाँतों के बिना अहंत्व रूपी लोहा कैसे चबाया जा सकता है ?

ਨਾਨਕ ਸਾਚਾ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥੧੯॥
नानक साचा करहु बीचारु ॥१९॥
हे नानक ! इस बारे में सच्चा विचार करो ॥१९॥

ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਜਨਮੇ ਗਵਨੁ ਮਿਟਾਇਆ ॥
सतिगुर कै जनमे गवनु मिटाइआ ॥
(गुरु नानक देव जी उत्तर देते हैं कि) जब मैंने सतगुरु का आश्रय लेकर जीवन बदल लिया तो उसने मेरा आवागमन ही मिटा दिया।

ਅਨਹਤਿ ਰਾਤੇ ਇਹੁ ਮਨੁ ਲਾਇਆ ॥
अनहति राते इहु मनु लाइआ ॥
मेरा मन अनाहत शब्द में ही प्रवृत्त रहता है और

ਮਨਸਾ ਆਸਾ ਸਬਦਿ ਜਲਾਈ ॥
मनसा आसा सबदि जलाई ॥
ब्रह्म-शब्द द्वारा आशा-अभिलाषा को जला दिया है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਤਰਿ ਪਾਈ ॥
गुरमुखि जोति निरंतरि पाई ॥
मैंने गुरुमुख बनकर निरंतर प्रज्वलित परम-ज्योति प्राप्त कर ली है।

ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਮੇਟੇ ਖਾਈਐ ਸਾਰੁ ॥
त्रै गुण मेटे खाईऐ सारु ॥
जो माया के तीन गुणों को अपने मन से मिटा देता है, वही अहंत्व रूपी लोहे को चबाता है।

ਨਾਨਕ ਤਾਰੇ ਤਾਰਣਹਾਰੁ ॥੨੦॥
नानक तारे तारणहारु ॥२०॥
हे नानक ! तारनहार परमेश्वर स्वयं ही भवसागर से पार करा देता है॥ २० ॥

ਆਦਿ ਕਉ ਕਵਨੁ ਬੀਚਾਰੁ ਕਥੀਅਲੇ ਸੁੰਨ ਕਹਾ ਘਰ ਵਾਸੋ ॥
आदि कउ कवनु बीचारु कथीअले सुंन कहा घर वासो ॥
(सिद्धों ने पुनः पूछा-) सृष्टि-रचना के संबंध में आपका क्या विचार है और यह भी बताइए कि शून्य रूप में परम-सत्य का कहाँ वास था ?

ਗਿਆਨ ਕੀ ਮੁਦ੍ਰਾ ਕਵਨ ਕਥੀਅਲੇ ਘਟਿ ਘਟਿ ਕਵਨ ਨਿਵਾਸੋ ॥
गिआन की मुद्रा कवन कथीअले घटि घटि कवन निवासो ॥
ज्ञान की मुद्रा के बारे में आप क्या कहते हैं और घट-घट में किसका निवास है ?

ਕਾਲ ਕਾ ਠੀਗਾ ਕਿਉ ਜਲਾਈਅਲੇ ਕਿਉ ਨਿਰਭਉ ਘਰਿ ਜਾਈਐ ॥
काल का ठीगा किउ जलाईअले किउ निरभउ घरि जाईऐ ॥
काल की चोट से कैसे बचा जा सकता है? और निर्भय होकर सच्चे घर में कैसे जाया जाए ?

ਸਹਜ ਸੰਤੋਖ ਕਾ ਆਸਣੁ ਜਾਣੈ ਕਿਉ ਛੇਦੇ ਬੈਰਾਈਐ ॥
सहज संतोख का आसणु जाणै किउ छेदे बैराईऐ ॥
सहज संतोष का आसन कैसे जान लिया जाए और कामादिक चैरियों का नाश कैसे किया जा सकता है ?

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਹਉਮੈ ਬਿਖੁ ਮਾਰੈ ਤਾ ਨਿਜ ਘਰਿ ਹੋਵੈ ਵਾਸੋ ॥
गुर कै सबदि हउमै बिखु मारै ता निज घरि होवै वासो ॥
“(गुरु नानक देव जी उत्तर देते हैं कि) जो व्यक्ति गुरु के शब्द द्वारा अहम् रूपी विष को समाप्त कर देता है, उसका सच्चे घर में निवास हो जाता है।

ਜਿਨਿ ਰਚਿ ਰਚਿਆ ਤਿਸੁ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੈ ਨਾਨਕੁ ਤਾ ਕਾ ਦਾਸੋ ॥੨੧॥
जिनि रचि रचिआ तिसु सबदि पछाणै नानकु ता का दासो ॥२१॥
जिसने यह सृष्टि रचना की है, जो उसे शब्द द्वारा पहचान लेता है, नानक तो उसका दास है॥ २१॥

ਕਹਾ ਤੇ ਆਵੈ ਕਹਾ ਇਹੁ ਜਾਵੈ ਕਹਾ ਇਹੁ ਰਹੈ ਸਮਾਈ ॥
कहा ते आवै कहा इहु जावै कहा इहु रहै समाई ॥
(सिद्धों ने पुनः प्रश्न किया कि) यह जीव कहाँ से आता है और कहीं चला जाता है ? आने से पूर्व एवं जाने के बाद यह कहाँ समाया रहता है ?

ਏਸੁ ਸਬਦ ਕਉ ਜੋ ਅਰਥਾਵੈ ਤਿਸੁ ਗੁਰ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਈ ॥
एसु सबद कउ जो अरथावै तिसु गुर तिलु न तमाई ॥
जो इस शब्द के अर्थ समझा देता है, उस गुरु को तिल मात्र भी लोभ नहीं है।

ਕਿਉ ਤਤੈ ਅਵਿਗਤੈ ਪਾਵੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਗੈ ਪਿਆਰੋ ॥
किउ ततै अविगतै पावै गुरमुखि लगै पिआरो ॥
जीव कैसे परम तत्व परमात्मा को प्राप्त करे और गुरु के माध्यम से उसका किस तरह सत्य से प्रेम हो ?

ਆਪੇ ਸੁਰਤਾ ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਬੀਚਾਰੋ ॥
आपे सुरता आपे करता कहु नानक बीचारो ॥
हे नानक ! उस परमेश्वर के बारे में अपना विचार बताओ, जो स्वयं ही जीवों को पैदा करने वाला है और स्वयं ही दुख-सुख सुनने वाला है।

ਹੁਕਮੇ ਆਵੈ ਹੁਕਮੇ ਜਾਵੈ ਹੁਕਮੇ ਰਹੈ ਸਮਾਈ ॥
हुकमे आवै हुकमे जावै हुकमे रहै समाई ॥
“(गुरु नानक उत्तर देते हैं कि) जीव परमात्मा के हुक्म से जन्म लेता है, उसके हुक्म से ही चला जाता है और उसके हुक्म से ही सत्य में समाया रहता है।

ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਸਾਚੁ ਕਮਾਵੈ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਸਬਦੇ ਪਾਈ ॥੨੨॥
पूरे गुर ते साचु कमावै गति मिति सबदे पाई ॥२२॥
जीव पूर्ण गुरु द्वारा ही सत्कर्म करता है और शब्द से ही सत्य की गति को समझा लेता है॥ २३ ॥

ਆਦਿ ਕਉ ਬਿਸਮਾਦੁ ਬੀਚਾਰੁ ਕਥੀਅਲੇ ਸੁੰਨ ਨਿਰੰਤਰਿ ਵਾਸੁ ਲੀਆ ॥
आदि कउ बिसमादु बीचारु कथीअले सुंन निरंतरि वासु लीआ ॥
(पिछले पूछे प्रश्नों के उत्तर देते हुए गुरु जी सिद्धों को बताते हैं कि) सृष्टि-रचना के बारे में मेरा विचार यह है कि उसे अद्भुत ही कहा जा सकता है। ईश्वर ने निरन्तर शून्यावस्था में निवास किया हुआ था।

ਅਕਲਪਤ ਮੁਦ੍ਰਾ ਗੁਰ ਗਿਆਨੁ ਬੀਚਾਰੀਅਲੇ ਘਟਿ ਘਟਿ ਸਾਚਾ ਸਰਬ ਜੀਆ ॥
अकलपत मुद्रा गुर गिआनु बीचारीअले घटि घटि साचा सरब जीआ ॥
गुरु का ज्ञान ही निर्विकल्प मुद्रा है, जिसका विचार करने से यह पता लगता है कि सब जीवों का सच्चा परमेश्वर घट-घट में व्याप्त है।

ਗੁਰ ਬਚਨੀ ਅਵਿਗਤਿ ਸਮਾਈਐ ਤਤੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਸਹਜਿ ਲਹੈ ॥
गुर बचनी अविगति समाईऐ ततु निरंजनु सहजि लहै ॥
जब जीव गुरु के वचनों द्वारा प्रभु में लीन हो जाता है तो वह सहज ही परमतत्व निरंजन को पा लेता है।

ਨਾਨਕ ਦੂਜੀ ਕਾਰ ਨ ਕਰਣੀ ਸੇਵੈ ਸਿਖੁ ਸੁ ਖੋਜਿ ਲਹੈ ॥
नानक दूजी कार न करणी सेवै सिखु सु खोजि लहै ॥
नानक कहते हैं कि जो शिष्य गुरु की सेवा करता है, वह खोज करके सत्य को प्राप्त कर लेता है और उसे अन्य कार्य नहीं करना चाहिए।

ਹੁਕਮੁ ਬਿਸਮਾਦੁ ਹੁਕਮਿ ਪਛਾਣੈ ਜੀਅ ਜੁਗਤਿ ਸਚੁ ਜਾਣੈ ਸੋਈ ॥
हुकमु बिसमादु हुकमि पछाणै जीअ जुगति सचु जाणै सोई ॥
परमात्मा का हुक्म विस्मय है, जो उसके हुक्म को पहचान लेता है, वह इस युक्ति द्वारा उस सत्य को जान लेता है।

ਆਪੁ ਮੇਟਿ ਨਿਰਾਲਮੁ ਹੋਵੈ ਅੰਤਰਿ ਸਾਚੁ ਜੋਗੀ ਕਹੀਐ ਸੋਈ ॥੨੩॥
आपु मेटि निरालमु होवै अंतरि साचु जोगी कहीऐ सोई ॥२३॥
वही सच्चा योगी कहा जाता है, जो अपने अहम् को मिटाकर दुनिया से निर्लिप्त हो जाता है और उसके अन्तर्मन में सत्य का निवास हो जाता है। ॥२३॥

ਅਵਿਗਤੋ ਨਿਰਮਾਇਲੁ ਉਪਜੇ ਨਿਰਗੁਣ ਤੇ ਸਰਗੁਣੁ ਥੀਆ ॥
अविगतो निरमाइलु उपजे निरगुण ते सरगुणु थीआ ॥
(गुरु नानक देव जी सिद्धों को समझाते हैं कि) निर्मल परमात्मा अविगत रूप से पैदा हुआ है और वह अपने निर्गुण रूप से सगुण स्वरूप हो गया।

ਸਤਿਗੁਰ ਪਰਚੈ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਈਐ ਸਾਚੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ਲੀਆ ॥
सतिगुर परचै परम पदु पाईऐ साचै सबदि समाइ लीआ ॥
यदि जीव का मन सतगुरु में लीन रहे तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और वह सच्चे-शब्द में ही विलीन हो जाता है।

ਏਕੇ ਕਉ ਸਚੁ ਏਕਾ ਜਾਣੈ ਹਉਮੈ ਦੂਜਾ ਦੂਰਿ ਕੀਆ ॥
एके कउ सचु एका जाणै हउमै दूजा दूरि कीआ ॥
वह उस एक सत्य को जानता है और अपना अहम् एवं द्वैतभाव को दूर कर देता है।

ਸੋ ਜੋਗੀ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਪਛਾਣੈ ਅੰਤਰਿ ਕਮਲੁ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ਥੀਆ ॥
सो जोगी गुर सबदु पछाणै अंतरि कमलु प्रगासु थीआ ॥
जो शब्द-गुरु को पहचान लेता है, वही सच्चा योगी है और उसके हृदय-कमल में परम-ज्योति का प्रकाश हो जाता है।

ਜੀਵਤੁ ਮਰੈ ਤਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਸੂਝੈ ਅੰਤਰਿ ਜਾਣੈ ਸਰਬ ਦਇਆ ॥
जीवतु मरै ता सभु किछु सूझै अंतरि जाणै सरब दइआ ॥
यदि जीव अपने अहंत्व को समाप्त कर दे तो उसे सबकुछ सूझ जाता है और अन्तर्मन में सब पर दया करने वाले ईश्वर को जान लेता है।

ਨਾਨਕ ਤਾ ਕਉ ਮਿਲੈ ਵਡਾਈ ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ਸਰਬ ਜੀਆ ॥੨੪॥
नानक ता कउ मिलै वडाई आपु पछाणै सरब जीआ ॥२४॥
नानक कहते हैं कि जो सब जीवों में बसने वाले परमात्मा को पहचान लेता है, उसे ही कीर्ति प्राप्त होती है।॥ २४ ॥

ਸਾਚੌ ਉਪਜੈ ਸਾਚਿ ਸਮਾਵੈ ਸਾਚੇ ਸੂਚੇ ਏਕ ਮਇਆ ॥
साचौ उपजै साचि समावै साचे सूचे एक मइआ ॥
(गुरु जी बताते हैं कि) जीव परम सत्य से उत्पन्न होता है और सत्य में ही विलीन हो जाता है और सत्य से मिलकर पावन होकर उसका ही रूप बन जाता है।

ਝੂਠੇ ਆਵਹਿ ਠਵਰ ਨ ਪਾਵਹਿ ਦੂਜੈ ਆਵਾ ਗਉਣੁ ਭਇਆ ॥
झूठे आवहि ठवर न पावहि दूजै आवा गउणु भइआ ॥
झूठे जीव जन्म लेकर आते हैं किन्तु द्वैतभाव के कारण उन्हें कोई सुख का स्थान नहीं मिलता और आवागमन का चक्र ही पड़ा रहता है।

ਆਵਾ ਗਉਣੁ ਮਿਟੈ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਆਪੇ ਪਰਖੈ ਬਖਸਿ ਲਇਆ ॥
आवा गउणु मिटै गुर सबदी आपे परखै बखसि लइआ ॥
उनका आवागमन का चक्र गुरु के शब्द द्वारा ही मिटता है। ईश्वर स्वयं ही अच्छे बुरे जीवों की परख करता है और स्वयं ही उन्हें क्षमा कर देता है।

ਏਕਾ ਬੇਦਨ ਦੂਜੈ ਬਿਆਪੀ ਨਾਮੁ ਰਸਾਇਣੁ ਵੀਸਰਿਆ ॥
एका बेदन दूजै बिआपी नामु रसाइणु वीसरिआ ॥
द्वैतभाव के कारण सब जीवों को एक ही वेदना लगी हुई है कि उन्हें नाम-रसायन भूल गया है।

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