ਪੰਡਿਤ ਮੁਲਾਂ ਛਾਡੇ ਦੋਊ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ ॥
क्योंकि पण्डित एवं मुल्ला दोनों को त्याग दिया है॥१॥ रहाउ॥
ਬੁਨਿ ਬੁਨਿ ਆਪ ਆਪੁ ਪਹਿਰਾਵਉ ॥
बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥
आप (अहम्) बुन बुनकर उसे ही पहन रहा हूँ।
ਜਹ ਨਹੀ ਆਪੁ ਤਹਾ ਹੋਇ ਗਾਵਉ ॥੨॥
जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥
जहाँ अहम् नहीं, उसका ही गुण गाता हूँ॥२॥
ਪੰਡਿਤ ਮੁਲਾਂ ਜੋ ਲਿਖਿ ਦੀਆ ॥
पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥
पण्डितों एवं मुल्लाओं ने जो लिख दिया है,
ਛਾਡਿ ਚਲੇ ਹਮ ਕਛੂ ਨ ਲੀਆ ॥੩॥
छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥
उसे छोड़कर हम आगे चल पड़े हैं और कुछ भी साथ नहीं लिया॥३॥
ਰਿਦੈ ਇਖਲਾਸੁ ਨਿਰਖਿ ਲੇ ਮੀਰਾ ॥
रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥
कबीर जी कहते हैं कि हे बन्धु ! हृदय में प्रेम भरकर देख लो,
ਆਪੁ ਖੋਜਿ ਖੋਜਿ ਮਿਲੇ ਕਬੀਰਾ ॥੪॥੭॥
आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥
मन में खोज-खोज कर प्रभु से साक्षात्कार होता है।॥४॥७॥
ਨਿਰਧਨ ਆਦਰੁ ਕੋਈ ਨ ਦੇਇ ॥
निरधन आदरु कोई न देइ ॥
निर्धन को कोई आदर नहीं देता,
ਲਾਖ ਜਤਨ ਕਰੈ ਓਹੁ ਚਿਤਿ ਨ ਧਰੇਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ ॥
बेशक वह लाखों प्रयास करे, तो भी धनवान् उसकी ओर ध्यान नहीं देते॥१॥ रहाउ॥
ਜਉ ਨਿਰਧਨੁ ਸਰਧਨ ਕੈ ਜਾਇ ॥
जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥
अगर निर्धन धनवान् के पास जाता है तो
ਆਗੇ ਬੈਠਾ ਪੀਠਿ ਫਿਰਾਇ ॥੧॥
आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥
आगे बैठा धनी व्यक्ति मुँह फेर लेता है॥१॥
ਜਉ ਸਰਧਨੁ ਨਿਰਧਨ ਕੈ ਜਾਇ ॥
जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥
अगर धनवान् निर्धन के घर जाता है,
ਦੀਆ ਆਦਰੁ ਲੀਆ ਬੁਲਾਇ ॥੨॥
दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥
तो वह आदरपूर्वक स्वागत् कर बुलाता है॥२॥
ਨਿਰਧਨੁ ਸਰਧਨੁ ਦੋਨਉ ਭਾਈ ॥
निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥
दरअसल निर्धन एवं धनवान् दोनों भाई ही हैं,
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਕਲਾ ਨ ਮੇਟੀ ਜਾਈ ॥੩॥
प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥
अतः प्रभु की रज़ा को टाला नहीं जा सकता॥३॥
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਨਿਰਧਨੁ ਹੈ ਸੋਈ ॥
कहि कबीर निरधनु है सोई ॥
कबीर जी कहते हैं कि दरअसल निर्धन वही है,
ਜਾ ਕੇ ਹਿਰਦੈ ਨਾਮੁ ਨ ਹੋਈ ॥੪॥੮॥
जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥
जिसके हृदय में प्रभु-नाम नहीं होता॥४॥ ८॥
ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਭਗਤਿ ਕਮਾਈ ॥
गुर सेवा ते भगति कमाई ॥
गुरु की सेवा व भक्ति से ही
ਤਬ ਇਹ ਮਾਨਸ ਦੇਹੀ ਪਾਈ ॥
तब इह मानस देही पाई ॥
यह मानव-शरीर प्राप्त होता है।
ਇਸ ਦੇਹੀ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਦੇਵ ॥
इस देही कउ सिमरहि देव ॥
इस अमोल शरीर को पाने की देवता भी आकांक्षा करते हैं।
ਸੋ ਦੇਹੀ ਭਜੁ ਹਰਿ ਕੀ ਸੇਵ ॥੧॥
सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥
सो इस शरीर में सदैव परमात्मा की उपासना एवं भजन करो॥ १॥
ਭਜਹੁ ਗੋੁਬਿੰਦ ਭੂਲਿ ਮਤ ਜਾਹੁ ॥
भजहु गोबिंद भूलि मत जाहु ॥
भगवान का भजन करो, (ध्यान रखना) भूल मत जाना
ਮਾਨਸ ਜਨਮ ਕਾ ਏਹੀ ਲਾਹੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ ॥
मानव शरीर का यही लाभ है॥१॥ रहाउ॥
ਜਬ ਲਗੁ ਜਰਾ ਰੋਗੁ ਨਹੀ ਆਇਆ ॥
जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥
जब तक बुढ़ापा एवं रोग शिकार नहीं बनाता,
ਜਬ ਲਗੁ ਕਾਲਿ ਗ੍ਰਸੀ ਨਹੀ ਕਾਇਆ ॥
जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥
जब तक मृत्यु शरीर को ग्रास नहीं बनाती,
ਜਬ ਲਗੁ ਬਿਕਲ ਭਈ ਨਹੀ ਬਾਨੀ ॥
जब लगु बिकल भई नही बानी ॥
जब तक वाणी कमजोर नहीं होती,
ਭਜਿ ਲੇਹਿ ਰੇ ਮਨ ਸਾਰਿਗਪਾਨੀ ॥੨॥
भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥
तब तक हे मन ! ईश्वर का भजन कर लो॥२॥
ਅਬ ਨ ਭਜਸਿ ਭਜਸਿ ਕਬ ਭਾਈ ॥
अब न भजसि भजसि कब भाई ॥
हे भाई ! अब भजन न किया तो कब भजन होगा।
ਆਵੈ ਅੰਤੁ ਨ ਭਜਿਆ ਜਾਈ ॥
आवै अंतु न भजिआ जाई ॥
अन्तिम समय आने पर भजन नहीं हो पाएगा।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰਹਿ ਸੋਈ ਅਬ ਸਾਰੁ ॥
जो किछु करहि सोई अब सारु ॥
अतः जो कुछ करना है, अब ही पूरा कर लो,
ਫਿਰਿ ਪਛੁਤਾਹੁ ਨ ਪਾਵਹੁ ਪਾਰੁ ॥੩॥
फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥
अन्यथा पछतावे के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा॥३॥
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਜੋ ਲਾਇਆ ਸੇਵ ॥
सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥
सेवक वही है, जिसे परमात्मा ने सेवा में लगाया है,
ਤਿਨ ਹੀ ਪਾਏ ਨਿਰੰਜਨ ਦੇਵ ॥
तिन ही पाए निरंजन देव ॥
वही भगवान को पा लेता है।
ਗੁਰ ਮਿਲਿ ਤਾ ਕੇ ਖੁਲ੍ਹ੍ਹੇ ਕਪਾਟ ॥
गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥
गुरु से साक्षात्कार होने पर मन के कपाट खुल जाते हैं और
ਬਹੁਰਿ ਨ ਆਵੈ ਜੋਨੀ ਬਾਟ ॥੪॥
बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥
पुनः आवागमन नहीं होता॥४॥
ਇਹੀ ਤੇਰਾ ਅਉਸਰੁ ਇਹ ਤੇਰੀ ਬਾਰ ॥ ਘਟ ਭੀਤਰਿ ਤੂ ਦੇਖੁ ਬਿਚਾਰਿ ॥
इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥ घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥
हे मनुष्य ! ईश्वर को पाने का यही तेरा सुनहरी अवसर है और यही तेरा शुभ समय है, दिल में विचार कर तू सच्चाई को समझ।
ਕਹਤ ਕਬੀਰੁ ਜੀਤਿ ਕੈ ਹਾਰਿ ॥ ਬਹੁ ਬਿਧਿ ਕਹਿਓ ਪੁਕਾਰਿ ਪੁਕਾਰਿ ॥੫॥੧॥੯॥
कहत कबीरु जीति कै हारि ॥ बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥
हे मनुष्य ! अब यह तुझ पर निर्भर है, जीवन बाजी को जीतना है या हारना है कबीर जी कहते हैं कि मैंने पुकार-पुकार कर अनेक प्रकार से बता दिया है॥५॥१॥६॥
ਸਿਵ ਕੀ ਪੁਰੀ ਬਸੈ ਬੁਧਿ ਸਾਰੁ ॥
सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥
हे जीव ! दसम द्वार में उत्तम बुद्धि स्थित है,
ਤਹ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹ ਮਿਲਿ ਕੈ ਕਰਹੁ ਬਿਚਾਰੁ ॥
तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥
उसे पा कर तुम विचार करो,
ਈਤ ਊਤ ਕੀ ਸੋਝੀ ਪਰੈ ॥
ईत ऊत की सोझी परै ॥
इसके फलस्वरूप लोक परलोक का ज्ञान होगा।
ਕਉਨੁ ਕਰਮ ਮੇਰਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਮਰੈ ॥੧॥
कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥
मैं-मेरा कर कर मरने का क्या फायदा है॥१॥
ਨਿਜ ਪਦ ਊਪਰਿ ਲਾਗੋ ਧਿਆਨੁ ॥
निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥
आत्म-स्वरूप (सच्चे घर) पर मेरा ध्यान लगा हुआ है और
ਰਾਜਾ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਮੋਰਾ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥
राम नाम ही मेरा ब्रह्म ज्ञान है॥१॥ रहाउ॥
ਮੂਲ ਦੁਆਰੈ ਬੰਧਿਆ ਬੰਧੁ ॥
मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥
अन्तर्मन को मूल द्वार प्रभु में बाँधा हुआ है।
ਰਵਿ ਊਪਰਿ ਗਹਿ ਰਾਖਿਆ ਚੰਦੁ ॥
रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥
तमोगुणी रूपी रवि पर सतोगुणी रूपी चांद को रखा है।
ਪਛਮ ਦੁਆਰੈ ਸੂਰਜੁ ਤਪੈ ॥
पछम दुआरै सूरजु तपै ॥
अज्ञान रूपी पश्चिम में ज्ञान रूपी सूर्य तप रहा है।
ਮੇਰ ਡੰਡ ਸਿਰ ਊਪਰਿ ਬਸੈ ॥੨॥
मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥
अन्तर्मन में ईश्वर का ध्यान बस रहा है॥२॥
ਪਸਚਮ ਦੁਆਰੇ ਕੀ ਸਿਲ ਓੜ ॥
पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥
पश्चिम द्वार की ओर शिला है और
ਤਿਹ ਸਿਲ ਊਪਰਿ ਖਿੜਕੀ ਅਉਰ ॥
तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥
उस शिला पर एक अन्य खिड़की है ?
ਖਿੜਕੀ ਊਪਰਿ ਦਸਵਾ ਦੁਆਰੁ ॥
खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥
उस खिड़की पर दसम द्वार है।
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਤਾ ਕਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰੁ ॥੩॥੨॥੧੦॥
कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥
कबीर जी कहते हैं कि उसका कोई अन्त अथवा आर-पार नहीं॥३॥२॥ १०॥
ਸੋ ਮੁਲਾਂ ਜੋ ਮਨ ਸਿਉ ਲਰੈ ॥
सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥
सच्चा मुल्ला वही है, जो मन से लड़ता है और
ਗੁਰ ਉਪਦੇਸਿ ਕਾਲ ਸਿਉ ਜੁਰੈ ॥
गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥
गुरु के उपदेश द्वारा काल से संघर्ष करता है।
ਕਾਲ ਪੁਰਖ ਕਾ ਮਰਦੈ ਮਾਨੁ ॥
काल पुरख का मरदै मानु ॥
यमराज के मान का मर्दन करता है तो
ਤਿਸੁ ਮੁਲਾ ਕਉ ਸਦਾ ਸਲਾਮੁ ॥੧॥
तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥
उस मुल्ला को मेरा सदा सलाम है॥१॥