ਜਬ ਨ ਹੋਇ ਰਾਮ ਨਾਮ ਅਧਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जब न होइ राम नाम अधारा ॥१॥ रहाउ ॥
जब राम के नाम का आधार नहीं होगा ॥ १॥ रहाउ ॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਖੋਜਉ ਅਸਮਾਨ ॥
कहु कबीर खोजउ असमान ॥
हे कबीर ! मैं आकाश तक खोज कर चुका हूँ
ਰਾਮ ਸਮਾਨ ਨ ਦੇਖਉ ਆਨ ॥੨॥੩੪॥
राम समान न देखउ आन ॥२॥३४॥
परन्तु मुझे राम के तुल्य दूसरा कोई दिखाई नहीं दिया ॥ २॥ ३४॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜਿਹ ਸਿਰਿ ਰਚਿ ਰਚਿ ਬਾਧਤ ਪਾਗ ॥
जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥
जिस सिर पर इन्सान संवार-संवार कर पगड़ी बाँधता है,
ਸੋ ਸਿਰੁ ਚੁੰਚ ਸਵਾਰਹਿ ਕਾਗ ॥੧॥
सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥
(मरणोपरांत) उस सिर को कौए अपनी चोंचों से संवारते हैं॥ १॥
ਇਸੁ ਤਨ ਧਨ ਕੋ ਕਿਆ ਗਰਬਈਆ ॥
इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥
इस शरीर एवं धन पर क्या अहंकार किया जा सकता है?
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਕਾਹੇ ਨ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹ੍ਹੀਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ ॥
(हे प्राणी !) तू राम के नाम को क्यों याद नहीं करता ?॥ १॥ रहाउ॥
ਕਹਤ ਕਬੀਰ ਸੁਨਹੁ ਮਨ ਮੇਰੇ ॥
कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥
कबीर जी कहते हैं-हे मेरे मन ! सुन,
ਇਹੀ ਹਵਾਲ ਹੋਹਿਗੇ ਤੇਰੇ ॥੨॥੩੫॥
इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥
जब मृत्यु आएगी तो तेरा भी यही हाल होगा॥ २॥ ३५॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਕੇ ਪਦੇ ਪੈਤੀਸ ॥
गउड़ी गुआरेरी के पदे पैतीस ॥
गउड़ी गुआरेरी के पदे पैतीस ॥
ਰਾਗੁ ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਅਸਟਪਦੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ਕੀ
रागु गउड़ी गुआरेरी असटपदी कबीर जी की
रागु गउड़ी गुआरेरी असटपदी कबीर जी की
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਸੁਖੁ ਮਾਂਗਤ ਦੁਖੁ ਆਗੈ ਆਵੈ ॥ ਸੋ ਸੁਖੁ ਹਮਹੁ ਨ ਮਾਂਗਿਆ ਭਾਵੈ ॥੧॥
सुखु मांगत दुखु आगै आवै ॥ सो सुखु हमहु न मांगिआ भावै ॥१॥
इन्सान सुख माँगता है, परन्तु उसे दुःख आकर मिलता है। “(इसलिए) मुझे उस सुख की कामना अच्छी नहीं लगती, जिस सुख से दुःख प्राप्त होता है॥ १॥
ਬਿਖਿਆ ਅਜਹੁ ਸੁਰਤਿ ਸੁਖ ਆਸਾ ॥
बिखिआ अजहु सुरति सुख आसा ॥
इन्सान की वृति माया के विकारों में लगी हुई है लेकिन वह सुख की अभिलाषा करता है।
ਕੈਸੇ ਹੋਈ ਹੈ ਰਾਜਾ ਰਾਮ ਨਿਵਾਸਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
कैसे होई है राजा राम निवासा ॥१॥ रहाउ ॥
तो फेिर वह किस तरह राजा राम में निवास पाएगा ॥ १॥ रहाउ॥
ਇਸੁ ਸੁਖ ਤੇ ਸਿਵ ਬ੍ਰਹਮ ਡਰਾਨਾ ॥
इसु सुख ते सिव ब्रहम डराना ॥
इस (माया के) सुख से शिवजी एवं ब्रह्मा (जैसे देवते भी) भयभीत हैं।
ਸੋ ਸੁਖੁ ਹਮਹੁ ਸਾਚੁ ਕਰਿ ਜਾਨਾ ॥੨॥
सो सुखु हमहु साचु करि जाना ॥२॥
इस सुख को मैं सत्य करके जानता हूँ॥ २॥
ਸਨਕਾਦਿਕ ਨਾਰਦ ਮੁਨਿ ਸੇਖਾ ॥
सनकादिक नारद मुनि सेखा ॥
ह्म के चारों पुत्र सनकादिक, नारद मुनि एवं शेषनाग-“
ਤਿਨ ਭੀ ਤਨ ਮਹਿ ਮਨੁ ਨਹੀ ਪੇਖਾ ॥੩॥
तिन भी तन महि मनु नही पेखा ॥३॥
इन्होंने भी अपनी आत्मा को अपने शरीर में नहीं देखा ॥ ३॥
ਇਸੁ ਮਨ ਕਉ ਕੋਈ ਖੋਜਹੁ ਭਾਈ ॥
इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥
हे भाई ! कोई इस आत्मा की खोज करो केि
ਤਨ ਛੂਟੇ ਮਨੁ ਕਹਾ ਸਮਾਈ ॥੪॥
तन छूटे मनु कहा समाई ॥४॥
शरीर से जुदा होकर यह आत्मा कहाँ चली जाती है ? ॥ ४॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਜੈਦੇਉ ਨਾਮਾਂ ॥
गुर परसादी जैदेउ नामां ॥
गुरु की कृपा से जयदेव, नामदेव जैसे भक्तों ने भी
ਭਗਤਿ ਕੈ ਪ੍ਰੇਮਿ ਇਨ ਹੀ ਹੈ ਜਾਨਾਂ ॥੫॥
भगति कै प्रेमि इन ही है जानां ॥५॥
इस रहस्य को प्रभु-भक्ति के चाव से जाना है॥ ५॥
ਇਸੁ ਮਨ ਕਉ ਨਹੀ ਆਵਨ ਜਾਨਾ ॥
इसु मन कउ नही आवन जाना ॥
उसकी आत्मा जन्म-मरण के चक्र में नहीं पड़ती ,
ਜਿਸ ਕਾ ਭਰਮੁ ਗਇਆ ਤਿਨਿ ਸਾਚੁ ਪਛਾਨਾ ॥੬॥
जिस का भरमु गइआ तिनि साचु पछाना ॥६॥
जिस व्यक्ति का भ्रम मिट जाता है, और वह सत्य को पहचान लेता है ॥ ६॥
ਇਸੁ ਮਨ ਕਉ ਰੂਪੁ ਨ ਰੇਖਿਆ ਕਾਈ ॥
इसु मन कउ रूपु न रेखिआ काई ॥
वास्तव में इस आत्मा का कोई स्वरूप अथवा चक्र-चिन्ह नहीं।
ਹੁਕਮੇ ਹੋਇਆ ਹੁਕਮੁ ਬੂਝਿ ਸਮਾਈ ॥੭॥
हुकमे होइआ हुकमु बूझि समाई ॥७॥
प्रभु के हुक्म द्वारा ही इसकी रचना की गई थी और उसके हुक्म को समझ कर यह उसमें समा जाएगी॥ ७॥
ਇਸ ਮਨ ਕਾ ਕੋਈ ਜਾਨੈ ਭੇਉ ॥
इस मन का कोई जानै भेउ ॥
क्या कोई मनुष्य इस आत्मा के रहस्य को जानता है?
ਇਹ ਮਨਿ ਲੀਣ ਭਏ ਸੁਖਦੇਉ ॥੮॥
इह मनि लीण भए सुखदेउ ॥८॥
यह आत्मा अंत : सुखदाता प्रभु में ही समा जाती है॥ ८ ॥
ਜੀਉ ਏਕੁ ਅਰੁ ਸਗਲ ਸਰੀਰਾ ॥
जीउ एकु अरु सगल सरीरा ॥
आत्मा एक है लेकिन यह समस्त शरीरों में समाई हुई है।
ਇਸੁ ਮਨ ਕਉ ਰਵਿ ਰਹੇ ਕਬੀਰਾ ॥੯॥੧॥੩੬॥
इसु मन कउ रवि रहे कबीरा ॥९॥१॥३६॥
इस आत्मा (अर्थात् प्रभु) का ही कबीर चिन्तन कर रहा है॥ ६ ॥ १॥ ३६॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ॥
गउड़ी गुआरेरी ॥
गउड़ी गुआरेरी ॥
ਅਹਿਨਿਸਿ ਏਕ ਨਾਮ ਜੋ ਜਾਗੇ ॥ ਕੇਤਕ ਸਿਧ ਭਏ ਲਿਵ ਲਾਗੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अहिनिसि एक नाम जो जागे ॥ केतक सिध भए लिव लागे ॥१॥ रहाउ ॥
उन लोगों में जो केवल नाम-सिमरन में ही दिन-रात जाग्रत रहते थे, बहुत सारे ऐसे व्यक्ति प्रभु के साथ वृत्ति लगाने से सिद्ध बन गए हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਸਾਧਕ ਸਿਧ ਸਗਲ ਮੁਨਿ ਹਾਰੇ ॥
साधक सिध सगल मुनि हारे ॥
साधक, सिद्ध एवं मुनिजन हार गए हैं।
ਏਕ ਨਾਮ ਕਲਿਪ ਤਰ ਤਾਰੇ ॥੧॥
एक नाम कलिप तर तारे ॥१॥
केवल एक ईश्वर का नाम ही कल्पवृक्ष है जो जीवों का (भवसागर से) उद्धार कर देता है॥ १॥
ਜੋ ਹਰਿ ਹਰੇ ਸੁ ਹੋਹਿ ਨ ਆਨਾ ॥
जो हरि हरे सु होहि न आना ॥
कबीर जी कहते हैं-जो व्यक्ति हरि का सिमरन करते हैं, उनका दुनिया में जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਰਾਮ ਨਾਮ ਪਛਾਨਾ ॥੨॥੩੭॥
कहि कबीर राम नाम पछाना ॥२॥३७॥
वह केवल राम के नाम को ही पहचानते हैं॥ २ ॥ ३७ ॥
ਗਉੜੀ ਭੀ ਸੋਰਠਿ ਭੀ ॥
गउड़ी भी सोरठि भी ॥
गउड़ी भी सोरठि भी ॥
ਰੇ ਜੀਅ ਨਿਲਜ ਲਾਜ ਤੋੁਹਿ ਨਾਹੀ ॥
रे जीअ निलज लाज तोहि नाही ॥
हे निर्लज्ज जीव ! क्या तुझे शर्म नहीं आती ?
ਹਰਿ ਤਜਿ ਕਤ ਕਾਹੂ ਕੇ ਜਾਂਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ ॥
ईश्वर को छोड़कर तू कहाँ और किसके पास जाता है ? ॥ १॥ रहाउ॥
ਜਾ ਕੋ ਠਾਕੁਰੁ ਊਚਾ ਹੋਈ ॥
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥
जिसका मालिक सर्वोपरि होता है,”
ਸੋ ਜਨੁ ਪਰ ਘਰ ਜਾਤ ਨ ਸੋਹੀ ॥੧॥
सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
वह पुरुष पराए घर को जाता शोभा नहीं पाता॥ १॥
ਸੋ ਸਾਹਿਬੁ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥
वह प्रभु-परमेश्वर हर जगह मौजूद है।
ਸਦਾ ਸੰਗਿ ਨਾਹੀ ਹਰਿ ਦੂਰਿ ॥੨॥
सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
वह सदा हमारे साथ है और कभी भी दूर नहीं ॥ २॥
ਕਵਲਾ ਚਰਨ ਸਰਨ ਹੈ ਜਾ ਕੇ ॥
कवला चरन सरन है जा के ॥
जिसके चरणों की शरण धन की देवी लक्ष्मी भी लिए बैठी है,
ਕਹੁ ਜਨ ਕਾ ਨਾਹੀ ਘਰ ਤਾ ਕੇ ॥੩॥
कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
हे भाई ! बता, उस श्री हरि के घर किस वस्तु की कमी है ? ॥ ३॥
ਸਭੁ ਕੋਊ ਕਹੈ ਜਾਸੁ ਕੀ ਬਾਤਾ ॥
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥
जिस परमात्मा की यश की बातें हरेक प्राणी कर रहा है,
ਸੋ ਸੰਮ੍ਰਥੁ ਨਿਜ ਪਤਿ ਹੈ ਦਾਤਾ ॥੪॥
सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
वह सर्वशक्तिमान, अपने आप का स्वयं स्वामी और दाता है॥ ४॥
ਕਹੈ ਕਬੀਰੁ ਪੂਰਨ ਜਗ ਸੋਈ ॥
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥
कबीर जी कहते हैं-इस दुनिया में केवल वही मनुष्य गुणवान है,
ਜਾ ਕੇ ਹਿਰਦੈ ਅਵਰੁ ਨ ਹੋਈ ॥੫॥੩੮॥
जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥
जिसके हृदय में ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं बसता ॥ ५॥ ३८