ਤਿਥੈ ਤੂ ਸਮਰਥੁ ਜਿਥੈ ਕੋਇ ਨਾਹਿ ॥
तिथै तू समरथु जिथै कोइ नाहि ॥
हे ईश्वर ! जहाँ कोई (सहायक) नहीं है, वहाँ तू ही समर्थ है।
ਓਥੈ ਤੇਰੀ ਰਖ ਅਗਨੀ ਉਦਰ ਮਾਹਿ ॥
ओथै तेरी रख अगनी उदर माहि ॥
माता की गर्भ-अग्नि में तू ही जीव की रक्षा करता है और
ਸੁਣਿ ਕੈ ਜਮ ਕੇ ਦੂਤ ਨਾਇ ਤੇਰੈ ਛਡਿ ਜਾਹਿ ॥
सुणि कै जम के दूत नाइ तेरै छडि जाहि ॥
तेरे नाम को सुनकर यम के दूत छोड़कर चले जाते हैं।
ਭਉਜਲੁ ਬਿਖਮੁ ਅਸਗਾਹੁ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਪਾਰਿ ਪਾਹਿ ॥
भउजलु बिखमु असगाहु गुर सबदी पारि पाहि ॥
इस विषम एवं असीम भवसागर से तो शब्द-गुरु के द्वारा ही पार होना संभव है।
ਜਿਨ ਕਉ ਲਗੀ ਪਿਆਸ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸੇਇ ਖਾਹਿ ॥
जिन कउ लगी पिआस अम्रितु सेइ खाहि ॥
नामामृत वही पान करते हैं, जिन् इसकी तीव्र लालसा लगी होती है।
ਕਲਿ ਮਹਿ ਏਹੋ ਪੁੰਨੁ ਗੁਣ ਗੋਵਿੰਦ ਗਾਹਿ ॥
कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि ॥
कलियुग में केवल एक यही पुण्य-कर्म है कि गोविंद का गुणगान करते रहो।
ਸਭਸੈ ਨੋ ਕਿਰਪਾਲੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲੇ ਸਾਹਿ ਸਾਹਿ ॥
सभसै नो किरपालु सम्हाले साहि साहि ॥
कृपानिधान सब जीवों की श्वास-श्वास से संभाल करता है।
ਬਿਰਥਾ ਕੋਇ ਨ ਜਾਇ ਜਿ ਆਵੈ ਤੁਧੁ ਆਹਿ ॥੯॥
बिरथा कोइ न जाइ जि आवै तुधु आहि ॥९॥
हे परमेश्वर ! जो जीव जिस कामना से भी तेरे द्वार पर आता है, वह खाली हाथ नहीं जाता॥ ६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥
सलोक मः ५ ॥
सलोक मः ५॥
ਦੂਜਾ ਤਿਸੁ ਨ ਬੁਝਾਇਹੁ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਨਾਮੁ ਦੇਹੁ ਆਧਾਰੁ ॥
दूजा तिसु न बुझाइहु पारब्रहम नामु देहु आधारु ॥
हे परब्रह्मा, जीव को नाम रूपी आधार ही दो और उसे कोई अन्य सहारा मत बताओ।
ਅਗਮੁ ਅਗੋਚਰੁ ਸਾਹਿਬੋ ਸਮਰਥੁ ਸਚੁ ਦਾਤਾਰੁ ॥
अगमु अगोचरु साहिबो समरथु सचु दातारु ॥
हे मालिक! तू अगम्य, अगोचर, सर्वकला समर्थ और सच्चा दाता है।
ਤੂ ਨਿਹਚਲੁ ਨਿਰਵੈਰੁ ਸਚੁ ਸਚਾ ਤੁਧੁ ਦਰਬਾਰੁ ॥
तू निहचलु निरवैरु सचु सचा तुधु दरबारु ॥
तू निश्चल, निर्वेर एवं सदैव शाश्वत है और तेरा दरबार भी सच्चा है।
ਕੀਮਤਿ ਕਹਣੁ ਨ ਜਾਈਐ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰਾਵਾਰੁ ॥
कीमति कहणु न जाईऐ अंतु न पारावारु ॥
तेरी महिमा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता और न ही तेरा अंत एवं कोई आर-पार है।
ਪ੍ਰਭੁ ਛੋਡਿ ਹੋਰੁ ਜਿ ਮੰਗਣਾ ਸਭੁ ਬਿਖਿਆ ਰਸ ਛਾਰੁ ॥
प्रभु छोडि होरु जि मंगणा सभु बिखिआ रस छारु ॥
प्रभु को छोड़कर अन्य कुछ मांगना व्यर्थ है और माया के सभी रसों के समान धूल बराबर है।
ਸੇ ਸੁਖੀਏ ਸਚੁ ਸਾਹ ਸੇ ਜਿਨ ਸਚਾ ਬਿਉਹਾਰੁ ॥
से सुखीए सचु साह से जिन सचा बिउहारु ॥
जिन जीवों ने सत्य-नाम का व्यापार किया है, वही सच्चे साहूकार एवं सुखी हैं।
ਜਿਨਾ ਲਗੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਪ੍ਰਭ ਨਾਮ ਸਹਜ ਸੁਖ ਸਾਰੁ ॥
जिना लगी प्रीति प्रभ नाम सहज सुख सारु ॥
जिन्हें प्रभु नाम से प्रीति लगी हुई है, उन्हें सहज सुख की प्राप्ति है ।
ਨਾਨਕ ਇਕੁ ਆਰਾਧੇ ਸੰਤਨ ਰੇਣਾਰੁ ॥੧॥
नानक इकु आराधे संतन रेणारु ॥१॥
हे नानक ऐसे संतो की चरण-धूल लेकर परमात्मा की ही आराधना करते रहते है।॥ १॥
ਮਃ ੫ ॥
मः ५ ॥
महला ५॥
ਅਨਦ ਸੂਖ ਬਿਸ੍ਰਾਮ ਨਿਤ ਹਰਿ ਕਾ ਕੀਰਤਨੁ ਗਾਇ ॥
अनद सूख बिस्राम नित हरि का कीरतनु गाइ ॥
नित्य भगवान का कीर्ति-गान करने से आनंद, सुख एवं शान्ति प्राप्त होती है।
ਅਵਰ ਸਿਆਣਪ ਛਾਡਿ ਦੇਹਿ ਨਾਨਕ ਉਧਰਸਿ ਨਾਇ ॥੨॥
अवर सिआणप छाडि देहि नानक उधरसि नाइ ॥२॥
हे नानक ! अन्य सभी चतुराईयां छोड़ दीजिए, चूंकि हरि-नाम से ही उद्धार होता है। २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਨਾ ਤੂ ਆਵਹਿ ਵਸਿ ਬਹੁਤੁ ਘਿਣਾਵਣੇ ॥
ना तू आवहि वसि बहुतु घिणावणे ॥
हे परमात्मा, बहुत गिड़गिड़ाने से भी तू वश में नहीं आता,
ਨਾ ਤੂ ਆਵਹਿ ਵਸਿ ਬੇਦ ਪੜਾਵਣੇ ॥
ना तू आवहि वसि बेद पड़ावणे ॥
वेदों का अध्ययन करने से भी तू वश में नहीं आता।
ਨਾ ਤੂ ਆਵਹਿ ਵਸਿ ਤੀਰਥਿ ਨਾਈਐ ॥
ना तू आवहि वसि तीरथि नाईऐ ॥
यदि तीर्थों पर स्नान किया जाए और
ਨਾ ਤੂ ਆਵਹਿ ਵਸਿ ਧਰਤੀ ਧਾਈਐ ॥
ना तू आवहि वसि धरती धाईऐ ॥
धरती पर भ्रमण किया जाए तो भी तू वश में नहीं आता।
ਨਾ ਤੂ ਆਵਹਿ ਵਸਿ ਕਿਤੈ ਸਿਆਣਪੈ ॥
ना तू आवहि वसि कितै सिआणपै ॥
किसी प्रकार की चतुराई करने से भी तुझे वश में नहीं किया जा सकता,
ਨਾ ਤੂ ਆਵਹਿ ਵਸਿ ਬਹੁਤਾ ਦਾਨੁ ਦੇ ॥
ना तू आवहि वसि बहुता दानु दे ॥
बहुत दान देने से भी तू किसी के वश में नहीं आता।
ਸਭੁ ਕੋ ਤੇਰੈ ਵਸਿ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰਾ ॥
सभु को तेरै वसि अगम अगोचरा ॥
हे अगम्य-अगोचर, मालिक! सब कुछ तेरे ही वश में है,
ਤੂ ਭਗਤਾ ਕੈ ਵਸਿ ਭਗਤਾ ਤਾਣੁ ਤੇਰਾ ॥੧੦॥
तू भगता कै वसि भगता ताणु तेरा ॥१०॥
परन्तु तू भक्तो के वश में है और तेरे भक्तो के पास तेरा ही दिया हुआ बल है।॥ १०॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੫ ॥
सलोक मः ५ ॥
श्लोक महला ५॥
ਆਪੇ ਵੈਦੁ ਆਪਿ ਨਾਰਾਇਣੁ ॥
आपे वैदु आपि नाराइणु ॥
हे नारायण ! तू स्वयं ही (सब दुख-दर्द दूर करने वाला) वैद्य है।
ਏਹਿ ਵੈਦ ਜੀਅ ਕਾ ਦੁਖੁ ਲਾਇਣ ॥
एहि वैद जीअ का दुखु लाइण ॥
यह दुनिया के वैद्य तो जीवों को दिल का दुख लगा देते हैं।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਖਾਇਣ ॥
गुर का सबदु अम्रित रसु खाइण ॥
गुरु का शब्द ही भोग योग्य अमृतमय रस है ।
ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਤਿਸ ਕੇ ਸਭਿ ਦੂਖ ਮਿਟਾਇਣ ॥੧॥
नानक जिसु मनि वसै तिस के सभि दूख मिटाइण ॥१॥
हे नानक जिसके मान में (शब्द गुरु ) स्थिर हो जाता है उसके सभी दुःख दर्द मिट जाते है॥१॥
ਮਃ ੫ ॥
मः ५ ॥
महला ५ ॥
ਹੁਕਮਿ ਉਛਲੈ ਹੁਕਮੇ ਰਹੈ ॥
हुकमि उछलै हुकमे रहै ॥
परमात्मा के हुक्म में ही जीव कभी उछलता है और हुक्मानुसार ही स्थिर रहता है।
ਹੁਕਮੇ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਸਮ ਕਰਿ ਸਹੈ ॥
हुकमे दुखु सुखु सम करि सहै ॥
उसके हुक्म में ही दुख-सुख को एक समान समझकर सहन करता है और
ਹੁਕਮੇ ਨਾਮੁ ਜਪੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥ ਨਾਨਕ ਜਿਸ ਨੋ ਹੋਵੈ ਦਾਤਿ ॥
हुकमे नामु जपै दिनु राति ॥ नानक जिस नो होवै दाति ॥
उसके हुक्म के अंतर्गत ही दिन-रात नाम जपता रहता है। हे नानक जिसे वरदान देता है वही नाम जपता है।
ਹੁਕਮਿ ਮਰੈ ਹੁਕਮੇ ਹੀ ਜੀਵੈ ॥
हुकमि मरै हुकमे ही जीवै ॥
हुक्म के अन्तर्गत ही जीव की मृत्यु होती है और हुक्म से ही वह दुनिया में जीता है।
ਹੁਕਮੇ ਨਾਨੑਾ ਵਡਾ ਥੀਵੈ ॥
हुकमे नान्हा वडा थीवै ॥
उसके हुक्म से जीव छोटा (गरीब) एवं बड़ा (धनवान) होता है और
ਹੁਕਮੇ ਸੋਗ ਹਰਖ ਆਨੰਦ ॥
हुकमे सोग हरख आनंद ॥
उसके हुक्मानुसार ही जीव को शोक, हर्ष एवं आनंद प्राप्त होता है।
ਹੁਕਮੇ ਜਪੈ ਨਿਰੋਧਰ ਗੁਰਮੰਤ ॥
हुकमे जपै निरोधर गुरमंत ॥
उसके हुक्म में ही जीव उद्धारक गुरु-मंत्र को जपता है।
ਹੁਕਮੇ ਆਵਣੁ ਜਾਣੁ ਰਹਾਏ ॥ ਨਾਨਕ ਜਾ ਕਉ ਭਗਤੀ ਲਾਏ ॥੨॥
हुकमे आवणु जाणु रहाए ॥ नानक जा कउ भगती लाए ॥२॥
हे नानक ! उसके हुक्म से उस व्यक्ति का जन्म-मरण का चक्र मिट जाता है जिस व्यक्ति को परमात्मा भक्ति में लगा देता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਹਉ ਤਿਸੁ ਢਾਢੀ ਕੁਰਬਾਣੁ ਜਿ ਤੇਰਾ ਸੇਵਦਾਰੁ ॥
हउ तिसु ढाढी कुरबाणु जि तेरा सेवदारु ॥
हे परमेश्वर ! मैं उस ढाढी (गायक) पर कुर्बान जाता हूँ, जो तेरा सेवक है।
ਹਉ ਤਿਸੁ ਢਾਢੀ ਬਲਿਹਾਰ ਜਿ ਗਾਵੈ ਗੁਣ ਅਪਾਰ ॥
हउ तिसु ढाढी बलिहार जि गावै गुण अपार ॥
मैं उस ढाढ़ी पर न्यौछावर हूँ, जो तेरे अपार गुण गाता रहता है।
ਸੋ ਢਾਢੀ ਧਨੁ ਧੰਨੁ ਜਿਸੁ ਲੋੜੇ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
सो ढाढी धनु धंनु जिसु लोड़े निरंकारु ॥
वह ढाढ़ी धन्य है, जिसे निराकार चाहता है।
ਸੋ ਢਾਢੀ ਭਾਗਠੁ ਜਿਸੁ ਸਚਾ ਦੁਆਰ ਬਾਰੁ ॥
सो ढाढी भागठु जिसु सचा दुआर बारु ॥
वह ढाढ़ी भाग्यवान है जिसे परमात्मा का सच्चा द्वार प्राप्त है
ਓਹੁ ਢਾਢੀ ਤੁਧੁ ਧਿਆਇ ਕਲਾਣੇ ਦਿਨੁ ਰੈਣਾਰ ॥
ओहु ढाढी तुधु धिआइ कलाणे दिनु रैणार ॥
वह ढाढ़ी तेरा ही ध्यान करता है और दिन रात तेरे कल्याणकारी गुण गाता रहता है
ਮੰਗੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਨ ਆਵੈ ਕਦੇ ਹਾਰਿ ॥
मंगै अम्रित नामु न आवै कदे हारि ॥
वह नाम अमृत की कामना करता है और जीवन में कभी पराजित नहीं होता।
ਕਪੜੁ ਭੋਜਨੁ ਸਚੁ ਰਹਦਾ ਲਿਵੈ ਧਾਰ ॥
कपड़ु भोजनु सचु रहदा लिवै धार ॥
तेरा सत्य-नाम ही उसका भोजन एवं वस्त्र हैं और तेरे ध्यान में ही लीन रहता है।
ਸੋ ਢਾਢੀ ਗੁਣਵੰਤੁ ਜਿਸ ਨੋ ਪ੍ਰਭ ਪਿਆਰੁ ॥੧੧॥
सो ढाढी गुणवंतु जिस नो प्रभ पिआरु ॥११॥
सो ऐसा ढाढी ही गुणवान् है, जिसे प्रभु से प्रेम है।॥११॥