ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੩ ਬਿਭਾਸ
प्रभाती महला ३ बिभास
प्रभाती महला ३ बिभास
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਵੇਖੁ ਤੂ ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਤੇਰੈ ਨਾਲਿ ॥
गुर परसादी वेखु तू हरि मंदरु तेरै नालि ॥
हे जिज्ञासु ! गुरु की कृपा से तू देख ले, परमात्मा का घर तेरे साथ ही है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਸਬਦੇ ਖੋਜੀਐ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਲੇਹੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿ ॥੧॥
हरि मंदरु सबदे खोजीऐ हरि नामो लेहु सम्हालि ॥१॥
गुरु के शब्द से ही इसकी खोज होती है, अतः हरिनाम का भजन करो॥ १॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਬਦਿ ਰਪੈ ਰੰਗੁ ਹੋਇ ॥
मन मेरे सबदि रपै रंगु होइ ॥
हे मेरे मन ! शब्द में लीन होने से ही रंग चढ़ता है।
ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਸਚਾ ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਪ੍ਰਗਟੀ ਸਾਚੀ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सची भगति सचा हरि मंदरु प्रगटी साची सोइ ॥१॥ रहाउ ॥
सच्ची भक्ति से हरि-मन्दिर प्रगट होता है और सच्ची शोभा मिलती है॥ १॥रहाउ॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਏਹੁ ਸਰੀਰੁ ਹੈ ਗਿਆਨਿ ਰਤਨਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥
हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ ॥
इस शरीर में परमात्मा ही बसा हुआ है, जो ज्ञान के आलोक से ही प्रगट होता है।
ਮਨਮੁਖ ਮੂਲੁ ਨ ਜਾਣਨੀ ਮਾਣਸਿ ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਨ ਹੋਇ ॥੨॥
मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ ॥२॥
मन-मर्जी करने वाले लोग उस पैदा करने वाले ईश्वर को नहीं मानते और उनका मानना है कि कहीं भी ईश्वर नहीं॥ २॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਾਜਿਆ ਰਖਿਆ ਹੁਕਮਿ ਸਵਾਰਿ ॥
हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ रखिआ हुकमि सवारि ॥
ईश्वर ने ही हरिमन्दिर की रचना की है और अपने हुक्म से संवार दिया है।
ਧੁਰਿ ਲੇਖੁ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਕਮਾਵਣਾ ਕੋਇ ਨ ਮੇਟਣਹਾਰੁ ॥੩॥
धुरि लेखु लिखिआ सु कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥३॥
जो भाग्य में लिखा है, वही करना है, इसे कोई बदल नहीं सकता॥ ३॥
ਸਬਦੁ ਚੀਨੑਿ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਸਚੈ ਨਾਇ ਪਿਆਰ ॥
सबदु चीन्हि सुखु पाइआ सचै नाइ पिआर ॥
यदि सच्चे नाम से प्रेम किया जाए, शब्द के भेद की पहचान हो जाए तो सुख प्राप्त हो सकता है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਸਬਦੇ ਸੋਹਣਾ ਕੰਚਨੁ ਕੋਟੁ ਅਪਾਰ ॥੪॥
हरि मंदरु सबदे सोहणा कंचनु कोटु अपार ॥४॥
हरिमन्दिर शब्द से सुन्दर बना हुआ है, जो स्वर्ण के समान किले के रूप में है।॥ ४॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਏਹੁ ਜਗਤੁ ਹੈ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਘੋਰੰਧਾਰ ॥
हरि मंदरु एहु जगतु है गुर बिनु घोरंधार ॥
यह जगत हरि-मन्दिर (अर्थात् परमात्मा जगत में ही) है और गुरु के बिना हर तरफ घोर अन्धेरा बना हुआ है।
ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਕਰਿ ਪੂਜਦੇ ਮਨਮੁਖ ਅੰਧ ਗਵਾਰ ॥੫॥
दूजा भाउ करि पूजदे मनमुख अंध गवार ॥५॥
जो लोग द्वैतभाव में पूजा करते हैं, वे मनमति, अन्धे एवं मूर्ख हैं।॥ ५॥
ਜਿਥੈ ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਐ ਤਿਥੈ ਦੇਹ ਜਾਤਿ ਨ ਜਾਇ ॥
जिथै लेखा मंगीऐ तिथै देह जाति न जाइ ॥
जहाँ कर्मो का हिसाब मांगा जाता है, वहाँ पर शरीर अथवा जाति नहीं जाती।
ਸਾਚਿ ਰਤੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਦੁਖੀਏ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥੬॥
साचि रते से उबरे दुखीए दूजै भाइ ॥६॥
परमात्मा में लिप्त रहने वाले तो बच जाते हैं परन्तु द्वैतभाव में लिप्त रहने वाले दुख भोगते हैं।॥ ६॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰ ਮਹਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਨਾ ਬੂਝਹਿ ਮੁਗਧ ਗਵਾਰ ॥
हरि मंदर महि नामु निधानु है ना बूझहि मुगध गवार ॥
हरि-मन्दिर में ही नाम रूपी सुखों का भण्डार है लेकिन मूर्ख गंवार मनुष्य इसे नहीं समझता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਚੀਨੑਿਆ ਹਰਿ ਰਾਖਿਆ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥੭॥
गुर परसादी चीन्हिआ हरि राखिआ उरि धारि ॥७॥
जो गुरु की कृपा से तथ्य को जान लेता है, वह ईश्वर को मन में बसा लेता है।॥ ७॥
ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਗੁਰ ਤੇ ਜਾਤੀ ਜਿ ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਰੰਗੁ ਲਾਇ ॥
गुर की बाणी गुर ते जाती जि सबदि रते रंगु लाइ ॥
जब शब्द में लीन होकर प्रेम-रंग लग जाता है तो गुरु की वाणी से जानकारी हो जाती है।
ਪਵਿਤੁ ਪਾਵਨ ਸੇ ਜਨ ਨਿਰਮਲ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੮॥
पवितु पावन से जन निरमल हरि कै नामि समाइ ॥८॥
जो व्यक्ति परमात्मा के नाम में समा जाते हैं, वही पवित्र पावन एवं निर्मल होते हैं।॥ ८॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਹਰਿ ਕਾ ਹਾਟੁ ਹੈ ਰਖਿਆ ਸਬਦਿ ਸਵਾਰਿ ॥
हरि मंदरु हरि का हाटु है रखिआ सबदि सवारि ॥
शरीर रूपी हरिमन्दिर में हरि की दुकान है, जहाँ शब्द को संवार कर रखा हुआ है।
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਸਉਦਾ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲੈਨਿ ਸਵਾਰਿ ॥੯॥
तिसु विचि सउदा एकु नामु गुरमुखि लैनि सवारि ॥९॥
इसमें केवल नाम का ही सौदा होता है और गुरुमुख यह सौदा लेकर जीवन सफल कर लेते हैं।॥ ९॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰ ਮਹਿ ਮਨੁ ਲੋਹਟੁ ਹੈ ਮੋਹਿਆ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
हरि मंदर महि मनु लोहटु है मोहिआ दूजै भाइ ॥
प्रभु के घर में लोहे के समान मन भी है, जो द्वैतभाव में लीन रहता है।
ਪਾਰਸਿ ਭੇਟਿਐ ਕੰਚਨੁ ਭਇਆ ਕੀਮਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥੧੦॥
पारसि भेटिऐ कंचनु भइआ कीमति कही न जाइ ॥१०॥
जब वह गुरु पारस से भेंट करता है, तो स्वर्ण समान गुणवान् बन जाता है, जिसका मूल्य बताया नहीं जा सकता॥ १०॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰ ਮਹਿ ਹਰਿ ਵਸੈ ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਸੋਇ ॥
हरि मंदर महि हरि वसै सरब निरंतरि सोइ ॥
शरीर रूपी हरिमन्दिर में परमात्मा ही बसता है, वही सर्वव्याप्त है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਣਜੀਐ ਸਚਾ ਸਉਦਾ ਹੋਇ ॥੧੧॥੧॥
नानक गुरमुखि वणजीऐ सचा सउदा होइ ॥११॥१॥
नानक फुरमान करते हैं कि यदि गुरमुख बनकर हरिनाम का व्यापार करें तो ही सच्चा सौदा हो सकता है॥ ११॥१॥
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥
प्रभाती महला ३ ॥
प्रभाती महला ३ ॥
ਭੈ ਭਾਇ ਜਾਗੇ ਸੇ ਜਨ ਜਾਗ੍ਰਣ ਕਰਹਿ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਉਤਾਰਿ ॥
भै भाइ जागे से जन जाग्रण करहि हउमै मैलु उतारि ॥
जो परमात्मा के प्रेम एवं श्रद्धा में जाग्रत होता है, वही व्यक्ति अभिमान की मैल को उतार कर जागरण करने वाला है।
ਸਦਾ ਜਾਗਹਿ ਘਰੁ ਅਪਣਾ ਰਾਖਹਿ ਪੰਚ ਤਸਕਰ ਕਾਢਹਿ ਮਾਰਿ ॥੧॥
सदा जागहि घरु अपणा राखहि पंच तसकर काढहि मारि ॥१॥
वह सदा जाग्रत रहकर अपने घर की हिफाजत करता है और काम-क्रोध रूपी पाँच लुटेरों को मारकर निकाल देता है॥ १॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥
मन मेरे गुरमुखि नामु धिआइ ॥
हे मेरे मन ! गुरु के द्वारा भगवान का ध्यान करो,
ਜਿਤੁ ਮਾਰਗਿ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ਮਨ ਸੇਈ ਕਰਮ ਕਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जितु मारगि हरि पाईऐ मन सेई करम कमाइ ॥१॥ रहाउ ॥
वही कर्म करना चाहिए, जिससे परमात्मा प्राप्त होता है।॥ १॥रहाउ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜ ਧੁਨਿ ਊਪਜੈ ਦੁਖੁ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
गुरमुखि सहज धुनि ऊपजै दुखु हउमै विचहु जाइ ॥
गुरु के द्वारा सुख-शान्ति की ध्वनि उत्पन्न होती है और मन में से अभिमान एवं दुख निवृत्त हो जाते हैं।
ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸੈ ਸਹਜੇ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥੨॥
हरि नामा हरि मनि वसै सहजे हरि गुण गाइ ॥२॥
हरिनाम का चिंतन करने से मन में परमात्मा अवस्थित होता है और सहज स्वाभाविक ही उसका गुणगान होता है॥ २॥
ਗੁਰਮਤੀ ਮੁਖ ਸੋਹਣੇ ਹਰਿ ਰਾਖਿਆ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥
गुरमती मुख सोहणे हरि राखिआ उरि धारि ॥
गुरु की शिक्षा द्वारा परमेश्वर मन में अवस्थित होता है और जीव को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
ਐਥੈ ਓਥੈ ਸੁਖੁ ਘਣਾ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਉਤਰੇ ਪਾਰਿ ॥੩॥
ऐथै ओथै सुखु घणा जपि हरि हरि उतरे पारि ॥३॥
लोक-परलोक में अत्यंत सुख प्राप्त होता है, ईश्वर का जाप करने से जीव संसार-सागर से पार उतर जाता है॥ ३॥