Hindi Page 968

ਸੋ ਟਿਕਾ ਸੋ ਬੈਹਣਾ ਸੋਈ ਦੀਬਾਣੁ ॥ ਪਿਯੂ ਦਾਦੇ ਜੇਵਿਹਾ ਪੋਤਾ ਪਰਵਾਣੁ ॥
सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ॥
“(गुरु अमरदास जी को भी) वही गुरुयाई का तिलक, वही सिंहासन एवं वही दरबार मिला। अपने पिता (गुरु अंगद देव) एवं दादा (गुरु नानक देव) सरीखा होने के कारण पौत्र गुरु अमरदास सारी संगत को गुरु रूप में पूजनीय हो गया,

ਜਿਨਿ ਬਾਸਕੁ ਨੇਤ੍ਰੈ ਘਤਿਆ ਕਰਿ ਨੇਹੀ ਤਾਣੁ ॥
जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेही ताणु ॥
जिसने अपने प्रेम बल से मन रूपी वासुकि नाग को रस्सी बनाया

ਜਿਨਿ ਸਮੁੰਦੁ ਵਿਰੋਲਿਆ ਕਰਿ ਮੇਰੁ ਮਧਾਣੁ ॥
जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ॥
और अपने ध्यान को सुमेर पर्वत रूपी मंथनी बनाकर नाम रूपी क्षीर सागर का मंथन किया।

ਚਉਦਹ ਰਤਨ ਨਿਕਾਲਿਅਨੁ ਕੀਤੋਨੁ ਚਾਨਾਣੁ ॥
चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ॥
उसने क्षीर सागर में से चौदह रत्न सरीखे अमूल्य चौदह गुण निकाल लिए औरं सारे जगत् में ज्ञान का प्रकाश फैला दिया।

ਘੋੜਾ ਕੀਤੋ ਸਹਜ ਦਾ ਜਤੁ ਕੀਓ ਪਲਾਣੁ ॥
घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ॥
गुरु अमरदास जी ने सहजावस्था को अपना घोड़ा बनाकर ब्रह्मचार्य को उस घोड़े की काठी बनाया है।

ਧਣਖੁ ਚੜਾਇਓ ਸਤ ਦਾ ਜਸ ਹੰਦਾ ਬਾਣੁ ॥
धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ॥
उन्होंने सत्य रूपी धनुष में परमात्मा का यश रूपी बाण साधा है।

ਕਲਿ ਵਿਚਿ ਧੂ ਅੰਧਾਰੁ ਸਾ ਚੜਿਆ ਰੈ ਭਾਣੁ ॥
कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ॥
इस कलियुग में अज्ञान रूपी घोर अंधकार था, पर गुरु का ज्ञान रूपी किरणों वाला सूर्योदय हो गया है।

ਸਤਹੁ ਖੇਤੁ ਜਮਾਇਓ ਸਤਹੁ ਛਾਵਾਣੁ ॥
सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ॥
गुरु जी ने अपने सत्य-आचरण द्वारा अपने शरीर रूपी खेत में नाम रूपी फसल पैदा की है और सत्य-आचरण द्वारा ही इस फसल को सूखने से बचाव के लिए छाँव की है।

ਨਿਤ ਰਸੋਈ ਤੇਰੀਐ ਘਿਉ ਮੈਦਾ ਖਾਣੁ ॥
नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ॥
हे गुरु अमरदास ! सिक्ख संगत नित्य तेरी रसोई में से घी एवं मैदे से पकाया हुआ भोजन करती है।

ਚਾਰੇ ਕੁੰਡਾਂ ਸੁਝੀਓਸੁ ਮਨ ਮਹਿ ਸਬਦੁ ਪਰਵਾਣੁ ॥
चारे कुंडां सुझीओसु मन महि सबदु परवाणु ॥
उसे चारों दिशाओं (में व्यापक परमात्मा) की सूझ हो गई है जिसने मन में शब्द को स्थित किया है।

ਆਵਾ ਗਉਣੁ ਨਿਵਾਰਿਓ ਕਰਿ ਨਦਰਿ ਨੀਸਾਣੁ ॥
आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ॥
तूने कृपा-दृष्टि करके जिसे प्रभु दरबार में जाने के लिए नाम रूपी परवाना दिया है, उसका आवागमन ही मिटा दिया है।

ਅਉਤਰਿਆ ਅਉਤਾਰੁ ਲੈ ਸੋ ਪੁਰਖੁ ਸੁਜਾਣੁ ॥
अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ॥
वह चतुर परमपुरुष स्वयं अवतार लेकर जगत् में आया है।

ਝਖੜਿ ਵਾਉ ਨ ਡੋਲਈ ਪਰਬਤੁ ਮੇਰਾਣੁ ॥
झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ॥
गुरु जी आँधी एवं तूफान में भी नहीं डगमगाते और सुमेर पर्वत की तरह अटल हैं।

ਜਾਣੈ ਬਿਰਥਾ ਜੀਅ ਕੀ ਜਾਣੀ ਹੂ ਜਾਣੁ ॥
जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ॥
हे गुरु ! तू अन्तर्यामी है और जीवों की हर प्रकार की पीड़ा को जानता है।

ਕਿਆ ਸਾਲਾਹੀ ਸਚੇ ਪਾਤਿਸਾਹ ਜਾਂ ਤੂ ਸੁਘੜੁ ਸੁਜਾਣੁ ॥
किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ॥
हे सच्चे पातशाह सतगुरु ! जब तू सबकुछ जानने वाला एवं चतुर है, फिर मैं तेरी क्या स्तुति कर सकता हूँ।

ਦਾਨੁ ਜਿ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਵਸੀ ਸੋ ਸਤੇ ਦਾਣੁ ॥
दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ॥
हे सतगुरु ! जो दान तुझे उपयुक्त लगता है, वही दान मुझ सते डूम को भी प्रदान कर।

ਨਾਨਕ ਹੰਦਾ ਛਤ੍ਰੁ ਸਿਰਿ ਉਮਤਿ ਹੈਰਾਣੁ ॥
नानक हंदा छत्रु सिरि उमति हैराणु ॥
तेरे सिर पर गुरु नानक का छत्र झूल रहा है और सारी सिक्ख संगत देख-देखकर हैरान हो रही है।

ਸੋ ਟਿਕਾ ਸੋ ਬੈਹਣਾ ਸੋਈ ਦੀਬਾਣੁ ॥
सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥
वही गुरुयाई का तिलक, वही सिंहासन एवं वही दरबार गुरु अमरदास को मिला है,

ਪਿਯੂ ਦਾਦੇ ਜੇਵਿਹਾ ਪੋਤ੍ਰਾ ਪਰਵਾਣੁ ॥੬॥
पियू दादे जेविहा पोत्रा परवाणु ॥६॥
अपने पिता (गुरु अंगद देव) और दादा (गुरु नानक देव जी) सरीखा पौत्र गुरु अमरदास गुरु रूप में सिक्ख संगत में पूजनीय हो गया॥ ६॥

ਧੰਨੁ ਧੰਨੁ ਰਾਮਦਾਸ ਗੁਰੁ ਜਿਨਿ ਸਿਰਿਆ ਤਿਨੈ ਸਵਾਰਿਆ ॥
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ॥
हे गुरु रामदास ! तू घन्य-धन्य है, जिस ईश्वर ने तेरी रचना की है, उसने ही तुझे यश प्रदान किया है।

ਪੂਰੀ ਹੋਈ ਕਰਾਮਾਤਿ ਆਪਿ ਸਿਰਜਣਹਾਰੈ ਧਾਰਿਆ ॥
पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ॥
सृजनहार परमेश्वर की करामात तुझे गुरु रूप में स्थापित करके पूरी हो गई है।

ਸਿਖੀ ਅਤੈ ਸੰਗਤੀ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਕਰਿ ਨਮਸਕਾਰਿਆ ॥
सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ ॥
सिक्खों एवं संगतों ने तुझे परब्रहा का रूप मानकर प्रणाम किया है।

ਅਟਲੁ ਅਥਾਹੁ ਅਤੋਲੁ ਤੂ ਤੇਰਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰਾਵਾਰਿਆ ॥
अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ॥
तू अटल, अथाह एवं अतुलनीय है, तेरा अंत एवं आर-पार कोई भी पा नहीं सका।

ਜਿਨੑੀ ਤੂੰ ਸੇਵਿਆ ਭਾਉ ਕਰਿ ਸੇ ਤੁਧੁ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰਿਆ ॥
जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ॥
जिन्होंने श्रद्धापूर्वक तेरी सेवा की है, तूने उनका उद्धार कर दिया है।

ਲਬੁ ਲੋਭੁ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਮੋਹੁ ਮਾਰਿ ਕਢੇ ਤੁਧੁ ਸਪਰਵਾਰਿਆ ॥
लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ॥
तूने सपरिवार काम-क्रोध, लोभ-लालच एवं मोह को समाप्त करके निकाल दिया है।

ਧੰਨੁ ਸੁ ਤੇਰਾ ਥਾਨੁ ਹੈ ਸਚੁ ਤੇਰਾ ਪੈਸਕਾਰਿਆ ॥
धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ॥
तेरा सुन्दर स्थान धन्य है और तेरा किया प्रसार-नाम-दान सत्य है।

ਨਾਨਕੁ ਤੂ ਲਹਣਾ ਤੂਹੈ ਗੁਰੁ ਅਮਰੁ ਤੂ ਵੀਚਾਰਿਆ ॥
नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ॥
मैंने भलीभांति यही विचार किया है कि तू ही गुरु नानक, तू ही गुरु अंगद एवं तू ही गुरु अमरदास है।

ਗੁਰੁ ਡਿਠਾ ਤਾਂ ਮਨੁ ਸਾਧਾਰਿਆ ॥੭॥
गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ॥७॥
जब गुरु रामदास जी के दर्शन किए तो मन संतुष्ट हो गया।॥ ७॥

ਚਾਰੇ ਜਾਗੇ ਚਹੁ ਜੁਗੀ ਪੰਚਾਇਣੁ ਆਪੇ ਹੋਆ ॥
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥
प्रथम चार गुरु-गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास एवं गुरु रामदास अपने-अपने युग में कीर्तिमान् हुए और अब यह पाँचवां गुरु अर्जुन देव भी उनके ही रूप में ज्योतिष्मान हुआ है।

ਆਪੀਨੑੈ ਆਪੁ ਸਾਜਿਓਨੁ ਆਪੇ ਹੀ ਥੰਮ੍ਹ੍ਹਿ ਖਲੋਆ ॥
आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थम्हि खलोआ ॥
उन्होंने स्वयं ही खुद को नम्रता एवं सद्गुणों द्वारा महान् बनाया और स्वयं ही संगतों का अवलम्ब बने ।

ਆਪੇ ਪਟੀ ਕਲਮ ਆਪਿ ਆਪਿ ਲਿਖਣਹਾਰਾ ਹੋਆ ॥
आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ ॥
वह आप ही पट्टी, कलम एवं लिखने वाला हो गया है।

ਸਭ ਉਮਤਿ ਆਵਣ ਜਾਵਣੀ ਆਪੇ ਹੀ ਨਵਾ ਨਿਰੋਆ ॥
सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ॥
सारी दुनिया आवागमन में फँसी हुई है, पर वह स्वयं ही नवनूतन अर्थात् बन्धनों से मुक्त है।

ਤਖਤਿ ਬੈਠਾ ਅਰਜਨ ਗੁਰੂ ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਖਿਵੈ ਚੰਦੋਆ ॥
तखति बैठा अरजन गुरू सतिगुर का खिवै चंदोआ ॥
गुरु अर्जुन देव जी उस सिंहासन पर विराजमान हैं जिसके ऊपर सतिगुरु का छत्र (यश) चारों ओर चमक रहा है।

ਉਗਵਣਹੁ ਤੈ ਆਥਵਣਹੁ ਚਹੁ ਚਕੀ ਕੀਅਨੁ ਲੋਆ ॥
उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ॥
गुरु ने पूर्व से पश्चिम तक चारों दिशाओं में ज्ञान का प्रकाश कर दिया है।

ਜਿਨੑੀ ਗੁਰੂ ਨ ਸੇਵਿਓ ਮਨਮੁਖਾ ਪਇਆ ਮੋਆ ॥
जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ॥
जिन्होंने गुरु की सेवा नहीं की, उन स्वेच्छाचारी जीवों को मृत्यु ने ग्रास बना लिया है।

ਦੂਣੀ ਚਉਣੀ ਕਰਾਮਾਤਿ ਸਚੇ ਕਾ ਸਚਾ ਢੋਆ ॥
दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ॥
ईश्वर की यह विशेष देन है कि गुरु अर्जुन देव जी की करामातें दोगुणी चौगुणी हो रही हैं।

ਚਾਰੇ ਜਾਗੇ ਚਹੁ ਜੁਗੀ ਪੰਚਾਇਣੁ ਆਪੇ ਹੋਆ ॥੮॥੧॥
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥८॥१॥
प्रथम चार गुरु अपने-अपने युग में ज्योतिष्मान हुए तथा अब पाँचवां भी उनका ही रूप स्वयं कीर्तिमान हुआ है॥ ८॥ १॥

ਰਾਮਕਲੀ ਬਾਣੀ ਭਗਤਾ ਕੀ ॥
रामकली बाणी भगता की ॥
रामकली बाणी भगता की॥

ਕਬੀਰ ਜੀਉ
कबीर जीउ
कबीर जीउ

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥

ਕਾਇਆ ਕਲਾਲਨਿ ਲਾਹਨਿ ਮੇਲਉ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਗੁੜੁ ਕੀਨੁ ਰੇ ॥
काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥
नाम रूपी मदिरा निकालने के लिए मैंने अपने शरीर रूपी भट्टी में लाहन मिलाई है, गुरु के शब्द को मैंने गुड़ बनाया है।

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