ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਗੜ੍ਹ੍ਹਿ ਕਾਇਆ ਸੀਗਾਰ ਬਹੁ ਭਾਂਤਿ ਬਣਾਈ ॥
गड़्हि काइआ सीगार बहु भांति बणाई ॥
शरीर रूपी किले को अनेक प्रकार से श्रृंगार कर बनाया गया है।
ਰੰਗ ਪਰੰਗ ਕਤੀਫਿਆ ਪਹਿਰਹਿ ਧਰ ਮਾਈ ॥
रंग परंग कतीफिआ पहिरहि धर माई ॥
जीव रंग-बिरंगे वस्त्र इस पर पहनता है।
ਲਾਲ ਸੁਪੇਦ ਦੁਲੀਚਿਆ ਬਹੁ ਸਭਾ ਬਣਾਈ ॥
लाल सुपेद दुलीचिआ बहु सभा बणाई ॥
वह लाल, सफेद गद्दों, बिस्तरों को कमरे में सजाता है और
ਦੁਖੁ ਖਾਣਾ ਦੁਖੁ ਭੋਗਣਾ ਗਰਬੈ ਗਰਬਾਈ ॥
दुखु खाणा दुखु भोगणा गरबै गरबाई ॥
अभिमान में दुखों को ही खाता एवं भोगता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਿਓ ਅੰਤਿ ਲਏ ਛਡਾਈ ॥੨੪॥
नानक नामु न चेतिओ अंति लए छडाई ॥२४॥
हे नानक ! लेकिन अन्तिम समय मुक्त करवाने वाले हरि-नाम को याद नहीं करता॥२४॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਸਹਜੇ ਸੁਖਿ ਸੁਤੀ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ॥
सहजे सुखि सुती सबदि समाइ ॥
शब्द में लीन रहकर स्वाभाविक ही सुखी हूँ।
ਆਪੇ ਪ੍ਰਭਿ ਮੇਲਿ ਲਈ ਗਲਿ ਲਾਇ ॥
आपे प्रभि मेलि लई गलि लाइ ॥
प्रभु ने स्वयं गले लगाकर मिला लिया है।
ਦੁਬਿਧਾ ਚੂਕੀ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
दुबिधा चूकी सहजि सुभाइ ॥
सहज स्वाभाविक दुविधा दूर हो गई है और
ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥
अंतरि नामु वसिआ मनि आइ ॥
मन में हरि-नाम आ बसा है।
ਸੇ ਕੰਠਿ ਲਾਏ ਜਿ ਭੰਨਿ ਘੜਾਇ ॥
से कंठि लाए जि भंनि घड़ाइ ॥
जो अन्तर्मन को तोड़कर नया बनाता है, ईश्वर उसे गले से लगा लेता है।
ਨਾਨਕ ਜੋ ਧੁਰਿ ਮਿਲੇ ਸੇ ਹੁਣਿ ਆਣਿ ਮਿਲਾਇ ॥੧॥
नानक जो धुरि मिले से हुणि आणि मिलाइ ॥१॥
हे नानक ! जिसके भाग्य में आरम्भ से मिलन है, वे अब भी आकर मिल गए हैं।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਜਿਨੑੀ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਕਿਆ ਜਪੁ ਜਾਪਹਿ ਹੋਰਿ ॥
जिन्ही नामु विसारिआ किआ जपु जापहि होरि ॥
जिन्होंने हरि-नाम को भुला दिया है, उनके लिए अन्य पाठ-पूजा व्यर्थ है।
ਬਿਸਟਾ ਅੰਦਰਿ ਕੀਟ ਸੇ ਮੁਠੇ ਧੰਧੈ ਚੋਰਿ ॥
बिसटा अंदरि कीट से मुठे धंधै चोरि ॥
दुनियावी धंधों में लिप्त ऐसे लोग विष्ठा में कीट की मानिंद हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਝੂਠੇ ਲਾਲਚ ਹੋਰਿ ॥੨॥
नानक नामु न वीसरै झूठे लालच होरि ॥२॥
हे नानक ! हमें परमात्मा का नाम विस्मृत न हो, क्योंकि अन्य लालच झूठे हैं।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਨਿ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਅਸਥਿਰੁ ਜਗਿ ਸੋਈ ॥
नामु सलाहनि नामु मंनि असथिरु जगि सोई ॥
जो हरि-नाम की सराहना करते हैं, नाम का मनन करते हैं, वही जगत में स्थिर हैं।
ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਚਿਤਵੈ ਦੂਜਾ ਨਹੀ ਕੋਈ ॥
हिरदै हरि हरि चितवै दूजा नही कोई ॥
उनके हृदय में परमात्मा की याद बनी रहती है एवं अन्य कोई नहीं होता।
ਰੋਮਿ ਰੋਮਿ ਹਰਿ ਉਚਰੈ ਖਿਨੁ ਖਿਨੁ ਹਰਿ ਸੋਈ ॥
रोमि रोमि हरि उचरै खिनु खिनु हरि सोई ॥
वे रोम-रोम से परमात्मा का नामोच्चारण करते हैं और पल-पल एक वही बना रहता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਨਮੁ ਸਕਾਰਥਾ ਨਿਰਮਲੁ ਮਲੁ ਖੋਈ ॥
गुरमुखि जनमु सकारथा निरमलु मलु खोई ॥
ऐसे गुरमुखों का जन्म सफल होता है और मन की मैल दूर करके वे निर्मल बने रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਜੀਵਦਾ ਪੁਰਖੁ ਧਿਆਇਆ ਅਮਰਾ ਪਦੁ ਹੋਈ ॥੨੫॥
नानक जीवदा पुरखु धिआइआ अमरा पदु होई ॥२५॥
हे नानक ! जीते जी परमेश्वर का ध्यान करने वाले मोक्ष के हकदार होते हैं॥२५॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਜਿਨੀ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਬਹੁ ਕਰਮ ਕਮਾਵਹਿ ਹੋਰਿ ॥
जिनी नामु विसारिआ बहु करम कमावहि होरि ॥
जो परमात्मा के नाम को भुलाकर अन्य कर्मकाण्डों में लीन रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਜਮ ਪੁਰਿ ਬਧੇ ਮਾਰੀਅਹਿ ਜਿਉ ਸੰਨੑੀ ਉਪਰਿ ਚੋਰ ॥੧॥
नानक जम पुरि बधे मारीअहि जिउ संन्ही उपरि चोर ॥१॥
नानक का कथन है कि ऐसे लोगों की यमपुरी में ऐसे पिटाई होती है, जैसे चोरी करने वाले चोर का हाल होता है॥१॥
ਮਃ ੫ ॥
मः ५ ॥
महला ५॥
ਧਰਤਿ ਸੁਹਾਵੜੀ ਆਕਾਸੁ ਸੁਹੰਦਾ ਜਪੰਦਿਆ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥
धरति सुहावड़ी आकासु सुहंदा जपंदिआ हरि नाउ ॥
परमात्मा का भजन करने वाले जिज्ञासुओं के लिए धरती सुहावनी होती है और आकाश भी सुन्दर लगता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਵਿਹੂਣਿਆ ਤਿਨੑ ਤਨ ਖਾਵਹਿ ਕਾਉ ॥੨॥
नानक नाम विहूणिआ तिन्ह तन खावहि काउ ॥२॥
हे नानक ! नाम से विहीन लोगों का शरीर कौए ही खाते हैं।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਨਿ ਭਾਉ ਕਰਿ ਨਿਜ ਮਹਲੀ ਵਾਸਾ ॥
नामु सलाहनि भाउ करि निज महली वासा ॥
जो प्रेमपूर्वक हरि-नाम की प्रशंसा करते हैं, वे अपने सच्चे घर में रहते हैं।
ਓਇ ਬਾਹੁੜਿ ਜੋਨਿ ਨ ਆਵਨੀ ਫਿਰਿ ਹੋਹਿ ਨ ਬਿਨਾਸਾ ॥
ओइ बाहुड़ि जोनि न आवनी फिरि होहि न बिनासा ॥
ऐसे व्यक्ति पुनः योनियों में नहीं आते और न ही उनका अन्त होता है।
ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਰੰਗਿ ਰਵਿ ਰਹੇ ਸਭ ਸਾਸ ਗਿਰਾਸਾ ॥
हरि सेती रंगि रवि रहे सभ सास गिरासा ॥
वे साँस लेते, भोजन का निवाला लेते ईश्वर के रंग में लीन रहते हैं।
ਹਰਿ ਕਾ ਰੰਗੁ ਕਦੇ ਨ ਉਤਰੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਗਾਸਾ ॥
हरि का रंगु कदे न उतरै गुरमुखि परगासा ॥
इन गुरमुखों के मन में प्रकाश होता है और ईश्वर-भक्ति का रंग कभी नहीं उतरता।
ਓਇ ਕਿਰਪਾ ਕਰਿ ਕੈ ਮੇਲਿਅਨੁ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਪਾਸਾ ॥੨੬॥
ओइ किरपा करि कै मेलिअनु नानक हरि पासा ॥२६॥
हे नानक ! ईश्वर कृपा करके उन्हें साथ मिला लेता है॥२६॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਜਿਚਰੁ ਇਹੁ ਮਨੁ ਲਹਰੀ ਵਿਚਿ ਹੈ ਹਉਮੈ ਬਹੁਤੁ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥
जिचरु इहु मनु लहरी विचि है हउमै बहुतु अहंकारु ॥
जब तक यह मन संसार की लहरों में पड़ा रहता है, उतना ही अहंकार ग्रस्त रहता है।
ਸਬਦੈ ਸਾਦੁ ਨ ਆਵਈ ਨਾਮਿ ਨ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥
सबदै सादु न आवई नामि न लगै पिआरु ॥
इसे शब्द का आनंद नहीं आता और न ही हरि-नाम से प्रेम लगता है।
ਸੇਵਾ ਥਾਇ ਨ ਪਵਈ ਤਿਸ ਕੀ ਖਪਿ ਖਪਿ ਹੋਇ ਖੁਆਰੁ ॥
सेवा थाइ न पवई तिस की खपि खपि होइ खुआरु ॥
उसकी सेवा सफल नहीं होती और खप-खप कर ख्वार होता है।
ਨਾਨਕ ਸੇਵਕੁ ਸੋਈ ਆਖੀਐ ਜੋ ਸਿਰੁ ਧਰੇ ਉਤਾਰਿ ॥
नानक सेवकु सोई आखीऐ जो सिरु धरे उतारि ॥
हे नानक ! सेवक वही कहलाता है, जो सर्वस्व अर्पण कर देता है,
ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਭਾਣਾ ਮੰਨਿ ਲਏ ਸਬਦੁ ਰਖੈ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥੧॥
सतिगुर का भाणा मंनि लए सबदु रखै उर धारि ॥१॥
वह सच्चे गुरु की रज़ा को मान कर शब्द को हृदय में बसाकर रखता है॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸੋ ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੇਵਾ ਚਾਕਰੀ ਜੋ ਖਸਮੈ ਭਾਵੈ ॥
सो जपु तपु सेवा चाकरी जो खसमै भावै ॥
असल में वही जप, तपस्या, सेवा एवं चाकरी है, जो मालिक को अच्छी लगती है।
ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਮੇਲਿ ਲਏ ਆਪਤੁ ਗਵਾਵੈ ॥
आपे बखसे मेलि लए आपतु गवावै ॥
अगर अहम्-भाव को दूर किया जाए तो प्रभु स्वयं ही कृपा करके मिला लेता है।
ਮਿਲਿਆ ਕਦੇ ਨ ਵੀਛੁੜੈ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਵੈ ॥
मिलिआ कदे न वीछुड़ै जोती जोति मिलावै ॥
वह मिलकर कभी जुदा नहीं होता और उसकी ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो जाती है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸੋ ਬੁਝਸੀ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਬੁਝਾਵੈ ॥੨॥
नानक गुर परसादी सो बुझसी जिसु आपि बुझावै ॥२॥
हे नानक ! गुरु की कृपा से वही तथ्य को समझता है, जिसे वह समझाता है।॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਸਭੁ ਕੋ ਲੇਖੇ ਵਿਚਿ ਹੈ ਮਨਮੁਖੁ ਅਹੰਕਾਰੀ ॥
सभु को लेखे विचि है मनमुखु अहंकारी ॥
अभिमानी मनमुख व्यक्ति के प्रत्येक कर्म का हिसाब होता है।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਕਦੇ ਨ ਚੇਤਈ ਜਮਕਾਲੁ ਸਿਰਿ ਮਾਰੀ ॥
हरि नामु कदे न चेतई जमकालु सिरि मारी ॥
वह परमात्मा का कभी चिंतन नहीं करता और यमदूतों से दण्ड भोगता है।