ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਜੋ ਨਾਮਿ ਸਮਾਨੇ ਸੁੰਨ ਰਹਿਆ ਲਿਵ ਸੋਈ ॥੪॥੪॥
कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥
हे कबीर ! जो व्यक्ति परमात्मा के नाम में लीन रहता है, उसकी लगन शून्य-समाधि में लगी रहती है॥ ४॥ ४॥
ਜਉ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹ ਮੋ ਕਉ ਦੂਰਿ ਕਰਤ ਹਉ ਤਉ ਤੁਮ ਮੁਕਤਿ ਬਤਾਵਹੁ ॥
जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥
हे राम ! अगर तुम मुझे अपने से दूर करते हो तो तुम यह बताओ कि मुक्ति क्या है?
ਏਕ ਅਨੇਕ ਹੋਇ ਰਹਿਓ ਸਗਲ ਮਹਿ ਅਬ ਕੈਸੇ ਭਰਮਾਵਹੁ ॥੧॥
एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
एक तू ही अनेक रूप होकर सब में बसा हुआ है, अब भला कैसे भ्रम हो सकता है॥ १॥
ਰਾਮ ਮੋ ਕਉ ਤਾਰਿ ਕਹਾਂ ਲੈ ਜਈ ਹੈ ॥
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥
हे मेरे राम ! तुम मुझे पार करवाने के लिए कहाँ ले जाते हो ?
ਸੋਧਉ ਮੁਕਤਿ ਕਹਾ ਦੇਉ ਕੈਸੀ ਕਰਿ ਪ੍ਰਸਾਦੁ ਮੋਹਿ ਪਾਈ ਹੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ ॥
मुझे समझाओ केि मुक्ति कैसी है, मुझे मुक्ति कहाँ ले जाकर दोगे। मुक्ति तो मैंने पहले ही तेरी कृपा से पा ली है॥ १॥ रहाउ॥
ਤਾਰਨ ਤਰਨੁ ਤਬੈ ਲਗੁ ਕਹੀਐ ਜਬ ਲਗੁ ਤਤੁ ਨ ਜਾਨਿਆ ॥
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥
जब तक परमतत्व को नहीं जानता, तब तक मनुष्य संसार के बन्धनों से मुक्त करवाने व मुक्त होने की बात रहता है।
ਅਬ ਤਉ ਬਿਮਲ ਭਏ ਘਟ ਹੀ ਮਹਿ ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥੨॥੫॥
अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥
कबीर जी कहते हैं कि अब तो हम अपने शरीर में प्रभु का नाम जपकर पवित्र हो गए हैं और हमारा मन संतुष्ट हो गया है॥ २॥ ५॥
ਜਿਨਿ ਗੜ ਕੋਟ ਕੀਏ ਕੰਚਨ ਕੇ ਛੋਡਿ ਗਇਆ ਸੋ ਰਾਵਨੁ ॥੧॥
जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
जिसने सोने के दुर्ग एवं किले बनाए थे, यह रावण भी उन्हें यहीं छोड़ गया है॥ १॥
ਕਾਹੇ ਕੀਜਤੁ ਹੈ ਮਨਿ ਭਾਵਨੁ ॥
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥
हे प्राणी ! तू क्योंकर मनमर्जी करता है,
ਜਬ ਜਮੁ ਆਇ ਕੇਸ ਤੇ ਪਕਰੈ ਤਹ ਹਰਿ ਕੋ ਨਾਮੁ ਛਡਾਵਨ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ ॥
जब यम आकर केशों से पकड़ता है तो परमात्मा का नाम ही उससे छुड़वाता है॥ १॥ रहाउ॥
ਕਾਲੁ ਅਕਾਲੁ ਖਸਮ ਕਾ ਕੀਨੑਾ ਇਹੁ ਪਰਪੰਚੁ ਬਧਾਵਨੁ ॥
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥
यह काल भी अकालपुरुष का बनाया हुआ है, यह जगत-प्रपंच उसी ने बाँध रखा है।
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਤੇ ਅੰਤੇ ਮੁਕਤੇ ਜਿਨੑ ਹਿਰਦੈ ਰਾਮ ਰਸਾਇਨੁ ॥੨॥੬॥
कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥
कबीर जी कहते हैं किं जिनके हृदय में राम नाम रूपी रसायन होता है, वही अन्त में मुक्त होते हैं।॥ २॥ ६॥
ਦੇਹੀ ਗਾਵਾ ਜੀਉ ਧਰ ਮਹਤਉ ਬਸਹਿ ਪੰਚ ਕਿਰਸਾਨਾ ॥
देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥
यह शरीर एक गाँव है, जीव इस गाँव की धरती का स्वामी है और इस में काम, क्रोध रूपी पाँच किसान रहते हैं।
ਨੈਨੂ ਨਕਟੂ ਸ੍ਰਵਨੂ ਰਸਪਤਿ ਇੰਦ੍ਰੀ ਕਹਿਆ ਨ ਮਾਨਾ ॥੧॥
नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥
ये ऑखें, नाक, कान, जीभ एवं इन्दियाँ किसी का कहना नहीं मानते॥१॥
ਬਾਬਾ ਅਬ ਨ ਬਸਉ ਇਹ ਗਾਉ ॥
बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥
हे बाबा ! अब मैं इस गाँव में पुन: नहीं बसना चाहता,
ਘਰੀ ਘਰੀ ਕਾ ਲੇਖਾ ਮਾਗੈ ਕਾਇਥੁ ਚੇਤੂ ਨਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
क्योंकि यहाँ का चित्रगुप्त नामक मुंशी घड़ी-घड़ी का हिसाब-किताब मॉगता है। १॥ रहाउ॥
ਧਰਮ ਰਾਇ ਜਬ ਲੇਖਾ ਮਾਗੈ ਬਾਕੀ ਨਿਕਸੀ ਭਾਰੀ ॥
धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥
जब धर्मराज ने हिसाब मॉगा तो मेरी तरफ से बहुत भारी रकम बकाया निकली।
ਪੰਚ ਕ੍ਰਿਸਾਨਵਾ ਭਾਗਿ ਗਏ ਲੈ ਬਾਧਿਓ ਜੀਉ ਦਰਬਾਰੀ ॥੨॥
पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥
काम, क्रोध रूपी वे पाँच किसान तो कहीं भाग गए परन्तु जीव रूपी स्वामी को धर्मराज के दरबार में बाँध लिया गया॥ २॥
ਕਹੈ ਕਬੀਰੁ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਸੰਤਹੁ ਖੇਤ ਹੀ ਕਰਹੁ ਨਿਬੇਰਾ ॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥
कबीर जी कहते हैं कि हे संतजनो ! मेरी बात जरा ध्यानपूर्वक सुनो; अपने खेत में ही (अपने कर्मों का) हिसाब निपटा लो।
ਅਬ ਕੀ ਬਾਰ ਬਖਸਿ ਬੰਦੇ ਕਉ ਬਹੁਰਿ ਨ ਭਉਜਲਿ ਫੇਰਾ ॥੩॥੭॥
अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥
हे ईश्वर ! अब की बार तू बंदे को क्षमा कर दे और दोबारा संसार-समुद्र के चक्कर में मत डालना॥ ३॥ ७॥
ਰਾਗੁ ਮਾਰੂ ਬਾਣੀ ਕਬੀਰ ਜੀਉ ਕੀ
रागु मारू बाणी कबीर जीउ की
रागु मारू बाणी कबीर जीउ की
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਅਨਭਉ ਕਿਨੈ ਨ ਦੇਖਿਆ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥
हे वैरागी ! भक्ति-भावना के बिना ईश्वर को किसी ने नहीं देखा।
ਬਿਨੁ ਭੈ ਅਨਭਉ ਹੋਇ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੧॥
बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
दुनियावी भय से रहित होने पर ही भक्ति-भावना, सत्य का ज्ञान उत्पन्न होता है।॥ १॥
ਸਹੁ ਹਦੂਰਿ ਦੇਖੈ ਤਾਂ ਭਉ ਪਵੈ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥
जब मनुष्य मालिक प्रभु को साक्षात् देखता है तो ही उसके मन में प्रेम-भक्ति पैदा होती है।
ਹੁਕਮੈ ਬੂਝੈ ਤ ਨਿਰਭਉ ਹੋਇ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੨॥
हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
जब वह उसके हुक्म को बूझ लेता है तो ही निर्भय होता है।॥ २॥
ਹਰਿ ਪਾਖੰਡੁ ਨ ਕੀਜਈ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥
(यदि भगवान् को पाना चाहते हो तो) कोई पाखण्ड नहीं करना चाहिए।
ਪਾਖੰਡਿ ਰਤਾ ਸਭੁ ਲੋਕੁ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੩॥
पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
मगर संसार के सब लोग पाखण्ड में ही लीन हैं।॥ ३॥
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਪਾਸੁ ਨ ਛੋਡਈ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥
तृष्णा कदापि साथ नहीं छोड़ती और
ਮਮਤਾ ਜਾਲਿਆ ਪਿੰਡੁ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੪॥
ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
ममता ने तो शरीर को ही जला दिया है। ४॥
ਚਿੰਤਾ ਜਾਲਿ ਤਨੁ ਜਾਲਿਆ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥ ਜੇ ਮਨੁ ਮਿਰਤਕੁ ਹੋਇ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੫॥
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥ जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
यदि मन अहम्-भावना के प्रति मृत हो जाए तो चिंता को तजकर साधना द्वारा ही तन की ममता को मिटाया जा सकता है॥ ५॥
ਸਤਿਗੁਰ ਬਿਨੁ ਬੈਰਾਗੁ ਨ ਹੋਵਈ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥
हे वैरागी ! चाहे सब लोग वैराग्य पाना चाहते हैं
ਜੇ ਲੋਚੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੬॥
जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
किन्तु सतगुरु के बिना वैराग्य उत्पन्न नहीं होता।॥ ६॥
ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥
यदि उत्तम भाग्य हो तो ही सतगुरु मिलता है और
ਸਹਜੇ ਪਾਵੈ ਸੋਇ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੭॥
सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
सहज ही सत्य की प्राप्ति हो जाती है॥ ७॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਇਕ ਬੇਨਤੀ ਬੈਰਾਗੀਅੜੇ ॥
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥
कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा से मेरी एक यही विनती है कि
ਮੋ ਕਉ ਭਉਜਲੁ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰਿ ਵਣਾਹੰਬੈ ॥੮॥੧॥੮॥
मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥
मुझे भवसागर से पार उतार दो॥ ८॥ १॥ ८॥