ਤਨ ਮਹਿ ਹੋਤੀ ਕੋਟਿ ਉਪਾਧਿ ॥
तन महि होती कोटि उपाधि ॥
इस शरीर में करोड़ों ही रोग थे।
ਉਲਟਿ ਭਈ ਸੁਖ ਸਹਜਿ ਸਮਾਧਿ ॥
उलटि भई सुख सहजि समाधि ॥
ईश्वर का नाम-सिमरन करने से अब वे भी सहज सुख एवं समाधि में बदल गए हैं।
ਆਪੁ ਪਛਾਨੈ ਆਪੈ ਆਪ ॥
आपु पछानै आपै आप ॥
मेरे मन ने अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लिया है,
ਰੋਗੁ ਨ ਬਿਆਪੈ ਤੀਨੌ ਤਾਪ ॥੨॥
रोगु न बिआपै तीनौ ताप ॥२॥
अब इसे ईश्वर ही ईश्वर दृष्टिमान हो रहा है, रोग एवं तीनों ताप प्रभावित नहीं कर सकते॥ २॥
ਅਬ ਮਨੁ ਉਲਟਿ ਸਨਾਤਨੁ ਹੂਆ ॥
अब मनु उलटि सनातनु हूआ ॥
अब मेरा मन हटकर सनातन (ईश्वर का रूप) हो गया है,
ਤਬ ਜਾਨਿਆ ਜਬ ਜੀਵਤ ਮੂਆ ॥
तब जानिआ जब जीवत मूआ ॥
इस बात का तब ज्ञान होता है, जब यह मन माया में विचरण करता हुआ भी माया के मोह से सर्वोच्च हो गया।
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਸੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਉ ॥
कहु कबीर सुखि सहजि समावउ ॥
हे कबीर ! अब मैं सहज सुख में समा गया हूँ।
ਆਪਿ ਨ ਡਰਉ ਨ ਅਵਰ ਡਰਾਵਉ ॥੩॥੧੭॥
आपि न डरउ न अवर डरावउ ॥३॥१७॥
इसलिए अब न मैं स्वयं किसी दूसरे से भयभीत होता हूँ और न ही किसी दूसरे को भयभीत करता हूँ॥ ३॥ १७॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਪਿੰਡਿ ਮੂਐ ਜੀਉ ਕਿਹ ਘਰਿ ਜਾਤਾ ॥
पिंडि मूऐ जीउ किह घरि जाता ॥
(प्रश्न) जब किसी महापुरुष का शरीर प्राण त्याग देता है तो आत्मा कहाँ चली जाती है?
ਸਬਦਿ ਅਤੀਤਿ ਅਨਾਹਦਿ ਰਾਤਾ ॥
सबदि अतीति अनाहदि राता ॥
(उत्तर-) यह पवित्रात्मा शब्द के प्रभाव से अमर प्रभु में लीन हो जाती है।
ਜਿਨਿ ਰਾਮੁ ਜਾਨਿਆ ਤਿਨਹਿ ਪਛਾਨਿਆ ॥
जिनि रामु जानिआ तिनहि पछानिआ ॥
जो राम को समझता है, वही उसके स्वाद को अनुभव करता है,
ਜਿਉ ਗੂੰਗੇ ਸਾਕਰ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥੧॥
जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ ॥१॥
जैसे गूंगे मनुष्य का मन शक्कर खाने से संतुष्ट हो जाता है॥ १॥
ਐਸਾ ਗਿਆਨੁ ਕਥੈ ਬਨਵਾਰੀ ॥
ऐसा गिआनु कथै बनवारी ॥
ऐसा ज्ञान ईश्वर ही प्रकट करता है।
ਮਨ ਰੇ ਪਵਨ ਦ੍ਰਿੜ ਸੁਖਮਨ ਨਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मन रे पवन द्रिड़ सुखमन नारी ॥१॥ रहाउ ॥
हे मन ! प्रत्येक श्वास से नाम-स्मरण कर, यही सुषुम्ना नाड़ी का अभ्यास है॥ १॥ रहाउ॥
ਸੋ ਗੁਰੁ ਕਰਹੁ ਜਿ ਬਹੁਰਿ ਨ ਕਰਨਾ ॥
सो गुरु करहु जि बहुरि न करना ॥
ऐसा गुरु धारण कर जो तुझे पुनः गुरु धारण करने की आवश्यकता न पड़े;
ਸੋ ਪਦੁ ਰਵਹੁ ਜਿ ਬਹੁਰਿ ਨ ਰਵਨਾ ॥
सो पदु रवहु जि बहुरि न रवना ॥
ऐसा शब्द उच्चारण कर चूंकि जो तुझे और उच्चारण न करना पड़े।
ਸੋ ਧਿਆਨੁ ਧਰਹੁ ਜਿ ਬਹੁਰਿ ਨ ਧਰਨਾ ॥
सो धिआनु धरहु जि बहुरि न धरना ॥
ऐसा ध्यान लगाओ कि फिर ध्यान लगाने की आवश्यकता ही न रहे।
ਐਸੇ ਮਰਹੁ ਜਿ ਬਹੁਰਿ ਨ ਮਰਨਾ ॥੨॥
ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना ॥२॥
इस विधि से मरो कि तुझे जन्म-मरण के चक्र में न पड़ना पड़े॥ २ ॥
ਉਲਟੀ ਗੰਗਾ ਜਮੁਨ ਮਿਲਾਵਉ ॥
उलटी गंगा जमुन मिलावउ ॥
मैंने अपने मन का ध्यान बदल दिया है इस प्रकार मैं गंगा और यमुना को मिला रहा हूँ।
ਬਿਨੁ ਜਲ ਸੰਗਮ ਮਨ ਮਹਿ ਨੑਾਵਉ ॥
बिनु जल संगम मन महि न्हावउ ॥
इस प्रकार (मैं उस मन-रूपी त्रिवेणी) संगम में स्नान कर रहा हूँ, जहाँ (गंगा, जमुना, सरस्वती वाला) जल नहीं है,
ਲੋਚਾ ਸਮਸਰਿ ਇਹੁ ਬਿਉਹਾਰਾ ॥
लोचा समसरि इहु बिउहारा ॥
अब मैं इन नेत्रों से सबको एक समान देख रहा हूँ। यही मेरा जीवन-व्यवहार है।
ਤਤੁ ਬੀਚਾਰਿ ਕਿਆ ਅਵਰਿ ਬੀਚਾਰਾ ॥੩॥
ततु बीचारि किआ अवरि बीचारा ॥३॥
एक ईश्वर का चिन्तन कर, और चिन्तन की आवश्यकता नहीं॥ ३ ॥
ਅਪੁ ਤੇਜੁ ਬਾਇ ਪ੍ਰਿਥਮੀ ਆਕਾਸਾ ॥ ਐਸੀ ਰਹਤ ਰਹਉ ਹਰਿ ਪਾਸਾ ॥
अपु तेजु बाइ प्रिथमी आकासा ॥ ऐसी रहत रहउ हरि पासा ॥
ईश्वर के चरणों में लगकर मैं इस प्रकार का जीवन-आचरण कर रहा हूँ, जैसे जल, अग्नि, पवन, धरती एवं आकाश
ਕਹੈ ਕਬੀਰ ਨਿਰੰਜਨ ਧਿਆਵਉ ॥
कहै कबीर निरंजन धिआवउ ॥
कबीर जी कहते हैं कि तू निरंजन प्रभु का ध्यान कर,
ਤਿਤੁ ਘਰਿ ਜਾਉ ਜਿ ਬਹੁਰਿ ਨ ਆਵਉ ॥੪॥੧੮॥
तितु घरि जाउ जि बहुरि न आवउ ॥४॥१८॥
जिससे उस घर में पहुँच जहाँ से लौटकर न आना पड़े॥ ४॥ १८ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ਤਿਪਦੇ ॥
गउड़ी कबीर जी तिपदे ॥
गउड़ी कबीर जी तिपदे ॥
ਕੰਚਨ ਸਿਉ ਪਾਈਐ ਨਹੀ ਤੋਲਿ ॥
कंचन सिउ पाईऐ नही तोलि ॥
अपने वजन जितना सोना दान देने से भगवान प्राप्त नहीं होता।
ਮਨੁ ਦੇ ਰਾਮੁ ਲੀਆ ਹੈ ਮੋਲਿ ॥੧॥
मनु दे रामु लीआ है मोलि ॥१॥
मैंने तो अपना मन मूल्य के रूप में देकर राम को प्राप्त किया है॥ १॥
ਅਬ ਮੋਹਿ ਰਾਮੁ ਅਪੁਨਾ ਕਰਿ ਜਾਨਿਆ ॥
अब मोहि रामु अपुना करि जानिआ ॥
अब मुझे आस्था हो गई कि राम मेरा अपना ही है,
ਸਹਜ ਸੁਭਾਇ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सहज सुभाइ मेरा मनु मानिआ ॥१॥ रहाउ ॥
मेरा मन सहज स्वभाव उससे प्रसन्न है॥ १॥ रहाउ॥
ਬ੍ਰਹਮੈ ਕਥਿ ਕਥਿ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥
ब्रहमै कथि कथि अंतु न पाइआ ॥
जिस ईश्वर के गुण बतला-बतलाकर ब्रह्मा ने भी अन्त नहीं पाया,
ਰਾਮ ਭਗਤਿ ਬੈਠੇ ਘਰਿ ਆਇਆ ॥੨॥
राम भगति बैठे घरि आइआ ॥२॥
यह ईश्वर मेरी राम-भक्ति से मेरे हृदय (घर) में बैठ गया है॥ २॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਚੰਚਲ ਮਤਿ ਤਿਆਗੀ ॥
कहु कबीर चंचल मति तिआगी ॥
हे कबीर ! मैंने अपनी चंचल मति त्याग दी है,”
ਕੇਵਲ ਰਾਮ ਭਗਤਿ ਨਿਜ ਭਾਗੀ ॥੩॥੧॥੧੯॥
केवल राम भगति निज भागी ॥३॥१॥१९॥
केवल राम की भक्ति ही मेरे अपने भाग्यों में आई हैI॥ ३॥ १॥ १९॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜਿਹ ਮਰਨੈ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਤਰਾਸਿਆ ॥
जिह मरनै सभु जगतु तरासिआ ॥
जिस मृत्यु से सारी दुनिया भयभीत हुई रहती है,
ਸੋ ਮਰਨਾ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਪ੍ਰਗਾਸਿਆ ॥੧॥
सो मरना गुर सबदि प्रगासिआ ॥१॥
उस मृत्यु का यथार्थ गुरु के शब्द द्वारा प्रकट हो गया है (केि मृत्यु वास्तव में क्या है)॥ १॥
ਅਬ ਕੈਸੇ ਮਰਉ ਮਰਨਿ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥
अब कैसे मरउ मरनि मनु मानिआ ॥
अब मैं कैसे जन्म-मरण (के चक्र) में पडूंगा ?
ਮਰਿ ਮਰਿ ਜਾਤੇ ਜਿਨ ਰਾਮੁ ਨ ਜਾਨਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मरि मरि जाते जिन रामु न जानिआ ॥१॥ रहाउ ॥
मेरे मन ने मृत्यु को वश में कर लिया है। जो लोग राम को नहीं जानते, वे बार-बार जन्मते -मरते रहते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਮਰਨੋ ਮਰਨੁ ਕਹੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ॥
मरनो मरनु कहै सभु कोई ॥
दुनिया में प्रत्येक प्राणी मृत्यु ‘मृत्यु’ कह रहा है,
ਸਹਜੇ ਮਰੈ ਅਮਰੁ ਹੋਇ ਸੋਈ ॥੨॥
सहजे मरै अमरु होइ सोई ॥२॥
केवल वही (मनुष्य) अमर होता है, जो ज्ञान द्वारा मरता है॥ २॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਮਨਿ ਭਇਆ ਅਨੰਦਾ ॥
कहु कबीर मनि भइआ अनंदा ॥
हे कबीर ! मेरे मन में आनंद उत्पन्न हो गया है।
ਗਇਆ ਭਰਮੁ ਰਹਿਆ ਪਰਮਾਨੰਦਾ ॥੩॥੨੦॥
गइआ भरमु रहिआ परमानंदा ॥३॥२०॥
मेरी दुविधा का नाश हो गया है और परमानंद हृदय में स्थित है। ३॥ २० ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਕਤ ਨਹੀ ਠਉਰ ਮੂਲੁ ਕਤ ਲਾਵਉ ॥
कत नही ठउर मूलु कत लावउ ॥
इस शरीर में कोई (विशेष) स्थान नहीं मिला जहाँ आत्मा को पीड़ा होती है तो फिर मैं औषधि कहाँ इस्तेमाल करूं ?
ਖੋਜਤ ਤਨ ਮਹਿ ਠਉਰ ਨ ਪਾਵਉ ॥੧॥
खोजत तन महि ठउर न पावउ ॥१॥
मैंने अपने शरीर की खोज कर ली है, परन्तु मुझे कोई ऐसा स्थान नहीं मिला॥ १॥
ਲਾਗੀ ਹੋਇ ਸੁ ਜਾਨੈ ਪੀਰ ॥
लागी होइ सु जानै पीर ॥
जिसे पीड़ा अनुभव हुई है, वही इसे जानता है।
ਰਾਮ ਭਗਤਿ ਅਨੀਆਲੇ ਤੀਰ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
राम भगति अनीआले तीर ॥१॥ रहाउ ॥
राम की भक्ति के बाण बड़े तीक्ष्ण हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਏਕ ਭਾਇ ਦੇਖਉ ਸਭ ਨਾਰੀ ॥
एक भाइ देखउ सभ नारी ॥
मैं समस्त नारियों (जीव-स्त्रियों) को एक दृष्टि से देखता हूँ
ਕਿਆ ਜਾਨਉ ਸਹ ਕਉਨ ਪਿਆਰੀ ॥੨॥
किआ जानउ सह कउन पिआरी ॥२॥
परन्तु मैं क्या जानूं कि कौन-सी नारी (जीव-स्त्री) पति-प्रभु की प्रिया है॥ २॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਜਾ ਕੈ ਮਸਤਕਿ ਭਾਗੁ ॥
कहु कबीर जा कै मसतकि भागु ॥
हे कबीर ! जिस जीव-स्त्री के माथे पर शुभ भाग्य हैं,
ਸਭ ਪਰਹਰਿ ਤਾ ਕਉ ਮਿਲੈ ਸੁਹਾਗੁ ॥੩॥੨੧॥
सभ परहरि ता कउ मिलै सुहागु ॥३॥२१॥
पति-प्रभु सबको छोड़कर उसे आ मिलता है।॥ ३॥ २१॥