ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਹੁ ਗੁਰੂ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ॥
गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥
गुरु के गुणों एवं महिमा का गान करो, क्योंकि गुरु से ही ईश्वर प्राप्त होता है।
ਉਦਧਿ ਗੁਰੁ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰ ਬੇਅੰਤੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਨਗ ਹੀਰ ਮਣਿ ਮਿਲਤ ਲਿਵ ਲਾਈਐ ॥
उदधि गुरु गहिर ग्मभीर बेअंतु हरि नाम नग हीर मणि मिलत लिव लाईऐ ॥
गुरु गहन-गंभीर, बेअंत एवं प्रेम का सागर है, उसमें ध्यान लगाने से ही हरिनाम रूपी मोती, हीरा एवं मणि मिलती है।
ਫੁਨਿ ਗੁਰੂ ਪਰਮਲ ਸਰਸ ਕਰਤ ਕੰਚਨੁ ਪਰਸ ਮੈਲੁ ਦੁਰਮਤਿ ਹਿਰਤ ਸਬਦਿ ਗੁਰੁ ਧੵਾਈਐ ॥
फुनि गुरू परमल सरस करत कंचनु परस मैलु दुरमति हिरत सबदि गुरु ध्याईऐ ॥
पुनः गुरु का सान्निध्य सरस सुगन्धि भर देता है, वह स्वर्ण की तरह बना देता है, गुरु उपदेश का ध्यान दुर्मति की मैल दूर कर देता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਪਰਵਾਹ ਛੁਟਕੰਤ ਸਦ ਦ੍ਵਾਰਿ ਜਿਸੁ ਗੵਾਨ ਗੁਰ ਬਿਮਲ ਸਰ ਸੰਤ ਸਿਖ ਨਾਈਐ ॥
अम्रित परवाह छुटकंत सद द्वारि जिसु ग्यान गुर बिमल सर संत सिख नाईऐ ॥
जिसके द्वार से सदैव अमृत का प्रवाह होता है, संत एवं शिष्य गुरु के ज्ञान रूपी निर्मल सरोवर में स्नान करते हैं।
ਨਾਮੁ ਨਿਰਬਾਣੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹਰਿ ਉਰਿ ਧਰਹੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਹੁ ਗੁਰੂ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ॥੩॥੧੫॥
नामु निरबाणु निधानु हरि उरि धरहु गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥३॥१५॥
पावन, सुखनिधान हरिनाम हृदय में धारण करो, गुरु का स्तुतिगान कीजिए, गुरु-गुरु जपो, गुरु से ही परमेश्वर प्राप्त होता है॥३ ॥१५ ॥
ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਜਪੁ ਮੰਨ ਰੇ ॥
गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥
हे मन ! निरन्तर गुरु नाम-मंत्र का जाप करो, उसकी सेवा में तो शिव, सिद्ध, साधक, देव एवं असुर गण भी निमग्न हैं, गुरु का वचन कानों से सुनकर तेंतीस करोड़ देवता भी तैर गए।
ਜਾ ਕੀ ਸੇਵ ਸਿਵ ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਸੁਰ ਅਸੁਰ ਗਣ ਤਰਹਿ ਤੇਤੀਸ ਗੁਰ ਬਚਨ ਸੁਣਿ ਕੰਨ ਰੇ ॥
जा की सेव सिव सिध साधिक सुर असुर गण तरहि तेतीस गुर बचन सुणि कंन रे ॥
पुनः गुरु-गुरु जपते हुए संत, भक्त, जिज्ञासु भी मुक्त हो गए।
ਫੁਨਿ ਤਰਹਿ ਤੇ ਸੰਤ ਹਿਤ ਭਗਤ ਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਕਰਹਿ ਤਰਿਓ ਪ੍ਰਹਲਾਦੁ ਗੁਰ ਮਿਲਤ ਮੁਨਿ ਜੰਨ ਰੇ ॥
फुनि तरहि ते संत हित भगत गुरु गुरु करहि तरिओ प्रहलादु गुर मिलत मुनि जंन रे ॥
गुरु को मिलकर भक्त प्रहलाद एवं मुनियों का भी उद्धार हो गया।
ਤਰਹਿ ਨਾਰਦਾਦਿ ਸਨਕਾਦਿ ਹਰਿ ਗੁਰਮੁਖਹਿ ਤਰਹਿ ਇਕ ਨਾਮ ਲਗਿ ਤਜਹੁ ਰਸ ਅੰਨ ਰੇ ॥
तरहि नारदादि सनकादि हरि गुरमुखहि तरहि इक नाम लगि तजहु रस अंन रे ॥
नारद, सनक सनंदन इत्यादि गुरु के सान्निध्य में तिर गए और अन्य सब रस छोड़कर केवल नाम में लीन होकर वे मुक्त हो गए।
ਦਾਸੁ ਬੇਨਤਿ ਕਹੈ ਨਾਮੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਹੈ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਜਪੁ ਮੰਨ ਰੇ ॥੪॥੧੬॥੨੯॥
दासु बेनति कहै नामु गुरमुखि लहै गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥४॥१६॥२९॥
दास नल्ह विनयपूर्वक कहता है कि हरिनाम गुरु से ही मिलता है, हे मन ! हरदम ‘गुरु-गुरु’ जाप करते रहो ॥४ ॥१६ ॥२६ ॥ (नल्ह भाट के १६ सवैये और भाट कलसहार के १३ सवैयों सहित कुल २६ सवैये पूरे हुए)”
ਸਿਰੀ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬੁ ਸਭ ਊਪਰਿ ॥
सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि ॥
गुरु-परमेश्वर सबका मालिक है, सबसे बड़ा है,
ਕਰੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਸਤਜੁਗਿ ਜਿਨਿ ਧ੍ਰੂ ਪਰਿ ॥
करी क्रिपा सतजुगि जिनि ध्रू परि ॥
जिसने सतयुग में भक्त धुव पर कृपा की।
ਸ੍ਰੀ ਪ੍ਰਹਲਾਦ ਭਗਤ ਉਧਰੀਅੰ ॥
स्री प्रहलाद भगत उधरीअं ॥
उस श्रीहरि ने भक्त प्रहलाद का उद्धार किया,
ਹਸ੍ਤ ਕਮਲ ਮਾਥੇ ਪਰ ਧਰੀਅੰ ॥
हस्त कमल माथे पर धरीअं ॥
माथे पर हस्त-कमल धरकर उसका कल्याण किया।
ਅਲਖ ਰੂਪ ਜੀਅ ਲਖੵਾ ਨ ਜਾਈ ॥
अलख रूप जीअ लख्या न जाई ॥
उसके अदृश्य रूप को जीव देख नहीं पाते।
ਸਾਧਿਕ ਸਿਧ ਸਗਲ ਸਰਣਾਈ ॥
साधिक सिध सगल सरणाई ॥
बड़े-बड़े सिद्ध-साधक सब उसी की शरण में रहते हैं।
ਗੁਰ ਕੇ ਬਚਨ ਸਤਿ ਜੀਅ ਧਾਰਹੁ ॥
गुर के बचन सति जीअ धारहु ॥
गुरु के वचन को सत्य मानकर दिल में धारण कर लो,
ਮਾਣਸ ਜਨਮੁ ਦੇਹ ਨਿਸ੍ਤਾਰਹੁ ॥
माणस जनमु देह निस्तारहु ॥
इसी से मनुष्य जन्म एवं शरीर की मुक्ति हो सकती है।
ਗੁਰੁ ਜਹਾਜੁ ਖੇਵਟੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਤਰਿਆ ਨ ਕੋਇ ॥
गुरु जहाजु खेवटु गुरू गुर बिनु तरिआ न कोइ ॥
गुरु ही जहाज है, गुरु ही जहाज का खवैया है,
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਈਐ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਮੁਕਤਿ ਨ ਹੋਇ ॥
गुर प्रसादि प्रभु पाईऐ गुर बिनु मुकति न होइ ॥
गुरु के बिना कोई भी संसार-सागर से तैर नहीं पाया।
ਗੁਰੁ ਨਾਨਕੁ ਨਿਕਟਿ ਬਸੈ ਬਨਵਾਰੀ ॥
गुरु नानकु निकटि बसै बनवारी ॥
गुरु की कृपा से प्रभु प्राप्त होता है और गुरु के बिना मुक्ति नहीं होती।
ਤਿਨਿ ਲਹਣਾ ਥਾਪਿ ਜੋਤਿ ਜਗਿ ਧਾਰੀ ॥
तिनि लहणा थापि जोति जगि धारी ॥
गुरु नानक ईश्वर के निकट रहते थे, उन्होंने भाई लहणा को गुरुगद्दी पर मनोनीत करके संसार में ज्योति को फैलाया।
ਲਹਣੈ ਪੰਥੁ ਧਰਮ ਕਾ ਕੀਆ ॥
लहणै पंथु धरम का कीआ ॥
गुरु नानक के परम शिष्य गुरु अंगद देव ने सत्य-धर्म का रास्ता (सेवा-सिमरन, हरिनाम का प्रचार) अपनाया।
ਅਮਰਦਾਸ ਭਲੇ ਕਉ ਦੀਆ ॥
अमरदास भले कउ दीआ ॥
उसके बाद (सेवा की मूर्ति) अमरदास भल्ला को गुरुगद्दी पर विराजमान किया।
ਤਿਨਿ ਸ੍ਰੀ ਰਾਮਦਾਸੁ ਸੋਢੀ ਥਿਰੁ ਥਪੵਉ ॥
तिनि स्री रामदासु सोढी थिरु थप्यउ ॥
उन्होंने (हरिनाम का मनन करके अपने परम शिष्य, हरिनाम के रसिया) श्री रामदास सोढी को गुरु नानक की गद्दी पर स्थापित किया और हरिनाम रूपी सुखनिधि प्रदान की।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਅਖੈ ਨਿਧਿ ਅਪੵਉ ॥
हरि का नामु अखै निधि अप्यउ ॥
फिर श्री गुरु रामदास जी ने सुखनिधि हरिनाम का चारों दिशाओं में दान दिया अर्थात अनगिनत शिष्यों, भक्तों एवं जिज्ञासुओं को हरिनाम प्रदान किया।
ਅਪੵਉ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਅਖੈ ਨਿਧਿ ਚਹੁ ਜੁਗਿ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਕਰਿ ਫਲੁ ਲਹੀਅੰ ॥
अप्यउ हरि नामु अखै निधि चहु जुगि गुर सेवा करि फलु लहीअं ॥
अपने गुरु (अमरदास) की निष्काम सेवा से उन्हें राज योग का फल प्राप्त हुआ।
ਬੰਦਹਿ ਜੋ ਚਰਣ ਸਰਣਿ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਪਰਮਾਨੰਦ ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਹੀਅੰ ॥
बंदहि जो चरण सरणि सुखु पावहि परमानंद गुरमुखि कहीअं ॥
जो उनकी चरण-वंदना करते हैं, शरण में आते हैं, वे सर्व सुख एवं परमानंद पाते हैं और गुरुमुख कहलाने के हकदार हैं।
ਪਰਤਖਿ ਦੇਹ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਸੁਆਮੀ ਆਦਿ ਰੂਪਿ ਪੋਖਣ ਭਰਣੰ ॥
परतखि देह पारब्रहमु सुआमी आदि रूपि पोखण भरणं ॥
गुरु रामदास जी देह रूप प्रत्यक्ष परब्रह्म परमेश्वर ही हैं, वे आदिपुरुष एवं संसार का भरण पोषण करने वाले हैं।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਅਲਖ ਗਤਿ ਜਾ ਕੀ ਸ੍ਰੀ ਰਾਮਦਾਸੁ ਤਾਰਣ ਤਰਣੰ ॥੧॥
सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥१॥
इसलिए महामहिम सतिगुरु (रामदास) की सेवा करो, उनकी महिमा अवर्णनीय है, वस्तुतः श्री गुरु रामदास भव-सागर से पार उतारने वाले जहाज एवं मुक्तिदाता हैं॥१॥
ਜਿਹ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਚਨ ਬਾਣੀ ਸਾਧੂ ਜਨ ਜਪਹਿ ਕਰਿ ਬਿਚਿਤਿ ਚਾਓ ॥
जिह अम्रित बचन बाणी साधू जन जपहि करि बिचिति चाओ ॥
जिसके अमृत वचनों एवं मधुरवाणी को साधुजन बड़े चाव एवं दिल से जपते हैं।
ਆਨੰਦੁ ਨਿਤ ਮੰਗਲੁ ਗੁਰ ਦਰਸਨੁ ਸਫਲੁ ਸੰਸਾਰਿ ॥
आनंदु नित मंगलु गुर दरसनु सफलु संसारि ॥
जिससे नित्य आनंद एवं खुशी प्राप्त होती है, उस गुरु (रामदास) के दर्शनों से संसार में जन्म सफल हो जाता है।
ਸੰਸਾਰਿ ਸਫਲੁ ਗੰਗਾ ਗੁਰ ਦਰਸਨੁ ਪਰਸਨ ਪਰਮ ਪਵਿਤ੍ਰ ਗਤੇ ॥
संसारि सफलु गंगा गुर दरसनु परसन परम पवित्र गते ॥
संसार में गुरु रामदास का दर्शन गंगा समान फलदायक है, उनके चरण-स्पर्श परम पवित्र करने वाले एवं मुक्ति प्रदायक हैं।
ਜੀਤਹਿ ਜਮ ਲੋਕੁ ਪਤਿਤ ਜੇ ਪ੍ਰਾਣੀ ਹਰਿ ਜਨ ਸਿਵ ਗੁਰ ਗੵਾਨਿ ਰਤੇ ॥
जीतहि जम लोकु पतित जे प्राणी हरि जन सिव गुर ग्यानि रते ॥
पतित प्राणी भी दर्शन मात्र से यमलोक पर विजय पा लेते हैं और भक्तगण कल्याणमय गुरु ज्ञान में रत रहते हैं।
ਰਘੁਬੰਸਿ ਤਿਲਕੁ ਸੁੰਦਰੁ ਦਸਰਥ ਘਰਿ ਮੁਨਿ ਬੰਛਹਿ ਜਾ ਕੀ ਸਰਣੰ ॥
रघुबंसि तिलकु सुंदरु दसरथ घरि मुनि बंछहि जा की सरणं ॥
असल में गुरु रामदास राजा दशरथ के घर रघुवंश तिलक प्रिय राम अवतार में आए, उनकी शरण मुनि भी चाहते थे।