ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਨੀਸਾਣਿ ਠਾਕ ਨ ਪਾਈਐ ॥
सचै सबदि नीसाणि ठाक न पाईऐ ॥
जो व्यक्ति सत्य-नाम का परवाना लेकर जाता है, उसे आत्मस्वरूप में जाने से कोई भी रोक नहीं सकता।
ਸਚੁ ਸੁਣਿ ਬੁਝਿ ਵਖਾਣਿ ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਈਐ ॥੧੮॥
सचु सुणि बुझि वखाणि महलि बुलाईऐ ॥१८॥
जो व्यक्ति भगवान के सत्यनाम को सुनता, समझता एवं उसे जपता है, वह आत्म-स्वरूप में निमंत्रित कर लिया जाता है॥१८॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੧ ॥
सलोकु मः १ ॥
श्लोक महला १॥
ਪਹਿਰਾ ਅਗਨਿ ਹਿਵੈ ਘਰੁ ਬਾਧਾ ਭੋਜਨੁ ਸਾਰੁ ਕਰਾਈ ॥
पहिरा अगनि हिवै घरु बाधा भोजनु सारु कराई ॥
यदि मैं अग्नि की पोशाक धारण कर लूं, हिम में अपना घर बना लूं और लोहे को अपना आहार बना लूं,
ਸਗਲੇ ਦੂਖ ਪਾਣੀ ਕਰਿ ਪੀਵਾ ਧਰਤੀ ਹਾਕ ਚਲਾਈ ॥
सगले दूख पाणी करि पीवा धरती हाक चलाई ॥
समस्त दुखों को यदि मैं जल की भाँति पान कर लूं और धरती को पशुओं की भाँति हॉक कर चलाऊँ।
ਧਰਿ ਤਾਰਾਜੀ ਅੰਬਰੁ ਤੋਲੀ ਪਿਛੈ ਟੰਕੁ ਚੜਾਈ ॥
धरि ताराजी अंबरु तोली पिछै टंकु चड़ाई ॥
आकाश को तराजू में रखकर तोलूं और यदि मैं दूसरी ओर चार माशे के तोल से तोलूं,
ਏਵਡੁ ਵਧਾ ਮਾਵਾ ਨਾਹੀ ਸਭਸੈ ਨਥਿ ਚਲਾਈ ॥
एवडु वधा मावा नाही सभसै नथि चलाई ॥
यदि मैं अपने शरीर को इतना बड़ा कर लूं कि कहीं भी समा न सकूं और यदि मैं समस्त जीवों के नाक में नुकेल डालकर अपने हुक्म में चलाता रहूँ,
ਏਤਾ ਤਾਣੁ ਹੋਵੈ ਮਨ ਅੰਦਰਿ ਕਰੀ ਭਿ ਆਖਿ ਕਰਾਈ ॥
एता ताणु होवै मन अंदरि करी भि आखि कराई ॥
यदि मेरे मन में इतना बल हो कि इस तरह की बातें मैं करूँ और अपने कथन से दूसरों से भी कराऊँ पर यह सब कुछ व्यर्थ है।
ਜੇਵਡੁ ਸਾਹਿਬੁ ਤੇਵਡ ਦਾਤੀ ਦੇ ਦੇ ਕਰੇ ਰਜਾਈ ॥
जेवडु साहिबु तेवड दाती दे दे करे रजाई ॥
जितना महान परमेश्वर है उतने महान ही उसके दान हैं। वह अपनी इच्छानुसार जीवों को दान देता है।
ਨਾਨਕ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਜਿਸੁ ਉਪਰਿ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਵਡਿਆਈ ॥੧॥
नानक नदरि करे जिसु उपरि सचि नामि वडिआई ॥१॥
हे नानक ! जिस पर प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि करता है, उसको सत्य नाम की महानता प्राप्त होती है ॥ १ ॥
ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २॥
ਆਖਣੁ ਆਖਿ ਨ ਰਜਿਆ ਸੁਨਣਿ ਨ ਰਜੇ ਕੰਨ ॥
आखणु आखि न रजिआ सुनणि न रजे कंन ॥
इन्सान का मुँह बातें कह-कह कर तृप्त नहीं होता, उसके कान बातें अथवा संगीत सुन-सुनकर संतुष्ट नहीं होते
ਅਖੀ ਦੇਖਿ ਨ ਰਜੀਆ ਗੁਣ ਗਾਹਕ ਇਕ ਵੰਨ ॥
अखी देखि न रजीआ गुण गाहक इक वंन ॥
और उसकी आँखें सुन्दर रूप देख-देखकर तृप्त नहीं होती। प्रत्येक अंग एक प्रकार की विशेषता का ग्राहक है।
ਭੁਖਿਆ ਭੁਖ ਨ ਉਤਰੈ ਗਲੀ ਭੁਖ ਨ ਜਾਇ ॥
भुखिआ भुख न उतरै गली भुख न जाइ ॥
भूखों की भूख निवृत्त नहीं होती। मौखिक बातों से भूख दूर नहीं होती।
ਨਾਨਕ ਭੁਖਾ ਤਾ ਰਜੈ ਜਾ ਗੁਣ ਕਹਿ ਗੁਣੀ ਸਮਾਇ ॥੨॥
नानक भुखा ता रजै जा गुण कहि गुणी समाइ ॥२॥
हे नानक ! भूखा मनुष्य तभी तृप्त होता है यदि वह गुणों के भण्डार परमात्मा की महिमा करके उसमें समा जाता है॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਵਿਣੁ ਸਚੇ ਸਭੁ ਕੂੜੁ ਕੂੜੁ ਕਮਾਈਐ ॥
विणु सचे सभु कूड़ु कूड़ु कमाईऐ ॥
सत्य नाम के अलावा सभी कार्य झूठे हैं और झूठ का ही कर्म करते हैं।
ਵਿਣੁ ਸਚੇ ਕੂੜਿਆਰੁ ਬੰਨਿ ਚਲਾਈਐ ॥
विणु सचे कूड़िआरु बंनि चलाईऐ ॥
सत्यनाम के सिवाय अन्य झूठे कार्य करने वाले लोगों को यमदूत बांधकर यमपुरी ले जाते हैं।
ਵਿਣੁ ਸਚੇ ਤਨੁ ਛਾਰੁ ਛਾਰੁ ਰਲਾਈਐ ॥
विणु सचे तनु छारु छारु रलाईऐ ॥
सत्य नाम के अलावा यह तन मिट्टी समान है और मिट्टी में ही मिल जाता है।
ਵਿਣੁ ਸਚੇ ਸਭ ਭੁਖ ਜਿ ਪੈਝੈ ਖਾਈਐ ॥
विणु सचे सभ भुख जि पैझै खाईऐ ॥
सत्यनाम के सिवाय मनुष्य जितना बढ़िया पहनता एवं खाता है, उससे उसकी भूख में ही वृद्धि होती है।
ਵਿਣੁ ਸਚੇ ਦਰਬਾਰੁ ਕੂੜਿ ਨ ਪਾਈਐ ॥
विणु सचे दरबारु कूड़ि न पाईऐ ॥
मनुष्य सत्य नाम के बिना झूठे कार्य करके प्रभु के दरबार को प्राप्त नहीं कर सकता।
ਕੂੜੈ ਲਾਲਚਿ ਲਗਿ ਮਹਲੁ ਖੁਆਈਐ ॥
कूड़ै लालचि लगि महलु खुआईऐ ॥
सच्चे परमात्मा के अलावा झूठे लोग ईश्वर के मन्दिरको प्राप्त नहीं होते। झूठे लोभ से सम्मिलित होकर मनुष्य प्रभु के मन्दिर को गंवा देता है।
ਸਭੁ ਜਗੁ ਠਗਿਓ ਠਗਿ ਆਈਐ ਜਾਈਐ ॥
सभु जगु ठगिओ ठगि आईऐ जाईऐ ॥
सारा जगत् घोखेबाज माया ने छल लिया है और प्राणी योनियों में फँसकर जन्म लेता और मरता रहता है।
ਤਨ ਮਹਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਅਗਿ ਸਬਦਿ ਬੁਝਾਈਐ ॥੧੯॥
तन महि त्रिसना अगि सबदि बुझाईऐ ॥१९॥
प्राणी के तन में तृष्णा की अग्नि विद्यमान है। यह प्रभु के नाम से ही बुझाई जा सकती है॥ १९ ॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੧ ॥
सलोक मः १ ॥
श्लोक महला १॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰੁ ਸੰਤੋਖੁ ਰੁਖੁ ਧਰਮੁ ਫੁਲੁ ਫਲ ਗਿਆਨੁ ॥
नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु ॥
हे नानक ! गुरु संतोष रूपी वृक्ष है, इस वृक्ष को धर्म रूपी फूल लगता है और ज्ञान रूपी फल लगते हैं।
ਰਸਿ ਰਸਿਆ ਹਰਿਆ ਸਦਾ ਪਕੈ ਕਰਮਿ ਧਿਆਨਿ ॥
रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि धिआनि ॥
हरि-रस रूपी जल से सीचा हुआ यह वृक्ष सदैव ही हरा-भरा रहता है। भगवान की कृपा से ध्यान द्वारा यह ज्ञान रूपी फल पकते हैं।
ਪਤਿ ਕੇ ਸਾਦ ਖਾਦਾ ਲਹੈ ਦਾਨਾ ਕੈ ਸਿਰਿ ਦਾਨੁ ॥੧॥
पति के साद खादा लहै दाना कै सिरि दानु ॥१॥
इस ज्ञान रूपी फल को खाने वाला मनुष्य पति-प्रभु के मिलाप के आनंद को प्राप्त करता है। ज्ञान रूपी दान ही समस्त दानों में से बड़ा दान है॥ १॥
ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १॥
ਸੁਇਨੇ ਕਾ ਬਿਰਖੁ ਪਤ ਪਰਵਾਲਾ ਫੁਲ ਜਵੇਹਰ ਲਾਲ ॥
सुइने का बिरखु पत परवाला फुल जवेहर लाल ॥
गुरु सोने का वृक्ष है, जिसके पते मूंगे हैं और इसके पुष्प जवाहर एवं माणिक हैं।
ਤਿਤੁ ਫਲ ਰਤਨ ਲਗਹਿ ਮੁਖਿ ਭਾਖਿਤ ਹਿਰਦੈ ਰਿਦੈ ਨਿਹਾਲੁ ॥
तितु फल रतन लगहि मुखि भाखित हिरदै रिदै निहालु ॥
उस पौधे को गुरु के मुखारबिंद के वचन की मणि का फल लगा हुआ है। जो व्यक्ति गुरु के वचनों को अपने हृदय में बसा लेता है, वह कृतार्थ हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਮੁਖਿ ਮਸਤਕਿ ਲਿਖਿਆ ਹੋਵੈ ਲੇਖੁ ॥
नानक करमु होवै मुखि मसतकि लिखिआ होवै लेखु ॥
हे नानक ! गुरु के शब्द रूपी फल उस व्यक्ति के मुंह में ही पड़ते हैं, जिस पर भगवान की कृपा होती है और उसके माथे पर तकदीर का शुभ लेख लिखा होता है।
ਅਠਿਸਠਿ ਤੀਰਥ ਗੁਰ ਕੀ ਚਰਣੀ ਪੂਜੈ ਸਦਾ ਵਿਸੇਖੁ ॥
अठिसठि तीरथ गुर की चरणी पूजै सदा विसेखु ॥
गुरु के चरणों में आने से अठसठ तीर्थों के स्नान से भी अधिक फल मिलता है। अतः हमेशा ही गुरु के चरणों की पूजा करनी चाहिए।
ਹੰਸੁ ਹੇਤੁ ਲੋਭੁ ਕੋਪੁ ਚਾਰੇ ਨਦੀਆ ਅਗਿ ॥
हंसु हेतु लोभु कोपु चारे नदीआ अगि ॥
हे नानक ! हिंसा, मोह, लालच एवं क्रोध यह चारों ही अग्नि की नदियाँ हैं।
ਪਵਹਿ ਦਝਹਿ ਨਾਨਕਾ ਤਰੀਐ ਕਰਮੀ ਲਗਿ ॥੨॥
पवहि दझहि नानका तरीऐ करमी लगि ॥२॥
इनमें पड़ने से प्राणी जल जाता है। इन नदियों में से वहीं मनुष्य पार होते हैं जो भगवान की कृपा से नाम-सिमरन में लग जाते हैं।॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਜੀਵਦਿਆ ਮਰੁ ਮਾਰਿ ਨ ਪਛੋਤਾਈਐ ॥
जीवदिआ मरु मारि न पछोताईऐ ॥
जीवित ही मर जाओ अर्थात् अपने अहंकार को नष्ट कर दो । अहंकार को नष्ट करने के उपरांत पश्चाताप नहीं होगा।
ਝੂਠਾ ਇਹੁ ਸੰਸਾਰੁ ਕਿਨਿ ਸਮਝਾਈਐ ॥
झूठा इहु संसारु किनि समझाईऐ ॥
यह दुनिया झूठी है, परन्तु किसी विरले ने ही यह बात गुरु से समझी है।
ਸਚਿ ਨ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ਧੰਧੈ ਧਾਈਐ ॥
सचि न धरे पिआरु धंधै धाईऐ ॥
मनुष्य सत्यनाम से प्रेम नहीं करता और दुनिया के धंधों में लगकर भटकता रहता है।
ਕਾਲੁ ਬੁਰਾ ਖੈ ਕਾਲੁ ਸਿਰਿ ਦੁਨੀਆਈਐ ॥
कालु बुरा खै कालु सिरि दुनीआईऐ ॥
यम बहुत निर्दयी है और जीवों का नाश करने वाला है। यह दुनिया के लोगों पर सवार है।
ਹੁਕਮੀ ਸਿਰਿ ਜੰਦਾਰੁ ਮਾਰੇ ਦਾਈਐ ॥
हुकमी सिरि जंदारु मारे दाईऐ ॥
ईश्वर के आदेश से यमदूत अवसर पाकर मनुष्य के सिर पर डण्डा मारता है।
ਆਪੇ ਦੇਇ ਪਿਆਰੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈਐ ॥
आपे देइ पिआरु मंनि वसाईऐ ॥
परमेश्वर स्वयं ही अपना प्रेम प्रदान करता है और इसे प्राणी के मन में वास कराता है।
ਮੁਹਤੁ ਨ ਚਸਾ ਵਿਲੰਮੁ ਭਰੀਐ ਪਾਈਐ ॥
मुहतु न चसा विलमु भरीऐ पाईऐ ॥
मनुष्य का शरीर त्यागने में मुहूर्त अथवा क्षण भर का विलम्ब नहीं होता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਬੁਝਿ ਸਚਿ ਸਮਾਈਐ ॥੨੦॥
गुर परसादी बुझि सचि समाईऐ ॥२०॥
गुरु की कृपा से इस भेद को समझ कर प्राणी सत्य में ही समा जाता है।॥२०॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੧ ॥
सलोकु मः १ ॥
श्लोक महला १॥
ਤੁਮੀ ਤੁਮਾ ਵਿਸੁ ਅਕੁ ਧਤੂਰਾ ਨਿਮੁ ਫਲੁ ॥
तुमी तुमा विसु अकु धतूरा निमु फलु ॥
उस व्यक्ति के मन एवं मुंह में तुंधी, विष, आक, धतूरा एवं नीम फल जैसी कड़वाहट बनी रहती है,”
ਮਨਿ ਮੁਖਿ ਵਸਹਿ ਤਿਸੁ ਜਿਸੁ ਤੂੰ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵਹੀ ॥
मनि मुखि वसहि तिसु जिसु तूं चिति न आवही ॥
हे प्रभु ! जिस व्यक्ति को तू हृदय में याद नहीं आता,
ਨਾਨਕ ਕਹੀਐ ਕਿਸੁ ਹੰਢਨਿ ਕਰਮਾ ਬਾਹਰੇ ॥੧॥
नानक कहीऐ किसु हंढनि करमा बाहरे ॥१॥
हे नानक ! ऐसे भाग्यहीन व्यक्ति भटकते रहते हैं और उनकी दुखद दशा किसे बताई जाए॥ १॥
ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १ ॥
ਮਤਿ ਪੰਖੇਰੂ ਕਿਰਤੁ ਸਾਥਿ ਕਬ ਉਤਮ ਕਬ ਨੀਚ ॥
मति पंखेरू किरतु साथि कब उतम कब नीच ॥
आदमी की मति एक पक्षी है। आदमी की किस्मत उस पक्षी के पंख हैं जो उसके साथ रहते हैं। यह पक्षी पंखों से उड़कर कभी उत्तम एवं कभी नीच स्थानों पर बैठता है।