Hindi Page 1404

ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪਾਈਐ ਪਰਮਾਰਥੁ ਸਤਸੰਗਤਿ ਸੇਤੀ ਮਨੁ ਖਚਨਾ ॥
गुर प्रसादि पाईऐ परमारथु सतसंगति सेती मनु खचना ॥
गुरु की कृपा से ही परमार्थ प्राप्त होता है और सत्संगति में मन हरिनाम सिमरन में लीन होता है।

ਕੀਆ ਖੇਲੁ ਬਡ ਮੇਲੁ ਤਮਾਸਾ ਵਾਹਗੁਰੂ ਤੇਰੀ ਸਭ ਰਚਨਾ ॥੩॥੧੩॥੪੨॥
कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहगुरू तेरी सभ रचना ॥३॥१३॥४२॥
हे गुरु-परमेश्वर ! तू प्रशंसा का हकदार है, यह संसार सब तेरी रचना है, पंच तत्वों को मिलाकर तूने बड़ा खेल तमाशा रचा है ॥३॥१३॥४२॥

ਅਗਮੁ ਅਨੰਤੁ ਅਨਾਦਿ ਆਦਿ ਜਿਸੁ ਕੋਇ ਨ ਜਾਣੈ ॥
अगमु अनंतु अनादि आदि जिसु कोइ न जाणै ॥
परमेश्वर अगम्य, अनंत, अनादि है, उसका आरंभ कोई नहीं जानता।

ਸਿਵ ਬਿਰੰਚਿ ਧਰਿ ਧੵਾਨੁ ਨਿਤਹਿ ਜਿਸੁ ਬੇਦੁ ਬਖਾਣੈ ॥
सिव बिरंचि धरि ध्यानु नितहि जिसु बेदु बखाणै ॥
शिव, ब्रह्मा भी उसी का ध्यान करते हैं, नित्य वेद भी उसी की महिमा-गान करते हैं।

ਨਿਰੰਕਾਰੁ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਵਰੁ ਨਹੀ ਦੂਸਰ ਕੋਈ ॥
निरंकारु निरवैरु अवरु नही दूसर कोई ॥
वह निराकार है, प्रेम की मूर्ति है, उस जैसा बड़ा दूसरा कोई नहीं।

ਭੰਜਨ ਗੜ੍ਹਣ ਸਮਥੁ ਤਰਣ ਤਾਰਣ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਈ ॥
भंजन गड़्हण समथु तरण तारण प्रभु सोई ॥
वह तोड़ने एवं बनाने में पूर्ण समर्थ है, वह प्रभु संसार-सागर से पार उतारने वाला जहाज है।

ਨਾਨਾ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜਿਨਿ ਜਗੁ ਕੀਓ ਜਨੁ ਮਥੁਰਾ ਰਸਨਾ ਰਸੈ ॥
नाना प्रकार जिनि जगु कीओ जनु मथुरा रसना रसै ॥
जिसने अनेक प्रकार का जगत बनाया है, मथुरा भाट रसना से उसी का यश गाता है।

ਸ੍ਰੀ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਗੁਰ ਰਾਮਦਾਸ ਚਿਤਹ ਬਸੈ ॥੧॥
स्री सति नामु करता पुरखु गुर रामदास चितह बसै ॥१॥
श्री सत्यस्वरूप सृष्टि रचयिता परमेश्वर गुरु रामदास के दिल में ही रहता है॥१ ॥

ਗੁਰੂ ਸਮਰਥੁ ਗਹਿ ਕਰੀਆ ਧ੍ਰੁਵ ਬੁਧਿ ਸੁਮਤਿ ਸਮ੍ਹਾਰਨ ਕਉ ॥
गुरू समरथु गहि करीआ ध्रुव बुधि सुमति सम्हारन कउ ॥
गुरु (रामदास) सर्वकला समर्थ है, इसलिए अटल विवेक बुद्धि, सुमति पाने के लिए उसी का आसरा लिया है।

ਫੁਨਿ ਧ੍ਰੰਮ ਧੁਜਾ ਫਹਰੰਤਿ ਸਦਾ ਅਘ ਪੁੰਜ ਤਰੰਗ ਨਿਵਾਰਨ ਕਉ ॥
फुनि ध्रम धुजा फहरंति सदा अघ पुंज तरंग निवारन कउ ॥
उसका धर्म ध्वज सदा फहराता है, वह पाप एवं वासनाओं की तरंगों का निवारण करने वाला है।

ਮਥੁਰਾ ਜਨ ਜਾਨਿ ਕਹੀ ਜੀਅ ਸਾਚੁ ਸੁ ਅਉਰ ਕਛੂ ਨ ਬਿਚਾਰਨ ਕਉ ॥
मथुरा जन जानि कही जीअ साचु सु अउर कछू न बिचारन कउ ॥
दास मथुरा ने दिल में अच्छी तरह से समझकर सत्य ही बताया है, अन्य कुछ भी विचार योग्य नहीं।

ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਬੋਹਿਥੁ ਬਡੌ ਕਲਿ ਮੈ ਭਵ ਸਾਗਰ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰਨ ਕਉ ॥੨॥
हरि नामु बोहिथु बडौ कलि मै भव सागर पारि उतारन कउ ॥२॥
कलियुग में परमात्मा का नाम सबसे बड़ा जहाज है, केवल वही संसार-सागर से पार उतारने वाला है॥२ ॥

ਸੰਤਤ ਹੀ ਸਤਸੰਗਤਿ ਸੰਗ ਸੁਰੰਗ ਰਤੇ ਜਸੁ ਗਾਵਤ ਹੈ ॥
संतत ही सतसंगति संग सुरंग रते जसु गावत है ॥
जो संतों की सत्संगत में आते हैं, वे रंग में रंगकर परमेश्वर का यश गाते हैं।

ਧ੍ਰਮ ਪੰਥੁ ਧਰਿਓ ਧਰਨੀਧਰ ਆਪਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਧਾਰਿ ਨ ਧਾਵਤ ਹੈ ॥
ध्रम पंथु धरिओ धरनीधर आपि रहे लिव धारि न धावत है ॥
दरअसल यह धर्म का रास्ता स्वयं ईश्वर ने चलाया है, जिन्होंने हरिनाम भक्ति में लगन लगाई है, फिर वे इधर-इधर नहीं भटकते।

ਮਥੁਰਾ ਭਨਿ ਭਾਗ ਭਲੇ ਉਨੑ ਕੇ ਮਨ ਇਛਤ ਹੀ ਫਲ ਪਾਵਤ ਹੈ ॥
मथुरा भनि भाग भले उन्ह के मन इछत ही फल पावत है ॥
मथुरा भाट का कथन है कि ऐसे लोग भाग्यशाली हैं और मनोवांछित फल ही पाते हैं।

ਰਵਿ ਕੇ ਸੁਤ ਕੋ ਤਿਨੑ ਤ੍ਰਾਸੁ ਕਹਾ ਜੁ ਚਰੰਨ ਗੁਰੂ ਚਿਤੁ ਲਾਵਤ ਹੈ ॥੩॥
रवि के सुत को तिन्ह त्रासु कहा जु चरंन गुरू चितु लावत है ॥३॥
जो गुरु (रामदास) के चरणों में मन लगाते हैं, उनको सूर्य पुत्र यमराज का भी कोई डर नहीं लगता ॥३ ॥

ਨਿਰਮਲ ਨਾਮੁ ਸੁਧਾ ਪਰਪੂਰਨ ਸਬਦ ਤਰੰਗ ਪ੍ਰਗਟਿਤ ਦਿਨ ਆਗਰੁ ॥
निरमल नामु सुधा परपूरन सबद तरंग प्रगटित दिन आगरु ॥
सतिगुरु रामदास निर्मल नामामृत का एक सरोवर है, जो अमृत से परिपूर्ण है, जहाँ से दिन चढ़ते ही शब्द-गान की लहरें उठती हैं,

ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੁ ਅਥਾਹ ਅਤਿ ਬਡ ਸੁਭਰੁ ਸਦਾ ਸਭ ਬਿਧਿ ਰਤਨਾਗਰੁ ॥
गहिर ग्मभीरु अथाह अति बड सुभरु सदा सभ बिधि रतनागरु ॥
यह गहरा गंभीर, अथाह, बहुत बड़ा है और हर प्रकार से परिपूर्ण एवं रत्नों का भण्डार है।

ਸੰਤ ਮਰਾਲ ਕਰਹਿ ਕੰਤੂਹਲ ਤਿਨ ਜਮ ਤ੍ਰਾਸ ਮਿਟਿਓ ਦੁਖ ਕਾਗਰੁ ॥
संत मराल करहि कंतूहल तिन जम त्रास मिटिओ दुख कागरु ॥
संत रूपी हंस यहाँ कौतुक क्रीड़ा करते हैं, उनका मृत्यु का भय एवं दुखों का हिसाब मिट चुका है।

ਕਲਜੁਗ ਦੁਰਤ ਦੂਰਿ ਕਰਬੇ ਕਉ ਦਰਸਨੁ ਗੁਰੂ ਸਗਲ ਸੁਖ ਸਾਗਰੁ ॥੪॥
कलजुग दुरत दूरि करबे कउ दरसनु गुरू सगल सुख सागरु ॥४॥
कलियुग में पाप दूर करने के लिए गुरु रामदास का दर्शन सर्व सुखों का सागर है।॥४॥

ਜਾ ਕਉ ਮੁਨਿ ਧੵਾਨੁ ਧਰੈ ਫਿਰਤ ਸਗਲ ਜੁਗ ਕਬਹੁ ਕ ਕੋਊ ਪਾਵੈ ਆਤਮ ਪ੍ਰਗਾਸ ਕਉ ॥
जा कउ मुनि ध्यानु धरै फिरत सगल जुग कबहु क कोऊ पावै आतम प्रगास कउ ॥
जिसका ध्यान मुनि धारण करते हैं, पूरे जगत में भ्रमण करते हैं और कभी-कभार ही कोई आत्म-प्रकाश पाता है।

ਬੇਦ ਬਾਣੀ ਸਹਿਤ ਬਿਰੰਚਿ ਜਸੁ ਗਾਵੈ ਜਾ ਕੋ ਸਿਵ ਮੁਨਿ ਗਹਿ ਨ ਤਜਾਤ ਕਬਿਲਾਸ ਕੰਉ ॥
बेद बाणी सहित बिरंचि जसु गावै जा को सिव मुनि गहि न तजात कबिलास कंउ ॥
वेदवाणी सहित ब्रह्मा भी जिसके यश को गाता है, जिसके ध्यान में महादेव शिवशंकर भी कैलाश पर्वत को नहीं छोड़ता।

ਜਾ ਕੌ ਜੋਗੀ ਜਤੀ ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਅਨੇਕ ਤਪ ਜਟਾ ਜੂਟ ਭੇਖ ਕੀਏ ਫਿਰਤ ਉਦਾਸ ਕਉ ॥
जा कौ जोगी जती सिध साधिक अनेक तप जटा जूट भेख कीए फिरत उदास कउ ॥
जिसको पाने के लिए योगी, ब्रह्मचारी, सिद्ध, साधक अनेकानेक तपस्या में लीन रहते हैं, कई जटा-जूट धारण करके वेषाडम्बरी वैरागी बनकर फिरते रहते हैं।

ਸੁ ਤਿਨਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਸੁਖ ਭਾਇ ਕ੍ਰਿਪਾ ਧਾਰੀ ਜੀਅ ਨਾਮ ਕੀ ਬਡਾਈ ਦਈ ਗੁਰ ਰਾਮਦਾਸ ਕਉ ॥੫॥
सु तिनि सतिगुरि सुख भाइ क्रिपा धारी जीअ नाम की बडाई दई गुर रामदास कउ ॥५॥
उस निरंकार के स्वरूप सतिगुरु अमरदास ने स्वाभाविक ही अपनी कृपा (गुरु रामदास पर) धारण की है और इस प्रकार हरिनाम की कीर्ति गुरु रामदास को प्रदान कर दी ॥५॥

ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਧਿਆਨ ਅੰਤਰਗਤਿ ਤੇਜ ਪੁੰਜ ਤਿਹੁ ਲੋਗ ਪ੍ਰਗਾਸੇ ॥
नामु निधानु धिआन अंतरगति तेज पुंज तिहु लोग प्रगासे ॥
गुरु रामदास के पास नाम रूपी सुखों की निधि है, वे अन्तर्मन में ध्यानशील हैं, उनका तेज तीनों लोकों में फैला हुआ है।

ਦੇਖਤ ਦਰਸੁ ਭਟਕਿ ਭ੍ਰਮੁ ਭਜਤ ਦੁਖ ਪਰਹਰਿ ਸੁਖ ਸਹਜ ਬਿਗਾਸੇ ॥
देखत दरसु भटकि भ्रमु भजत दुख परहरि सुख सहज बिगासे ॥
उनके दर्शनों से सब भ्रम-भटकन निवृत्त हो जाती है और दुख दूर होकर सुख एवं खुशियाँ प्राप्त होती हैं।

ਸੇਵਕ ਸਿਖ ਸਦਾ ਅਤਿ ਲੁਭਿਤ ਅਲਿ ਸਮੂਹ ਜਿਉ ਕੁਸਮ ਸੁਬਾਸੇ ॥
सेवक सिख सदा अति लुभित अलि समूह जिउ कुसम सुबासे ॥
सेवक और शिष्य सदैव ही उन पर यूं लुब्ध होते हैं, ज्यों खुशबूदार फूल पर भैवरा मंडराता है।

ਬਿਦੵਮਾਨ ਗੁਰਿ ਆਪਿ ਥਪੵਉ ਥਿਰੁ ਸਾਚਉ ਤਖਤੁ ਗੁਰੂ ਰਾਮਦਾਸੈ ॥੬॥
बिद्यमान गुरि आपि थप्यउ थिरु साचउ तखतु गुरू रामदासै ॥६॥
गुरु अमरदास जी ने अपने जीते जी स्वयं गुरु रामदास जी को सच्चे सिंहासन (गुरु नानक की गद्दी) पर स्थापित किया ॥६॥

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