ਆਪੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਭ ਸਾਜੀਅਨੁ ਆਪੇ ਵਰਤੀਜੈ ॥
आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे वरतीजै ॥
उसने स्वयं ही समूची सृष्टि का निर्माण किया है और स्वयं ही उसमें कार्यशील है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਸਲਾਹੀਐ ਸਚੁ ਕੀਮਤਿ ਕੀਜੈ ॥
गुरमुखि सदा सलाहीऐ सचु कीमति कीजै ॥
गुरु के सान्निध्य में सदा उसका स्तुतिगान करो, इस प्रकार उस परमसत्य का सही मूल्यांकन किया जा सकता है।
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਕਮਲੁ ਬਿਗਾਸਿਆ ਇਵ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪੀਜੈ ॥
गुर सबदी कमलु बिगासिआ इव हरि रसु पीजै ॥
शब्द-गुरु द्वारा हृदय-कमल खिल गया है, इस प्रकार हरि-नाम का पान किया है।
ਆਵਣ ਜਾਣਾ ਠਾਕਿਆ ਸੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਵੀਜੈ ॥੭॥
आवण जाणा ठाकिआ सुखि सहजि सवीजै ॥७॥
मैंने अपना आवागमन मिटा दिया है और सहजावस्था में सुखपूर्वक रहता हूँ॥ ७॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੧ ॥
सलोकु मः १ ॥
श्लोक महला १॥
ਨਾ ਮੈਲਾ ਨਾ ਧੁੰਧਲਾ ਨਾ ਭਗਵਾ ਨਾ ਕਚੁ ॥
ना मैला ना धुंधला ना भगवा ना कचु ॥
न ही कभी मैला होता है, न कभी धुंधला होता है, न कभी भगवा होता है और न ही कच्चा होता है
ਨਾਨਕ ਲਾਲੋ ਲਾਲੁ ਹੈ ਸਚੈ ਰਤਾ ਸਚੁ ॥੧॥
नानक लालो लालु है सचै रता सचु ॥१॥
हे नानक ! भगवान् की भक्ति में लीन ही सत्यशील है और उसका प्रेम लाल रंग की तरह बहुत पक्का होता है।॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸਹਜਿ ਵਣਸਪਤਿ ਫੁਲੁ ਫਲੁ ਭਵਰੁ ਵਸੈ ਭੈ ਖੰਡਿ ॥
सहजि वणसपति फुलु फलु भवरु वसै भै खंडि ॥
परमानंद में ही वनस्पति, फूल एवं फल की लब्धि होती है और भक्त रूपी जिज्ञासु भँवरा निडर होकर वास करता है।
ਨਾਨਕ ਤਰਵਰੁ ਏਕੁ ਹੈ ਏਕੋ ਫੁਲੁ ਭਿਰੰਗੁ ॥੨॥
नानक तरवरु एकु है एको फुलु भिरंगु ॥२॥
हे नानक ! ईश्वर रूपी पेड़ एक ही है और नाम रूपी फल भी एक ही है और भक्त रूपी भँवरा उसमें ही लीन रहता है। ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਜੋ ਜਨ ਲੂਝਹਿ ਮਨੈ ਸਿਉ ਸੇ ਸੂਰੇ ਪਰਧਾਨਾ ॥
जो जन लूझहि मनै सिउ से सूरे परधाना ॥
जो व्यक्ति अपने मन से संघर्ष करता है, वास्तव में वही महान् योद्धा है।
ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਸਦਾ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਜਿਨੀ ਆਪੁ ਪਛਾਨਾ ॥
हरि सेती सदा मिलि रहे जिनी आपु पछाना ॥
जिसने अपने-आपको पहचान लिया है, वह सदा भगवान् के संग मिला रहता है।
ਗਿਆਨੀਆ ਕਾ ਇਹੁ ਮਹਤੁ ਹੈ ਮਨ ਮਾਹਿ ਸਮਾਨਾ ॥
गिआनीआ का इहु महतु है मन माहि समाना ॥
ज्ञानी पुरुषों की यही बड़ाई है केि वे अपने मन में लीन रहते हैं।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਕਾ ਮਹਲੁ ਪਾਇਆ ਸਚੁ ਲਾਇ ਧਿਆਨਾ ॥
हरि जीउ का महलु पाइआ सचु लाइ धिआना ॥
उन्होंने सत्य में ध्यान लगाकर भगवान् का घर पा लिया है।
ਜਿਨ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮਨੁ ਜੀਤਿਆ ਜਗੁ ਤਿਨਹਿ ਜਿਤਾਨਾ ॥੮॥
जिन गुर परसादी मनु जीतिआ जगु तिनहि जिताना ॥८॥
गुरु की कृपा से जिसने मन को जीत लिया है, उसने समूचे जगत् पर विजय पा ली है॥ ८॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਜੋਗੀ ਹੋਵਾ ਜਗਿ ਭਵਾ ਘਰਿ ਘਰਿ ਭੀਖਿਆ ਲੇਉ ॥
जोगी होवा जगि भवा घरि घरि भीखिआ लेउ ॥
अगर योगी बनकर जगत् में घर-घर से भिक्षा लेता रहे और
ਦਰਗਹ ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਐ ਕਿਸੁ ਕਿਸੁ ਉਤਰੁ ਦੇਉ ॥
दरगह लेखा मंगीऐ किसु किसु उतरु देउ ॥
जब ईश्वर के दरबार में हिसाब माँगा जाएगा तो किस-किस का उत्तर देगा।
ਭਿਖਿਆ ਨਾਮੁ ਸੰਤੋਖੁ ਮੜੀ ਸਦਾ ਸਚੁ ਹੈ ਨਾਲਿ ॥
भिखिआ नामु संतोखु मड़ी सदा सचु है नालि ॥
जो नाम की भिक्षा माँगता है और संतोष रूपी मंदिर में रहता है, परमात्मा सदा उसके साथ रहता है।
ਭੇਖੀ ਹਾਥ ਨ ਲਧੀਆ ਸਭ ਬਧੀ ਜਮਕਾਲਿ ॥
भेखी हाथ न लधीआ सभ बधी जमकालि ॥
दिखावा करने से कुछ नहीं मिलता, सारी दुनिया काल के शिकजे में फँसी हुई है।
ਨਾਨਕ ਗਲਾ ਝੂਠੀਆ ਸਚਾ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥੧॥
नानक गला झूठीआ सचा नामु समालि ॥१॥
हे नानक ! अन्य सब बातें झूठी हैं, अतः सत्य नाम का ही स्मरण करो॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਜਿਤੁ ਦਰਿ ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਐ ਸੋ ਦਰੁ ਸੇਵਿਹੁ ਨ ਕੋਇ ॥
जितु दरि लेखा मंगीऐ सो दरु सेविहु न कोइ ॥
जिस द्वार पर आस्था रखने के बावजूद भी हिसाब माँगा जाता है, उस द्वार की कोई सेवा मत करो।
ਐਸਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਲੋੜਿ ਲਹੁ ਜਿਸੁ ਜੇਵਡੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
ऐसा सतिगुरु लोड़ि लहु जिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥
अतः ऐसा सतिगुरु ढूंढ लो, जिस जैसा अन्य कोई बड़ा नहीं।
ਤਿਸੁ ਸਰਣਾਈ ਛੂਟੀਐ ਲੇਖਾ ਮੰਗੈ ਨ ਕੋਇ ॥
तिसु सरणाई छूटीऐ लेखा मंगै न कोइ ॥
उसकी शरण में आने से ही मुक्ति प्राप्त होती है और कोई भी हिसाब नहीं माँगता।
ਸਚੁ ਦ੍ਰਿੜਾਏ ਸਚੁ ਦ੍ਰਿੜੁ ਸਚਾ ਓਹੁ ਸਬਦੁ ਦੇਇ ॥
सचु द्रिड़ाए सचु द्रिड़ु सचा ओहु सबदु देइ ॥
सतिगुरु सत्य नाम जपता है, अन्यों को भी सत्य नाम जपवाता है और सच्चा शब्द ही प्रदान करता है।
ਹਿਰਦੈ ਜਿਸ ਦੈ ਸਚੁ ਹੈ ਤਨੁ ਮਨੁ ਭੀ ਸਚਾ ਹੋਇ ॥
हिरदै जिस दै सचु है तनु मनु भी सचा होइ ॥
जिसके हृदय में सत्य है, उसका तन-मन भी सच्चा हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਸਚੈ ਹੁਕਮਿ ਮੰਨਿਐ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ਦੇਇ ॥
नानक सचै हुकमि मंनिऐ सची वडिआई देइ ॥
हे नानक ! सच्चे परमात्मा के हुक्म को ही मानना चाहिए, क्योंकि वही सच्ची बड़ाई प्रदान करता है।
ਸਚੇ ਮਾਹਿ ਸਮਾਵਸੀ ਜਿਸ ਨੋ ਨਦਰਿ ਕਰੇਇ ॥੨॥
सचे माहि समावसी जिस नो नदरि करेइ ॥२॥
जिस पर वह अपनी कृपा-दृष्टि करता है, वह सत्य में ही विलीन हो जाता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਸੂਰੇ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਹਿ ਅਹੰਕਾਰਿ ਮਰਹਿ ਦੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ॥
सूरे एहि न आखीअहि अहंकारि मरहि दुखु पावहि ॥
वे शूरवीर कहलाने के हकदार नहीं, जो अहंकार में मरते और दुख पाते हैं।
ਅੰਧੇ ਆਪੁ ਨ ਪਛਾਣਨੀ ਦੂਜੈ ਪਚਿ ਜਾਵਹਿ ॥
अंधे आपु न पछाणनी दूजै पचि जावहि ॥
ऐसे अन्धे अर्थात् ज्ञानहीन अपने आपको नहीं पहचानते और द्वैतभाव में लीन रह कर बर्बाद हो जाते हैं।
ਅਤਿ ਕਰੋਧ ਸਿਉ ਲੂਝਦੇ ਅਗੈ ਪਿਛੈ ਦੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ॥
अति करोध सिउ लूझदे अगै पिछै दुखु पावहि ॥
वे अति क्रोध से दूसरों से लड़ते हैं और आगे-पीछे दुख ही पाते हैं।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਅਹੰਕਾਰੁ ਨ ਭਾਵਈ ਵੇਦ ਕੂਕਿ ਸੁਣਾਵਹਿ ॥
हरि जीउ अहंकारु न भावई वेद कूकि सुणावहि ॥
वेद पुकार-पुकार कर सुनाते हैं कि ईश्वर को अहंकार नहीं भाता।
ਅਹੰਕਾਰਿ ਮੁਏ ਸੇ ਵਿਗਤੀ ਗਏ ਮਰਿ ਜਨਮਹਿ ਫਿਰਿ ਆਵਹਿ ॥੯॥
अहंकारि मुए से विगती गए मरि जनमहि फिरि आवहि ॥९॥
जो अहंकार में मरते हैं, उनकी गति नहीं होती, अतः वे जन्म-मरण, आवागमन के चक्र में ही पड़े रहते हैं॥९॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਕਾਗਉ ਹੋਇ ਨ ਊਜਲਾ ਲੋਹੇ ਨਾਵ ਨ ਪਾਰੁ ॥
कागउ होइ न ऊजला लोहे नाव न पारु ॥
काला कोआ सफेद हंस नहीं बनता एवं लोहे की नाव से कोई भी नदिया से पार नहीं हो सकता।
ਪਿਰਮ ਪਦਾਰਥੁ ਮੰਨਿ ਲੈ ਧੰਨੁ ਸਵਾਰਣਹਾਰੁ ॥
पिरम पदारथु मंनि लै धंनु सवारणहारु ॥
जीवन सँवारने वाला परमात्मा धन्य है, उसके प्रेम-पदार्थ को मन में धारण कर लो जो हुक्म के भेद को पहचान लेता है, वही उज्ज्वल होता है
ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣੈ ਊਜਲਾ ਸਿਰਿ ਕਾਸਟ ਲੋਹਾ ਪਾਰਿ ॥
हुकमु पछाणै ऊजला सिरि कासट लोहा पारि ॥
जैसे लोहा लकड़ी की नाव से लगकर नदिया से पार हो जाता है, वैसे ही पतित जीव नाम के संग लगकर संसार-सागर से पार हो जाता है।
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਛੋਡੈ ਭੈ ਵਸੈ ਨਾਨਕ ਕਰਣੀ ਸਾਰੁ ॥੧॥
त्रिसना छोडै भै वसै नानक करणी सारु ॥१॥
हे नानक ! यही श्रेष्ठ कर्म है कि मनुष्य तृष्णा को छोड़ कर प्रभु-भय में बसा रहे॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਮਾਰੂ ਮਾਰਣ ਜੋ ਗਏ ਮਾਰਿ ਨ ਸਕਹਿ ਗਵਾਰ ॥
मारू मारण जो गए मारि न सकहि गवार ॥
जो व्यक्ति मरुस्थल अथवा वनों-तीर्थों में मन को मारने गए, ऐसे मूर्ख अपने मन को मार नहीं सके।
ਨਾਨਕ ਜੇ ਇਹੁ ਮਾਰੀਐ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥
नानक जे इहु मारीऐ गुर सबदी वीचारि ॥
हे नानक ! अगर इस मन को मारना है तो शब्द-गुरु के चिंतन द्वारा ही मारा जा सकता है।
ਏਹੁ ਮਨੁ ਮਾਰਿਆ ਨਾ ਮਰੈ ਜੇ ਲੋਚੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
एहु मनु मारिआ ना मरै जे लोचै सभु कोइ ॥
चाहे हर कोई चाहता है किन्तु यह मन मारने से भी नहीं मरता।
ਨਾਨਕ ਮਨ ਹੀ ਕਉ ਮਨੁ ਮਾਰਸੀ ਜੇ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੈ ਸੋਇ ॥੨॥
नानक मन ही कउ मनु मारसी जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥२॥
हे नानक ! अगर सतगुरु से साक्षात्कार हो जाए तो शुद्ध मन, अशुद्ध मन को मार देता है॥ २॥