ਸਦ ਹੀ ਨੇੜੈ ਦੂਰਿ ਨ ਜਾਣਹੁ ॥
सद ही नेड़ै दूरि न जाणहु ॥
ईश्वर सदैव ही हमारे निकट है, उसे कहीं दूर मत समझो।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਨਜੀਕਿ ਪਛਾਣਹੁ ॥
गुर कै सबदि नजीकि पछाणहु ॥
गुरु के शब्द द्वारा उसे नजदीक ही पहचान लो।
ਬਿਗਸੈ ਕਮਲੁ ਕਿਰਣਿ ਪਰਗਾਸੈ ਪਰਗਟੁ ਕਰਿ ਦੇਖਾਇਆ ॥੧੫॥
बिगसै कमलु किरणि परगासै परगटु करि देखाइआ ॥१५॥
जब हृदय-कमल खिल गया तो गुरु ने ज्ञान की किरणों का आलोककरके प्रगट रूप में प्रभु के दर्शन करवा दिए॥ १५॥
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਸਚਾ ਸੋਈ ॥
आपे करता सचा सोई ॥
वह सत्यस्वरूप परमेश्वर स्वयं कर्ता है,”
ਆਪੇ ਮਾਰਿ ਜੀਵਾਲੇ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਈ ॥
आपे मारि जीवाले अवरु न कोई ॥
वह स्वयं ही मारने एवं जीवित करने वाला है और उसके बिना अन्य कोई नहीं ।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਆਪੁ ਗਵਾਇ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥੧੬॥੨॥੨੪॥
नानक नामु मिलै वडिआई आपु गवाइ सुखु पाइआ ॥१६॥२॥२४॥
हे नानक ! परमात्मा के नाम-स्मरण से ही संसार में कीर्ति मिलती है और अहंत्व को मिटाकर ही सच्चा सुख पाया जा सकता है॥ १६॥ २॥ २४॥
ਮਾਰੂ ਸੋਲਹੇ ਮਹਲਾ ੪
मारू सोलहे महला ४
मारू सोलहे महला ४
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਸਚਾ ਆਪਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥
सचा आपि सवारणहारा ॥
सत्यस्वरूप परमेश्वर स्वयं ही भक्तों को सँवारने वाला है,”
ਅਵਰ ਨ ਸੂਝਸਿ ਬੀਜੀ ਕਾਰਾ ॥
अवर न सूझसि बीजी कारा ॥
उसके सिमरन एवं भक्ति के अलावा अन्य कोई उससे विमुख करने वाला कार्य उन्हें सूझता ही नहीं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੁ ਵਸੈ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਸਹਜੇ ਸਚਿ ਸਮਾਈ ਹੇ ॥੧॥
गुरमुखि सचु वसै घट अंतरि सहजे सचि समाई हे ॥१॥
गुरुमुख के अन्तर्मन में ही सत्य निवसित होता है और वह सहज-स्वभाव ही सत्य में विलीन रहता है।॥ १॥
ਸਭਨਾ ਸਚੁ ਵਸੈ ਮਨ ਮਾਹੀ ॥
सभना सचु वसै मन माही ॥
सब के मन में सत्य ही अवस्थित है, किन्तु
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸਹਜਿ ਸਮਾਹੀ ॥
गुर परसादी सहजि समाही ॥
गुरु की कृपा से ही जीव सहजावस्था में लीन होता है।
ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਤ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਈ ਹੇ ॥੨॥
गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ गुर चरणी चितु लाई हे ॥२॥
गुरु का नाम जपते हुए सदा सुख ही पाया है, अतः गुरु के चरणों में ही चित्त लगाया है॥ २॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਹੈ ਗਿਆਨੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਹੈ ਪੂਜਾ ॥
सतिगुरु है गिआनु सतिगुरु है पूजा ॥
मेरे लिए तो सतगुरु ही ज्ञान एवं पूजा है,”
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੀ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ॥
सतिगुरु सेवी अवरु न दूजा ॥
अतः मैं सतगुरु की ही उपासना करता हूँ और इसके अलावा किसी अन्य की सेवा नहीं करता।
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਨਾਮੁ ਰਤਨ ਧਨੁ ਪਾਇਆ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਭਾਈ ਹੇ ॥੩॥
सतिगुर ते नामु रतन धनु पाइआ सतिगुर की सेवा भाई हे ॥३॥
सतगुरु से ही अमूल्य रत्न सरीखा प्रभु-नाम रूपी धन पाया है और हमें तो सतगुरु की सेवा ही भा गई है॥ ३॥
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਜੋ ਦੂਜੈ ਲਾਗੇ ॥
बिनु सतिगुर जो दूजै लागे ॥
सतगुरु के बिना जो द्वैतभाव में संलग्न हो गए हैं,”
ਆਵਹਿ ਜਾਹਿ ਭ੍ਰਮਿ ਮਰਹਿ ਅਭਾਗੇ ॥
आवहि जाहि भ्रमि मरहि अभागे ॥
ऐसे दुर्भाग्यशाली जीव आवागमन में फँसकर भ्रम में ही मरते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਕੀ ਫਿਰਿ ਗਤਿ ਹੋਵੈ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਹਹਿ ਸਰਣਾਈ ਹੇ ॥੪॥
नानक तिन की फिरि गति होवै जि गुरमुखि रहहि सरणाई हे ॥४॥
हे नानक ! उनकी भी फिर से मुक्ति हो जाती है, यदि गुरु की शरण में रहते हैं।॥ ४॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਸਦਾ ਹੈ ਸਾਚੀ ॥
गुरमुखि प्रीति सदा है साची ॥
गुरु के संग लगाई प्रीति सदा ही सच्ची है।
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਮਾਗਉ ਨਾਮੁ ਅਜਾਚੀ ॥
सतिगुर ते मागउ नामु अजाची ॥
मैं तो सतगुरु से अतुलनीय परमात्मा का नाम ही माँगता हूँ।
ਹੋਹੁ ਦਇਆਲੁ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਿ ਹਰਿ ਜੀਉ ਰਖਿ ਲੇਵਹੁ ਗੁਰ ਸਰਣਾਈ ਹੇ ॥੫॥
होहु दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ रखि लेवहु गुर सरणाई हे ॥५॥
हे प्रभु ! दयालु हो जाओ और कृपा करके गुरु की शरण में रख लो॥ ५॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਸਤਿਗੁਰੂ ਚੁਆਇਆ ॥
अम्रित रसु सतिगुरू चुआइआ ॥
सतगुरु ने मेरे मुख में अमृतमयी हरिनाम रस डाल दिया है और
ਦਸਵੈ ਦੁਆਰਿ ਪ੍ਰਗਟੁ ਹੋਇ ਆਇਆ ॥
दसवै दुआरि प्रगटु होइ आइआ ॥
प्रभु दशम द्वार में प्रगट हो गया है।
ਤਹ ਅਨਹਦ ਸਬਦ ਵਜਹਿ ਧੁਨਿ ਬਾਣੀ ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਈ ਹੇ ॥੬॥
तह अनहद सबद वजहि धुनि बाणी सहजे सहजि समाई हे ॥६॥
वहाँ दशम द्वार में मधुर ध्वनि वाला अनाहत शब्द बजता है और मैं सहज ही सहजावस्था में लीन रहता हूँ ॥६॥
ਜਿਨ ਕਉ ਕਰਤੈ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿ ਪਾਈ ॥
जिन कउ करतै धुरि लिखि पाई ॥
विधाता ने प्रारम्भ से ही जिनके भाग्य में लिख दिया है,”
ਅਨਦਿਨੁ ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਤ ਵਿਹਾਈ ॥
अनदिनु गुरु गुरु करत विहाई ॥
उनकी आयु प्रतिदिन ‘गुरु-गुरु’ जपते हुए ही व्यतीत होती है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕੋ ਸੀਝੈ ਨਾਹੀ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਈ ਹੇ ॥੭॥
बिनु सतिगुर को सीझै नाही गुर चरणी चितु लाई हे ॥७॥
सतगुरु के बिना कोई भी अपने मनोरथ में सफल नहीं होता, अतः हमने अपना चित्त गुरु-चरणों में लगा दिया है॥ ७॥
ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਆਪੇ ਦੇਇ ॥
जिसु भावै तिसु आपे देइ ॥
जिसे वह चाहता है, उसे ही (नाम) देता है पर
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਲੇਇ ॥
गुरमुखि नामु पदारथु लेइ ॥
गुरु के सान्निध्य में ही जीव नाम पदार्थ पाता है।
ਆਪੇ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਨਾਮੁ ਦੇਵੈ ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸਮਾਈ ਹੇ ॥੮॥
आपे क्रिपा करे नामु देवै नानक नामि समाई हे ॥८॥
हे नानक ! अपनी कृपा करके प्रभु जिसे नाम प्रदान करता है, वह नाम में ही समाया रहता है॥ ८॥
ਗਿਆਨ ਰਤਨੁ ਮਨਿ ਪਰਗਟੁ ਭਇਆ ॥
गिआन रतनु मनि परगटु भइआ ॥
ज्ञान रूपी रत्न मन में प्रगट हो गया है और
ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਸਹਜੇ ਲਇਆ ॥
नामु पदारथु सहजे लइआ ॥
सहज ही नाम रूपी पदार्थ पाया है।
ਏਹ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਈ ਸਤਿਗੁਰ ਕਉ ਸਦ ਬਲਿ ਜਾਈ ਹੇ ॥੯॥
एह वडिआई गुर ते पाई सतिगुर कउ सद बलि जाई हे ॥९॥
यह बड़ाई भी गुरु से प्राप्त हुई है, अतः मैं सतगुरु पर सदा बलिहारी जाता हूँ।॥ ९॥
ਪ੍ਰਗਟਿਆ ਸੂਰੁ ਨਿਸਿ ਮਿਟਿਆ ਅੰਧਿਆਰਾ ॥
प्रगटिआ सूरु निसि मिटिआ अंधिआरा ॥
जैसे सूर्योदय होने पर रात्रिकाल का अन्धेरा मिट जाता है,”
ਅਗਿਆਨੁ ਮਿਟਿਆ ਗੁਰ ਰਤਨਿ ਅਪਾਰਾ ॥
अगिआनु मिटिआ गुर रतनि अपारा ॥
वैसे ही गुरु के दिए अपार ज्ञान रत्न से अज्ञान मिट गया है।
ਸਤਿਗੁਰ ਗਿਆਨੁ ਰਤਨੁ ਅਤਿ ਭਾਰੀ ਕਰਮਿ ਮਿਲੈ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ਹੇ ॥੧੦॥
सतिगुर गिआनु रतनु अति भारी करमि मिलै सुखु पाई हे ॥१०॥
सतगुरु का ज्ञान रत्न अति अमूल्य है, पूर्ण भाग्य से जिसे मिल जाता है, वह सुख प्राप्त करता है॥ १०॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਗਟੀ ਹੈ ਸੋਇ ॥
गुरमुखि नामु प्रगटी है सोइ ॥
गुरु के सान्निध्य में जिसे नाम प्राप्त हुआ है,”
ਚਹੁ ਜੁਗਿ ਨਿਰਮਲੁ ਹਛਾ ਲੋਇ ॥
चहु जुगि निरमलु हछा लोइ ॥
उसकी शोभा समूचे जगत् में प्रगट हो गई है और चहुँ युगों में समस्त लोकों में उसे ही पवित्र एवं गुणवान माना जाता है।
ਨਾਮੇ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਨਾਮਿ ਰਹਿਆ ਲਿਵ ਲਾਈ ਹੇ ॥੧੧॥
नामे नामि रते सुखु पाइआ नामि रहिआ लिव लाई हे ॥११॥
जो व्यक्ति केवल नाम में ही लीन रहता है, उसने ही सुख पाया है और वह नाम में ही लगन लगाकर रखता है॥ ११॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਵੈ ॥
गुरमुखि नामु परापति होवै ॥
जिसे गुरु के सान्निध्य में प्रभु-नाम प्राप्त हो जाता है,”
ਸਹਜੇ ਜਾਗੈ ਸਹਜੇ ਸੋਵੈ ॥
सहजे जागै सहजे सोवै ॥
वह सहजावस्था में ही जागता और सोता है।