ਗਿਆਨੀ ਧਿਆਨੀ ਆਖਿ ਸੁਣਾਏ ॥
गिआनी धिआनी आखि सुणाए ॥
ज्ञानी-ध्यानी भी कहकर यही बात सुनाते हैं।
ਸਭਨਾ ਰਿਜਕੁ ਸਮਾਹੇ ਆਪੇ ਕੀਮਤਿ ਹੋਰ ਨ ਹੋਈ ਹੇ ॥੨॥
सभना रिजकु समाहे आपे कीमति होर न होई हे ॥२॥
वह सब जीवों को भोजन देता है और अपनी महिमा स्वयं ही जानता है, कोई अन्य उसकी कीर्ति नहीं बता सकता॥ २॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਅੰਧੁ ਅੰਧਾਰਾ ॥
माइआ मोहु अंधु अंधारा ॥
मोह-माया का घोर अन्धेरा है और
ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਪਸਰਿਆ ਪਾਸਾਰਾ ॥
हउमै मेरा पसरिआ पासारा ॥
अभिमान एवं अपनत्व हर जगह फैला हुआ है।
ਅਨਦਿਨੁ ਜਲਤ ਰਹੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਸਾਂਤਿ ਨ ਹੋਈ ਹੇ ॥੩॥
अनदिनु जलत रहै दिनु राती गुर बिनु सांति न होई हे ॥३॥
मनुष्य दिन-रात तृष्णाग्नि में जल रहे हैं और गुरु के बिना उन्हें शान्ति प्राप्त नहीं होती॥ ३॥
ਆਪੇ ਜੋੜਿ ਵਿਛੋੜੇ ਆਪੇ ॥
आपे जोड़ि विछोड़े आपे ॥
संयोग एवं वियोग बनाने वाला वही है और
ਆਪੇ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪੇ ਆਪੇ ॥
आपे थापि उथापे आपे ॥
स्वयं ही पैदा एवं नष्ट कर देता है।
ਸਚਾ ਹੁਕਮੁ ਸਚਾ ਪਾਸਾਰਾ ਹੋਰਨਿ ਹੁਕਮੁ ਨ ਹੋਈ ਹੇ ॥੪॥
सचा हुकमु सचा पासारा होरनि हुकमु न होई हे ॥४॥
उसका हुक्म अटल है और उसका जगत्-प्रसार भी सत्य है, उसके अतिरिक्त कोई अन्य हुक्म नहीं कर सकता॥ ४॥
ਆਪੇ ਲਾਇ ਲਏ ਸੋ ਲਾਗੈ ॥
आपे लाइ लए सो लागै ॥
भक्ति में वही लगता है, जिसे वह लगा लेता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਜਮ ਕਾ ਭਉ ਭਾਗੈ ॥
गुर परसादी जम का भउ भागै ॥
गुरु की कृपा से यम का भय दूर हो जाता है।
ਅੰਤਰਿ ਸਬਦੁ ਸਦਾ ਸੁਖਦਾਤਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਕੋਈ ਹੇ ॥੫॥
अंतरि सबदु सदा सुखदाता गुरमुखि बूझै कोई हे ॥५॥
अन्तर्मन में शब्द विद्यमान है, जो सदा सुख देने वाला है, कोई गुरुमुख ही इस भेद को समझता है॥ ५॥
ਆਪੇ ਮੇਲੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਏ ॥
आपे मेले मेलि मिलाए ॥
वह स्वयं ही गुरु से मिलाकर अपने साथ मिला लेता है,”
ਪੁਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਸੋ ਮੇਟਣਾ ਨ ਜਾਏ ॥
पुरबि लिखिआ सो मेटणा न जाए ॥
पूर्व से ही लिखा हुआ कर्मालेख मिटाया नहीं जा सकता।
ਅਨਦਿਨੁ ਭਗਤਿ ਕਰੇ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਾ ਹੋਈ ਹੇ ॥੬॥
अनदिनु भगति करे दिनु राती गुरमुखि सेवा होई हे ॥६॥
वह दिन-रात भक्ति करता है और गुरु के सान्निध्य में ही सेवा होती है॥ ६॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਜਾਤਾ ॥
सतिगुरु सेवि सदा सुखु जाता ॥
सतगुरु की सेवा में सदैव सुख माना है और
ਆਪੇ ਆਇ ਮਿਲਿਆ ਸਭਨਾ ਕਾ ਦਾਤਾ ॥
आपे आइ मिलिआ सभना का दाता ॥
सबका दाता स्वयं ही आ मिला है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਅਗਨਿ ਨਿਵਾਰੀ ਸਬਦੁ ਚੀਨਿ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ਹੇ ॥੭॥
हउमै मारि त्रिसना अगनि निवारी सबदु चीनि सुखु होई हे ॥७॥
अहंकार को मिटाकर तृष्णाग्नि का निवारण हुआ है और शब्द के रहस्य को पहचान कर सुख प्राप्त हुआ है॥ ७॥
ਕਾਇਆ ਕੁਟੰਬੁ ਮੋਹੁ ਨ ਬੂਝੈ ॥
काइआ कुट्मबु मोहु न बूझै ॥
मनुष्य परिवार के मोह के कारण सत्य को नहीं बूझता,”
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਤ ਆਖੀ ਸੂਝੈ ॥
गुरमुखि होवै त आखी सूझै ॥
यदि वह गुरुमुख बन जाए तो उसे सूझ हो जाती है।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਰਵੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ਹੇ ॥੮॥
अनदिनु नामु रवै दिनु राती मिलि प्रीतम सुखु होई हे ॥८॥
जो मनुष्य दिन-रात नाम-सिमरण करता है, उसे प्रियतम-प्रभु से मिलकर ही सुख प्राप्त होता है॥ ८॥
ਮਨਮੁਖ ਧਾਤੁ ਦੂਜੈ ਹੈ ਲਾਗਾ ॥
मनमुख धातु दूजै है लागा ॥
मनमुख द्वैतभाव में लीन रहता है,”
ਜਨਮਤ ਕੀ ਨ ਮੂਓ ਆਭਾਗਾ ॥
जनमत की न मूओ आभागा ॥
वह बदनसीब जन्म लेते ही मर क्यों न गया।
ਆਵਤ ਜਾਤ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮੁਕਤਿ ਨ ਹੋਈ ਹੇ ॥੯॥
आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ बिनु गुर मुकति न होई हे ॥९॥
आवागमन में उसने अपना जन्म व्यर्थ गँवा दिया, गुरु के बिना उसे मुक्ति नहीं मिलती॥ ९॥
ਕਾਇਆ ਕੁਸੁਧ ਹਉਮੈ ਮਲੁ ਲਾਈ ॥
काइआ कुसुध हउमै मलु लाई ॥
मन को अहम् की मैल लगा ली, जिससे शरीर अशुद्ध हो गया।
ਜੇ ਸਉ ਧੋਵਹਿ ਤਾ ਮੈਲੁ ਨ ਜਾਈ ॥
जे सउ धोवहि ता मैलु न जाई ॥
यदि शरीर को सौ बार भी धोए तो भी यह मैल दूर नहीं होती,
ਸਬਦਿ ਧੋਪੈ ਤਾ ਹਛੀ ਹੋਵੈ ਫਿਰਿ ਮੈਲੀ ਮੂਲਿ ਨ ਹੋਈ ਹੇ ॥੧੦॥
सबदि धोपै ता हछी होवै फिरि मैली मूलि न होई हे ॥१०॥
शब्द द्वारा धोने से ही शरीर शुद्ध होता है और फिर यह बिल्कुल मैला नहीं होता।॥ १०॥
ਪੰਚ ਦੂਤ ਕਾਇਆ ਸੰਘਾਰਹਿ ॥
पंच दूत काइआ संघारहि ॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार रूपी पाँच दूत शरीर को नाश कर देते हैं।
ਮਰਿ ਮਰਿ ਜੰਮਹਿ ਸਬਦੁ ਨ ਵੀਚਾਰਹਿ ॥
मरि मरि जमहि सबदु न वीचारहि ॥
जीव शब्द का चिंतन नहीं करता, अतः बार-बार जन्मता-मरता रहता है,”
ਅੰਤਰਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਗੁਬਾਰਾ ਜਿਉ ਸੁਪਨੈ ਸੁਧਿ ਨ ਹੋਈ ਹੇ ॥੧੧॥
अंतरि माइआ मोह गुबारा जिउ सुपनै सुधि न होई हे ॥११॥
उसके अन्तर्मन में मोह-माया का अन्धेरा ऐसे होता है, जिस तरह सपने में होश नहीं होती॥ ११॥
ਇਕਿ ਪੰਚਾ ਮਾਰਿ ਸਬਦਿ ਹੈ ਲਾਗੇ ॥
इकि पंचा मारि सबदि है लागे ॥
कुछ व्यक्ति कामादिक पाँच दूतों को मार कर शब्द में तल्लीन हो गए हैं,”
ਸਤਿਗੁਰੁ ਆਇ ਮਿਲਿਆ ਵਡਭਾਗੇ ॥
सतिगुरु आइ मिलिआ वडभागे ॥
उन खुशकिस्मत जीवों को सतिगुरु मिल गया है।
ਅੰਤਰਿ ਸਾਚੁ ਰਵਹਿ ਰੰਗਿ ਰਾਤੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵੈ ਸੋਈ ਹੇ ॥੧੨॥
अंतरि साचु रवहि रंगि राते सहजि समावै सोई हे ॥१२॥
जिनके अन्तर्मन में सत्य रमण करता है, उसके प्रेम में लीन रहते हैं, वे सहज ही समाए रहते हैं।॥ १२॥
ਗੁਰ ਕੀ ਚਾਲ ਗੁਰੂ ਤੇ ਜਾਪੈ ॥
गुर की चाल गुरू ते जापै ॥
गुरु की (भक्ति वाली) युक्ति का ज्ञान गुरु से ही होता है और
ਪੂਰਾ ਸੇਵਕੁ ਸਬਦਿ ਸਿਞਾਪੈ ॥
पूरा सेवकु सबदि सिञापै ॥
पूर्ण सेवक को ही शब्द की पहचान होती है।
ਸਦਾ ਸਬਦੁ ਰਵੈ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਰਸਨਾ ਰਸੁ ਚਾਖੈ ਸਚੁ ਸੋਈ ਹੇ ॥੧੩॥
सदा सबदु रवै घट अंतरि रसना रसु चाखै सचु सोई हे ॥१३॥
उसके हृदय में सदैव ही शब्द रमण करता है और वह अपनी रसना से सत्य का स्वाद चखता रहता है।॥१३॥
ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ਸਬਦਿ ਨਿਵਾਰੇ ॥
हउमै मारे सबदि निवारे ॥
वह ब्रह्म-शब्द द्वारा अहम् को मिटाकर मन से दूर कर देता है और
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਰਖੈ ਉਰਿ ਧਾਰੇ ॥
हरि का नामु रखै उरि धारे ॥
परमात्मा का नाम हृदय में धारण करके रखता है।
ਏਕਸੁ ਬਿਨੁ ਹਉ ਹੋਰੁ ਨ ਜਾਣਾ ਸਹਜੇ ਹੋਇ ਸੁ ਹੋਈ ਹੇ ॥੧੪॥
एकसु बिनु हउ होरु न जाणा सहजे होइ सु होई हे ॥१४॥
एक परमात्मा के बिना किसी को नहीं जाना और जो कुछ सहज-स्वभाव होता है, वह ठीक होता है।॥ १४॥
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸਹਜੁ ਕਿਨੈ ਨਹੀ ਪਾਇਆ ॥
बिनु सतिगुर सहजु किनै नही पाइआ ॥
सतगुरु के बिना किसी को भी सहजावस्था प्राप्त नहीं हुई।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਸਚਿ ਸਮਾਇਆ ॥
गुरमुखि बूझै सचि समाइआ ॥
जो गुरु के सान्निध्य में इस तथ्य को बूझ लेता है, सत्य में ही समा जाता है।
ਸਚਾ ਸੇਵਿ ਸਬਦਿ ਸਚ ਰਾਤੇ ਹਉਮੈ ਸਬਦੇ ਖੋਈ ਹੇ ॥੧੫॥
सचा सेवि सबदि सच राते हउमै सबदे खोई हे ॥१५॥
सत्य की उपासना करके वह शब्द द्वारा सत्य में लीन रहता है शब्द द्वारा अपने अहम् को दूर कर देता है॥ १५॥
ਆਪੇ ਗੁਣਦਾਤਾ ਬੀਚਾਰੀ ॥
आपे गुणदाता बीचारी ॥
गुण दाता प्रभु स्वयं ही विचार करता है
ਗੁਰਮੁਖਿ ਦੇਵਹਿ ਪਕੀ ਸਾਰੀ ॥
गुरमुखि देवहि पकी सारी ॥
गुरुमुख को सच्चा जीवन जीने की सूझ देता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸਮਾਵਹਿ ਸਾਚੈ ਸਾਚੇ ਤੇ ਪਤਿ ਹੋਈ ਹੇ ॥੧੬॥੨॥
नानक नामि समावहि साचै साचे ते पति होई हे ॥१६॥२॥
हे नानक ! वह सच्चे प्रभु-नाम में लीन रहता है और सत्य-नाम द्वारा ही उसे शोभा प्राप्त होती है।॥१६॥२॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੩ ॥
मारू महला ३ ॥
मारू महला ३॥
ਜਗਜੀਵਨੁ ਸਾਚਾ ਏਕੋ ਦਾਤਾ ॥
जगजीवनु साचा एको दाता ॥
जगत् को जीवन देने वाला शाश्वत स्वरूप एक (परमेश्वर) ही दाता है।
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਸਬਦਿ ਪਛਾਤਾ ॥
गुर सेवा ते सबदि पछाता ॥
गुरु की सेवा व शब्द से ही पहचान होती है।