ਮੂੜੇ ਤੈ ਮਨ ਤੇ ਰਾਮੁ ਬਿਸਾਰਿਓ ॥
मूड़े तै मन ते रामु बिसारिओ ॥
अरे मूर्ख ! तूने मन से राम को भुला दिया है।
ਲੂਣੁ ਖਾਇ ਕਰਹਿ ਹਰਾਮਖੋਰੀ ਪੇਖਤ ਨੈਨ ਬਿਦਾਰਿਓ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
लूणु खाइ करहि हरामखोरी पेखत नैन बिदारिओ ॥१॥ रहाउ ॥
तू मालिक का नमक खाकर हरामखोरी करता है, लोगों की आँखों के देखते ही तुझे जलाकर नाश कर दिया जाएगा। १॥ रहाउ॥
ਅਸਾਧ ਰੋਗੁ ਉਪਜਿਓ ਤਨ ਭੀਤਰਿ ਟਰਤ ਨ ਕਾਹੂ ਟਾਰਿਓ ॥
असाध रोगु उपजिओ तन भीतरि टरत न काहू टारिओ ॥
तन में असाध्य रोग पैदा हो गया है, जिसका किसी विधि से कोई उपचार नहीं है।
ਪ੍ਰਭ ਬਿਸਰਤ ਮਹਾ ਦੁਖੁ ਪਾਇਓ ਇਹੁ ਨਾਨਕ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰਿਓ ॥੨॥੮॥
प्रभ बिसरत महा दुखु पाइओ इहु नानक ततु बीचारिओ ॥२॥८॥
नानक ने तो इस बात पर विचार किया है कि प्रभु को विस्मृत करने से महा दुख ही प्राप्त होता है। २॥ ८॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੫ ॥
मारू महला ५ ॥
मारू महला ५॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਪ੍ਰਭ ਰਾਖੇ ਚੀਤਿ ॥
चरन कमल प्रभ राखे चीति ॥
प्रभु के चरण-कमल मन में बसा लो,
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਹ ਨੀਤਾ ਨੀਤ ॥
हरि गुण गावह नीता नीत ॥
नित्य ही उसके गुण गाते रहो।
ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਦੂਜਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਊ ॥
तिसु बिनु दूजा अवरु न कोऊ ॥
उसके अलावा जग में कोई बड़ा नहीं है।
ਆਦਿ ਮਧਿ ਅੰਤਿ ਹੈ ਸੋਊ ॥੧॥
आदि मधि अंति है सोऊ ॥१॥
सृष्टि के आदि, मध्य एवं अन्त में केवल उसका ही अस्तित्व है। १॥
ਸੰਤਨ ਕੀ ਓਟ ਆਪੇ ਆਪਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
संतन की ओट आपे आपि ॥१॥ रहाउ ॥
वह स्वयं ही संतजनों का आसरा है।॥१॥ रहाउ ॥
ਜਾ ਕੈ ਵਸਿ ਹੈ ਸਗਲ ਸੰਸਾਰੁ ॥
जा कै वसि है सगल संसारु ॥
जिसके वश में समूचा संसार है,
ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪਿ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
आपे आपि आपि निरंकारु ॥
वह निराकार स्वयं ही सबकुछ है।
ਨਾਨਕ ਗਹਿਓ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥
नानक गहिओ साचा सोइ ॥
हे नानक ! जिसने परमसत्य का सहारा ले लिया है,
ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਫਿਰਿ ਦੂਖੁ ਨ ਹੋਇ ॥੨॥੯॥
सुखु पाइआ फिरि दूखु न होइ ॥२॥९॥
उसे ही सच्चा सुख हासिल हुआ है और फिर वह कभी दुखी नहीं होता। २॥ ९॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੩
मारू महला ५ घरु ३
मारू महला ५ घरु ३
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਪ੍ਰਾਨ ਸੁਖਦਾਤਾ ਜੀਅ ਸੁਖਦਾਤਾ ਤੁਮ ਕਾਹੇ ਬਿਸਾਰਿਓ ਅਗਿਆਨਥ ॥
प्रान सुखदाता जीअ सुखदाता तुम काहे बिसारिओ अगिआनथ ॥
हे ज्ञानहीन मानव ! प्राणों एवं आत्मा को सुख प्रदान करने वाले ईश्वर को तूने क्यों भुला दिया है।
ਹੋਛਾ ਮਦੁ ਚਾਖਿ ਹੋਏ ਤੁਮ ਬਾਵਰ ਦੁਲਭ ਜਨਮੁ ਅਕਾਰਥ ॥੧॥
होछा मदु चाखि होए तुम बावर दुलभ जनमु अकारथ ॥१॥
माया का तुच्छ नशा सेवन करके तू बावला हो गया है, जिस कारण तेरा दुर्लभ जन्म व्यर्थ जा रहा है।॥१॥
ਰੇ ਨਰ ਐਸੀ ਕਰਹਿ ਇਆਨਥ ॥
रे नर ऐसी करहि इआनथ ॥
हे नर ! तू बड़ी मूर्खता कर रहा है,
ਤਜਿ ਸਾਰੰਗਧਰ ਭ੍ਰਮਿ ਤੂ ਭੂਲਾ ਮੋਹਿ ਲਪਟਿਓ ਦਾਸੀ ਸੰਗਿ ਸਾਨਥ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तजि सारंगधर भ्रमि तू भूला मोहि लपटिओ दासी संगि सानथ ॥१॥ रहाउ ॥
भगवान् को त्याग कर भ्रम में भूला हुआ है और माया दासी के संग नाता बनाया हुआ है। १॥ रहाउ ।
ਧਰਣੀਧਰੁ ਤਿਆਗਿ ਨੀਚ ਕੁਲ ਸੇਵਹਿ ਹਉ ਹਉ ਕਰਤ ਬਿਹਾਵਥ ॥
धरणीधरु तिआगि नीच कुल सेवहि हउ हउ करत बिहावथ ॥
तू ईश्वर को छोड़कर नीच कुल की सेवा में मग्न है और मैं-मैं करके पूरी जिंदगी अहंकार में गुजर रही है।
ਫੋਕਟ ਕਰਮ ਕਰਹਿ ਅਗਿਆਨੀ ਮਨਮੁਖਿ ਅੰਧ ਕਹਾਵਥ ॥੨॥
फोकट करम करहि अगिआनी मनमुखि अंध कहावथ ॥२॥
हे अज्ञानी ! तू निकम्मे कर्म करता है, इसलिए तू मनमुखी एवं अंधा कहलाता है। २॥
ਸਤਿ ਹੋਤਾ ਅਸਤਿ ਕਰਿ ਮਾਨਿਆ ਜੋ ਬਿਨਸਤ ਸੋ ਨਿਹਚਲੁ ਜਾਨਥ ॥
सति होता असति करि मानिआ जो बिनसत सो निहचलु जानथ ॥
जो (मृत्यु) सत्य है, उसे असत्य समझ लिया है, जो (जीवन) नाशवान् है, उसे निश्चल मान लिया है।
ਪਰ ਕੀ ਕਉ ਅਪਨੀ ਕਰਿ ਪਕਰੀ ਐਸੇ ਭੂਲ ਭੁਲਾਨਥ ॥੩॥
पर की कउ अपनी करि पकरी ऐसे भूल भुलानथ ॥३॥
जो (धन) पराया है, उसे अपना समझ कर पकड़ा हुआ है और तू ऐसी भूल में भूला हुआ है॥ ३॥
ਖਤ੍ਰੀ ਬ੍ਰਾਹਮਣ ਸੂਦ ਵੈਸ ਸਭ ਏਕੈ ਨਾਮਿ ਤਰਾਨਥ ॥
खत्री ब्राहमण सूद वैस सभ एकै नामि तरानथ ॥
क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, एवं शूद्र-ये सब एक हरि-नाम से मोक्ष पाते हैं।
ਗੁਰੁ ਨਾਨਕੁ ਉਪਦੇਸੁ ਕਹਤੁ ਹੈ ਜੋ ਸੁਨੈ ਸੋ ਪਾਰਿ ਪਰਾਨਥ ॥੪॥੧॥੧੦॥
गुरु नानकु उपदेसु कहतु है जो सुनै सो पारि परानथ ॥४॥१॥१०॥
गुरु नानक उपदेश कहते हैं, जो इसे सुनता है, उसकी मुक्ति हो जाती है। ४॥ १॥ १०॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੫ ॥
मारू महला ५ ॥
मारू महला ५॥
ਗੁਪਤੁ ਕਰਤਾ ਸੰਗਿ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਡਹਕਾਵਏ ਮਨੁਖਾਇ ॥
गुपतु करता संगि सो प्रभु डहकावए मनुखाइ ॥
मनुष्य छिप-छिप कर बुरे काम करता है, मगर साथ रहने वाले प्रभु को उसकी हरकत पता है, वह केवल दुनिया को ही धोखा दे सकता है।
ਬਿਸਾਰਿ ਹਰਿ ਜੀਉ ਬਿਖੈ ਭੋਗਹਿ ਤਪਤ ਥੰਮ ਗਲਿ ਲਾਇ ॥੧॥
बिसारि हरि जीउ बिखै भोगहि तपत थम गलि लाइ ॥१॥
ईश्वर को भुलाकर विषय-विकारों एवं काम-भोग में लिप्त जीव गर्म स्तम्भ के दण्ड का पात्र बनता है।॥१॥
ਰੇ ਨਰ ਕਾਇ ਪਰ ਗ੍ਰਿਹਿ ਜਾਇ ॥
रे नर काइ पर ग्रिहि जाइ ॥
हे आदमी ! क्यों पराई नारी के घर जाते हो।
ਕੁਚਲ ਕਠੋਰ ਕਾਮਿ ਗਰਧਭ ਤੁਮ ਨਹੀ ਸੁਨਿਓ ਧਰਮ ਰਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
कुचल कठोर कामि गरधभ तुम नही सुनिओ धरम राइ ॥१॥ रहाउ ॥
हे मलिन, निर्दयी, कामी गधे ! क्या तूने यमराज का नाम नहीं सुना ?॥ १॥ रहाउ ।
ਬਿਕਾਰ ਪਾਥਰ ਗਲਹਿ ਬਾਧੇ ਨਿੰਦ ਪੋਟ ਸਿਰਾਇ ॥
बिकार पाथर गलहि बाधे निंद पोट सिराइ ॥
तूने पाप रूपी पत्थर गले से बाँध लिया है और निंदा रूपी गठरी सिर पर रख ली है।
ਮਹਾ ਸਾਗਰੁ ਸਮੁਦੁ ਲੰਘਨਾ ਪਾਰਿ ਨ ਪਰਨਾ ਜਾਇ ॥੨॥
महा सागरु समुदु लंघना पारि न परना जाइ ॥२॥
तूने महासागर संसार समुद्र से पार होना है, तुझे इस में से पार होना असंभव हो जाएगा।॥ २॥
ਕਾਮਿ ਕ੍ਰੋਧਿ ਲੋਭਿ ਮੋਹਿ ਬਿਆਪਿਓ ਨੇਤ੍ਰ ਰਖੇ ਫਿਰਾਇ ॥
कामि क्रोधि लोभि मोहि बिआपिओ नेत्र रखे फिराइ ॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह में फँसकर तूने अपनी ऑखें फेर रखी हैं।
ਸੀਸੁ ਉਠਾਵਨ ਨ ਕਬਹੂ ਮਿਲਈ ਮਹਾ ਦੁਤਰ ਮਾਇ ॥੩॥
सीसु उठावन न कबहू मिलई महा दुतर माइ ॥३॥
तुझे कभी भी अपना शीश ऊपर उठाने का अवसर नहीं मिलना, माया-मोह का सागर पार करना बड़ा कठिन है। ३॥
ਸੂਰੁ ਮੁਕਤਾ ਸਸੀ ਮੁਕਤਾ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਅਲਿਪਾਇ ॥
सूरु मुकता ससी मुकता ब्रहम गिआनी अलिपाइ ॥
जैसे सूर्य एवं चन्द्रमा निर्लिप्त रहते हैं और जैसे अपने स्वभावानुसार अग्नि भी सदा अलिप्त एवं निर्मल रहती है, वैसे ही ब्रह्मज्ञानी भी निर्लिप्त रहता है।
ਸੁਭਾਵਤ ਜੈਸੇ ਬੈਸੰਤਰ ਅਲਿਪਤ ਸਦਾ ਨਿਰਮਲਾਇ ॥੪॥
सुभावत जैसे बैसंतर अलिपत सदा निरमलाइ ॥४॥
सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि अच्छे-बुरे सब जीवों को अपना प्रकाश एवं सुख देते हैं, वैसे ही ब्रह्मज्ञानी जीवों को उपदेश देकर परमात्मा से जोड़ते हैं ॥४॥
ਜਿਸੁ ਕਰਮੁ ਖੁਲਿਆ ਤਿਸੁ ਲਹਿਆ ਪੜਦਾ ਜਿਨਿ ਗੁਰ ਪਹਿ ਮੰਨਿਆ ਸੁਭਾਇ ॥
जिसु करमु खुलिआ तिसु लहिआ पड़दा जिनि गुर पहि मंनिआ सुभाइ ॥
जिसका भाग्योदय हुआ, जिसने सहज स्वभाव गुरु में पूर्ण आस्था धारण की है, उसका भ्रम का पद उतर गया है।