ਸਾਚ ਸਬਦ ਬਿਨੁ ਕਬਹੁ ਨ ਛੂਟਸਿ ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਭਇਓ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साच सबद बिनु कबहु न छूटसि बिरथा जनमु भइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सच्चे शब्द के बिना कभी छुटकारा नहीं हो सकता, यह मनुष्य जन्म निरर्थक जा रहा है॥१॥ रहाउ॥
ਤਨ ਮਹਿ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਹਉ ਮਮਤਾ ਕਠਿਨ ਪੀਰ ਅਤਿ ਭਾਰੀ ॥
तन महि कामु क्रोधु हउ ममता कठिन पीर अति भारी ॥
शरीर में काम, क्रोध, अहम् व ममत्व अत्यंत भारी दर्द प्रदान करते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਾਮ ਜਪਹੁ ਰਸੁ ਰਸਨਾ ਇਨ ਬਿਧਿ ਤਰੁ ਤੂ ਤਾਰੀ ॥੨॥
गुरमुखि राम जपहु रसु रसना इन बिधि तरु तू तारी ॥२॥
गुरु के माध्यम से आनंदपूर्वक जिह्म से ईश्वर का भजन करो; इस तरीके से संसार-सागर को पार किया जा सकता है॥२॥
ਬਹਰੇ ਕਰਨ ਅਕਲਿ ਭਈ ਹੋਛੀ ਸਬਦ ਸਹਜੁ ਨਹੀ ਬੂਝਿਆ ॥
बहरे करन अकलि भई होछी सबद सहजु नही बूझिआ ॥
कान बहरे हो गए हैं, बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है, शब्द के भेद को बूझा नहीं।
ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਮਨਮੁਖਿ ਹਾਰਿਆ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਅੰਧੁ ਨ ਸੂਝਿਆ ॥੩॥
जनमु पदारथु मनमुखि हारिआ बिनु गुर अंधु न सूझिआ ॥३॥
इस तरह मनमुखी जीव ने अमूल्य जन्म हार दिया है और गुरु के बिना अज्ञानांध जीव को कोई सूझ प्राप्त नहीं होती॥३॥
ਰਹੈ ਉਦਾਸੁ ਆਸ ਨਿਰਾਸਾ ਸਹਜ ਧਿਆਨਿ ਬੈਰਾਗੀ ॥
रहै उदासु आस निरासा सहज धिआनि बैरागी ॥
अगर जीवन की आशाओं को छोड़कर निर्लिप्त हुआ जाए और वैराग्यवान होकर सहज स्वाभाविक ईश्वर में ध्यान लगा रहे,
ਪ੍ਰਣਵਤਿ ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਛੂਟਸਿ ਰਾਮ ਨਾਮਿ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ॥੪॥੨॥੩॥
प्रणवति नानक गुरमुखि छूटसि राम नामि लिव लागी ॥४॥२॥३॥
गुरु नानक का फुरमान है कि गुरु के सान्निध्य में राम नाम में लगन लगाने से संसार के बन्धनों से छुटकारा हो जाता है॥४॥२॥३॥
ਭੈਰਉ ਮਹਲਾ ੧ ॥
भैरउ महला १ ॥
भैरउ महला १॥
ਭੂੰਡੀ ਚਾਲ ਚਰਣ ਕਰ ਖਿਸਰੇ ਤੁਚਾ ਦੇਹ ਕੁਮਲਾਨੀ ॥
भूंडी चाल चरण कर खिसरे तुचा देह कुमलानी ॥
चाल खराब एवं हाथ-पैर शिथिल हो गए हैं, शरीर की त्वचा भी कुम्हला चुकी है।
ਨੇਤ੍ਰੀ ਧੁੰਧਿ ਕਰਨ ਭਏ ਬਹਰੇ ਮਨਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਨ ਜਾਨੀ ॥੧॥
नेत्री धुंधि करन भए बहरे मनमुखि नामु न जानी ॥१॥
ऑखों से धुंधला दिखाई देने लग गया है, कान भी बहरे हो गए हैं, मगर मनमुखी जीव ने प्रभु-नाम की महत्ता को नहीं जाना॥१॥
ਅੰਧੁਲੇ ਕਿਆ ਪਾਇਆ ਜਗਿ ਆਇ ॥
अंधुले किआ पाइआ जगि आइ ॥
अरे अन्धे ! जगत में आकर तूने क्या पाया है,
ਰਾਮੁ ਰਿਦੈ ਨਹੀ ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਚਾਲੇ ਮੂਲੁ ਗਵਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
रामु रिदै नही गुर की सेवा चाले मूलु गवाइ ॥१॥ रहाउ ॥
राम की स्मृति हृदय में नहीं, न ही गुरु की सेवा की, तू अपना मूल गंवाकर भी चलता बन रहा है॥१॥ रहाउ॥
ਜਿਹਵਾ ਰੰਗਿ ਨਹੀ ਹਰਿ ਰਾਤੀ ਜਬ ਬੋਲੈ ਤਬ ਫੀਕੇ ॥
जिहवा रंगि नही हरि राती जब बोलै तब फीके ॥
तेरी जिव्हा प्रभु के रंग में लीन नहीं हुई, जब भी बोले, तब फीका ही बोले।
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ਵਿਆਪਸਿ ਪਸੂ ਭਏ ਕਦੇ ਹੋਹਿ ਨ ਨੀਕੇ ॥੨॥
संत जना की निंदा विआपसि पसू भए कदे होहि न नीके ॥२॥
संतजनों की निंदा करते तुम पशु ही बन गए हो, मगर कभी भले न बन सके॥२॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਕਾ ਰਸੁ ਵਿਰਲੀ ਪਾਇਆ ਸਤਿਗੁਰ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਏ ॥
अम्रित का रसु विरली पाइआ सतिगुर मेलि मिलाए ॥
सतगुरु के संपर्क में हरिनाम-अमृत का रस किसी विरले ने ही पाया है।
ਜਬ ਲਗੁ ਸਬਦ ਭੇਦੁ ਨਹੀ ਆਇਆ ਤਬ ਲਗੁ ਕਾਲੁ ਸੰਤਾਏ ॥੩॥
जब लगु सबद भेदु नही आइआ तब लगु कालु संताए ॥३॥
जब तक शब्द का भेद ज्ञात नहीं होता, तब तक जीव को काल तंग करता रहता है॥३॥
ਅਨ ਕੋ ਦਰੁ ਘਰੁ ਕਬਹੂ ਨ ਜਾਨਸਿ ਏਕੋ ਦਰੁ ਸਚਿਆਰਾ ॥
अन को दरु घरु कबहू न जानसि एको दरु सचिआरा ॥
जिसने अन्य घर-द्वार (अर्थात् देवी-देवताओं) को कभी न मानते हुए एक परमेश्वर पर ही अटूट श्रद्धा धारण की है, वही सत्यनिष्ठ है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ਨਾਨਕੁ ਕਹੈ ਵਿਚਾਰਾ ॥੪॥੩॥੪॥
गुर परसादि परम पदु पाइआ नानकु कहै विचारा ॥४॥३॥४॥
नानक विचार कर कहते हैं कि गुरु की कृपा से उसे परमपद प्राप्त हो गया है॥४॥३॥४॥
ਭੈਰਉ ਮਹਲਾ ੧ ॥
भैरउ महला १ ॥
भैरउ महला १॥
ਸਗਲੀ ਰੈਣਿ ਸੋਵਤ ਗਲਿ ਫਾਹੀ ਦਿਨਸੁ ਜੰਜਾਲਿ ਗਵਾਇਆ ॥
सगली रैणि सोवत गलि फाही दिनसु जंजालि गवाइआ ॥
सारी रात परेशानियों का गले में फदा डालकर सोते रहे और दिन जंजाल में गंवा दिया।
ਖਿਨੁ ਪਲੁ ਘੜੀ ਨਹੀ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਨਿਆ ਜਿਨਿ ਇਹੁ ਜਗਤੁ ਉਪਾਇਆ ॥੧॥
खिनु पलु घड़ी नही प्रभु जानिआ जिनि इहु जगतु उपाइआ ॥१॥
जिसने यह जगत उत्पन्न किया है, उस प्रभु का तुमने क्षण, पल, घड़ी स्मरण ही नहीं किया॥१॥
ਮਨ ਰੇ ਕਿਉ ਛੂਟਸਿ ਦੁਖੁ ਭਾਰੀ ॥
मन रे किउ छूटसि दुखु भारी ॥
हे मन, फिर भारी दुखों से तेरा कैसे छुटकारा हो सकता है।
ਕਿਆ ਲੇ ਆਵਸਿ ਕਿਆ ਲੇ ਜਾਵਸਿ ਰਾਮ ਜਪਹੁ ਗੁਣਕਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
किआ ले आवसि किआ ले जावसि राम जपहु गुणकारी ॥१॥ रहाउ ॥
तू क्या लेकर आया था और क्या लेकर चला जाएगा, राम का भजन कर ले, यही लाभप्रद है॥ १॥ रहाउ॥
ਊਂਧਉ ਕਵਲੁ ਮਨਮੁਖ ਮਤਿ ਹੋਛੀ ਮਨਿ ਅੰਧੈ ਸਿਰਿ ਧੰਧਾ ॥
ऊंधउ कवलु मनमुख मति होछी मनि अंधै सिरि धंधा ॥
स्वेच्छाचारी का हृदय कमल औधा पड़ा है, बुद्धि भी ओच्छी हो गई है, मन अन्धा बनकर संसार के धंधों में लिप्त है।
ਕਾਲੁ ਬਿਕਾਲੁ ਸਦਾ ਸਿਰਿ ਤੇਰੈ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਗਲਿ ਫੰਧਾ ॥੨॥
कालु बिकालु सदा सिरि तेरै बिनु नावै गलि फंधा ॥२॥
विकराल काल सदा तेरे सिर पर खड़ा है और हरिनाम बिना गले में फन्दा ही पड़ता है॥२॥
ਡਗਰੀ ਚਾਲ ਨੇਤ੍ਰ ਫੁਨਿ ਅੰਧੁਲੇ ਸਬਦ ਸੁਰਤਿ ਨਹੀ ਭਾਈ ॥
डगरी चाल नेत्र फुनि अंधुले सबद सुरति नही भाई ॥
तेरी चाल विकृत हो गई है, आँखें भी अन्धी हो चुकी हैं मगर सुरति को शब्द अच्छा नहीं लगा।
ਸਾਸਤ੍ਰ ਬੇਦ ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਹੈ ਮਾਇਆ ਅੰਧੁਲਉ ਧੰਧੁ ਕਮਾਈ ॥੩॥
सासत्र बेद त्रै गुण है माइआ अंधुलउ धंधु कमाई ॥३॥
शास्त्र, वेद, तीन गुण मायावी हैं, मगर जीव अन्धा बनकर जगत के धंधों में लिप्त है॥३॥
ਖੋਇਓ ਮੂਲੁ ਲਾਭੁ ਕਹ ਪਾਵਸਿ ਦੁਰਮਤਿ ਗਿਆਨ ਵਿਹੂਣੇ ॥
खोइओ मूलु लाभु कह पावसि दुरमति गिआन विहूणे ॥
हे दुर्मति ज्ञानविहीन ! मूलधन तो खो दिया है, फिर लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है।
ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰਿ ਰਾਮ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਨਾਨਕ ਸਾਚਿ ਪਤੀਣੇ ॥੪॥੪॥੫॥
सबदु बीचारि राम रसु चाखिआ नानक साचि पतीणे ॥४॥४॥५॥
गुरु नानक का मत है कि जिसने शब्द का गहन चिंतन कर राम रस को चखा है, वह सत्य से प्रसन्न हो गया।॥४॥४॥५॥
ਭੈਰਉ ਮਹਲਾ ੧ ॥
भैरउ महला १ ॥
भैरउ महला १॥
ਗੁਰ ਕੈ ਸੰਗਿ ਰਹੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਰਾਮੁ ਰਸਨਿ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ॥
गुर कै संगि रहै दिनु राती रामु रसनि रंगि राता ॥
जो दिन-रात गुरु की संगत में रहता है, जिसकी जिव्हा राम के रंग में लीन रहती है,
ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਣਸਿ ਸਬਦੁ ਪਛਾਣਸਿ ਅੰਤਰਿ ਜਾਣਿ ਪਛਾਤਾ ॥੧॥
अवरु न जाणसि सबदु पछाणसि अंतरि जाणि पछाता ॥१॥
वह प्रभु-शब्द में निष्ठा रखकर किसी अन्य को नहीं मानता और अन्तर्मन में परम-सत्य को पहचान लेता है॥१॥
ਸੋ ਜਨੁ ਐਸਾ ਮੈ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥
सो जनु ऐसा मै मनि भावै ॥
सो ऐसा सज्जन ही मेरे मन को भाता है,
ਆਪੁ ਮਾਰਿ ਅਪਰੰਪਰਿ ਰਾਤਾ ਗੁਰ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
आपु मारि अपर्मपरि राता गुर की कार कमावै ॥१॥ रहाउ ॥
वह अहम् को मारकरं प्रभु में लीन रहता है और गुरु की सेवा करता रहता है।॥१॥ रहाउ॥
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਆਦਿ ਪੁਰਖੁ ਆਦੇਸੋ ॥
अंतरि बाहरि पुरखु निरंजनु आदि पुरखु आदेसो ॥
अन्तर-बाहर सबमें परमपुरुष परमेश्वर ही व्याप्त है और उस आदिपुरुष को हमारा शत्-शत् प्रणाम है।
ਘਟ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸਚੁ ਵੇਸੋ ॥੨॥
घट घट अंतरि सरब निरंतरि रवि रहिआ सचु वेसो ॥२॥
वह सत्यस्वरूप घट-घट सबमें रमण कर रहा है॥२॥