ਝੂਠਾ ਪਰਪੰਚੁ ਜੋਰਿ ਚਲਾਇਆ ॥੨॥
झूठा परपंचु जोरि चलाइआ ॥२॥
लेकिन जीव सब झुठलाकर झूठा परपंच करके बैठ जाता है॥ २॥
ਕਿਨਹੂ ਲਾਖ ਪਾਂਚ ਕੀ ਜੋਰੀ ॥
किनहू लाख पांच की जोरी ॥
कई मनुष्यों ने पाँच लाख की सम्पति जोड़ ली है,
ਅੰਤ ਕੀ ਬਾਰ ਗਗਰੀਆ ਫੋਰੀ ॥੩॥
अंत की बार गगरीआ फोरी ॥३॥
मृत्यु आने पर उनकी भी शरीर-रूपी गागर टूट जाती है॥ ३॥
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਇਕ ਨੀਵ ਉਸਾਰੀ ॥ ਖਿਨ ਮਹਿ ਬਿਨਸਿ ਜਾਇ ਅਹੰਕਾਰੀ ॥੪॥੧॥੯॥੬੦॥
कहि कबीर इक नीव उसारी ॥ खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी ॥४॥१॥९॥६०॥
कबीर जी कहते हैं–हे अभिमानी जीव ! तेरी जीवन की जो बुनियाद रखी गई है, वह एक पलक में ही नाश होने वाली है॥ ४॥ १॥ ९ ॥ ६०॥
ਗਉੜੀ ॥
गउड़ी ॥
गउड़ी ॥
ਰਾਮ ਜਪਉ ਜੀਅ ਐਸੇ ਐਸੇ ॥
राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥
हे मेरी आत्मा ! ऐसे राम का नाम जपो,
ਧ੍ਰੂ ਪ੍ਰਹਿਲਾਦ ਜਪਿਓ ਹਰਿ ਜੈਸੇ ॥੧॥
ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
जैसे धुव एवं भक्त प्रहलाद ने श्री हरि की आराधना की थी॥ १॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਭਰੋਸੇ ਤੇਰੇ ॥
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥
हे दीनदयालु! तेरे भरोसे पर
ਸਭੁ ਪਰਵਾਰੁ ਚੜਾਇਆ ਬੇੜੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
मैंने अपना सारा परिवार ही तेरे नाम रूपी जहाज पर चढ़ा दिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਜਾ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਹੁਕਮੁ ਮਨਾਵੈ ॥
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥
जब प्रभु को अच्छा लगता है तो वह (इस सारे परिवार से) अपना हुक्म मनवाता है,
ਇਸ ਬੇੜੇ ਕਉ ਪਾਰਿ ਲਘਾਵੈ ॥੨॥
इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
और इस प्रकार परिवार सहित इस जहाज को विकारों की लहरों से पार कर देता है॥ २॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਐਸੀ ਬੁਧਿ ਸਮਾਨੀ ॥
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥
गुरु की कृपा से मेरे भीतर ऐसी बुद्धि प्रकट हो गई है
ਚੂਕਿ ਗਈ ਫਿਰਿ ਆਵਨ ਜਾਨੀ ॥੩॥
चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
कि मेरा जन्म-मरण का चक्र ही मिट गया है। ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਭਜੁ ਸਾਰਿਗਪਾਨੀ ॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
हे कबीर ! तू सारंगपाणि प्रभु का भजन कर,
ਉਰਵਾਰਿ ਪਾਰਿ ਸਭ ਏਕੋ ਦਾਨੀ ॥੪॥੨॥੧੦॥੬੧॥
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥
इस लोक एवं परलोक में सर्वत्र केवल वही दाता है॥ ४॥ २ ॥ १o ॥ ६१॥
ਗਉੜੀ ੯ ॥
गउड़ी ९ ॥
गउड़ी ९ ॥
ਜੋਨਿ ਛਾਡਿ ਜਉ ਜਗ ਮਹਿ ਆਇਓ ॥
जोनि छाडि जउ जग महि आइओ ॥
माँ का गर्भ छोड़कर जब प्राणी दुनिया में आता है तो
ਲਾਗਤ ਪਵਨ ਖਸਮੁ ਬਿਸਰਾਇਓ ॥੧॥
लागत पवन खसमु बिसराइओ ॥१॥
(माया रूपी) हवा लगते ही मालिक-प्रभु को विस्मृत कर देता है॥ १॥
ਜੀਅਰਾ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨਾ ਗਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जीअरा हरि के गुना गाउ ॥१॥ रहाउ ॥
हे मेरे मन ! भगवान की महिमा-स्तुति कर॥ १॥ रहाउ॥
ਗਰਭ ਜੋਨਿ ਮਹਿ ਉਰਧ ਤਪੁ ਕਰਤਾ ॥
गरभ जोनि महि उरध तपु करता ॥
(हे मन !) जब तू गर्भ योनि में उल्टा लटका हुआ तपस्या करता था
ਤਉ ਜਠਰ ਅਗਨਿ ਮਹਿ ਰਹਤਾ ॥੨॥
तउ जठर अगनि महि रहता ॥२॥
तो तू पेट की अग्नि में रहता था॥ २ ॥
ਲਖ ਚਉਰਾਸੀਹ ਜੋਨਿ ਭ੍ਰਮਿ ਆਇਓ ॥
लख चउरासीह जोनि भ्रमि आइओ ॥
जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ इस दुनिया में आया है।
ਅਬ ਕੇ ਛੁਟਕੇ ਠਉਰ ਨ ਠਾਇਓ ॥੩॥
अब के छुटके ठउर न ठाइओ ॥३॥
लेकिन दुनिया में भी खाली घूमते हुए फिर कोई स्थान नहीं मिलता ॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਭਜੁ ਸਾਰਿਗਪਾਨੀ ॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
हे कबीर ! सारंगपाणि प्रभु का भजन कर,
ਆਵਤ ਦੀਸੈ ਜਾਤ ਨ ਜਾਨੀ ॥੪॥੧॥੧੧॥੬੨॥
आवत दीसै जात न जानी ॥४॥१॥११॥६२॥
जो न जन्मता दिखता है और न मरता हुआ सुना जाता है।॥ ४॥ १॥ ११॥ ६२॥
ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ॥
गउड़ी पूरबी ॥
गउड़ी पूरबी ॥
ਸੁਰਗ ਬਾਸੁ ਨ ਬਾਛੀਐ ਡਰੀਐ ਨ ਨਰਕਿ ਨਿਵਾਸੁ ॥
सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥
(हे जीव !) स्वर्ग में निवास के लिए कामना नहीं करनी चाहिए और न ही नरक में वास करने से डरना चाहिए।
ਹੋਨਾ ਹੈ ਸੋ ਹੋਈ ਹੈ ਮਨਹਿ ਨ ਕੀਜੈ ਆਸ ॥੧॥
होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
जो कुछ होना है, वह निश्चित ही होगा। इसलिए अपने मन में कोई आशा मत रख॥ १॥
ਰਮਈਆ ਗੁਨ ਗਾਈਐ ॥
रमईआ गुन गाईऐ ॥
“(हे जीव !) भगवान की महिमा-स्तुति करते रहना चाहिए,
ਜਾ ਤੇ ਪਾਈਐ ਪਰਮ ਨਿਧਾਨੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ ॥
इस प्रकार नाम रूपी सर्वश्रेष्ठ खजाना प्राप्त होता है॥ १॥ रहाउ॥
ਕਿਆ ਜਪੁ ਕਿਆ ਤਪੁ ਸੰਜਮੋ ਕਿਆ ਬਰਤੁ ਕਿਆ ਇਸਨਾਨੁ ॥
किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥
क्या लाभ जप का, क्या तपस्या का, क्या संयम का, क्या व्रत का एवं क्या लाभ स्नान करने का।
ਜਬ ਲਗੁ ਜੁਗਤਿ ਨ ਜਾਨੀਐ ਭਾਉ ਭਗਤਿ ਭਗਵਾਨ ॥੨॥
जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
जब तक भगवान के साथ प्रेम एवं उसकी भक्ति की युक्ति ही नहीं आती ? ॥ २॥
ਸੰਪੈ ਦੇਖਿ ਨ ਹਰਖੀਐ ਬਿਪਤਿ ਦੇਖਿ ਨ ਰੋਇ ॥
स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥
संपति देखकर खुश नहीं होना चाहिए और न ही विपत्ति देखकर रोना चाहिए।
ਜਿਉ ਸੰਪੈ ਤਿਉ ਬਿਪਤਿ ਹੈ ਬਿਧ ਨੇ ਰਚਿਆ ਸੋ ਹੋਇ ॥੩॥
जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
जो कुछ भगवान करता है वही होता है, जैसे संपति है वैसे ही विपत्ति है॥ ३॥
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਅਬ ਜਾਨਿਆ ਸੰਤਨ ਰਿਦੈ ਮਝਾਰਿ ॥
कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥
कबीर जी कहते हैं-अब यह ज्ञान हुआ है (कि ईश्वर) संतों के हृदय में बसता है,
ਸੇਵਕ ਸੋ ਸੇਵਾ ਭਲੇ ਜਿਹ ਘਟ ਬਸੈ ਮੁਰਾਰਿ ॥੪॥੧॥੧੨॥੬੩॥
सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥
वही सेवक सेवा करते हुए भले लगते हैं, जिनके हृदय में ईश्वर बसता है॥ ४॥ १॥ १२ ॥ ६३॥
ਗਉੜੀ ॥
गउड़ी ॥
गउड़ी ॥
ਰੇ ਮਨ ਤੇਰੋ ਕੋਇ ਨਹੀ ਖਿੰਚਿ ਲੇਇ ਜਿਨਿ ਭਾਰੁ ॥
रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥
हे मन ! अंतकाल तेरा कोईसहायक नहीं बनेगा, चाहे (दूसरे रिश्तेदारों का) भार खींचकर अपने सिर पर ले ले।
ਬਿਰਖ ਬਸੇਰੋ ਪੰਖਿ ਕੋ ਤੈਸੋ ਇਹੁ ਸੰਸਾਰੁ ॥੧॥
बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
जैसे पक्षियों का बसेरा वृक्षों पर होता है, वैसे ही इस दुनिया का निवास है॥ १॥
ਰਾਮ ਰਸੁ ਪੀਆ ਰੇ ॥
राम रसु पीआ रे ॥
हे भाई ! मैंने राम रस का पान किया है
ਜਿਹ ਰਸ ਬਿਸਰਿ ਗਏ ਰਸ ਅਉਰ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ ॥
जिस रस से मुझे दूसरे रस (स्वाद) भूल गए हैं। ॥ रहाउ॥
ਅਉਰ ਮੁਏ ਕਿਆ ਰੋਈਐ ਜਉ ਆਪਾ ਥਿਰੁ ਨ ਰਹਾਇ ॥
अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥
किसी दूसरे की मृत्यु पर विलाप करने का क्या अभिप्राय, जब हमने आप ही सदा निवास नहीं करना।
ਜੋ ਉਪਜੈ ਸੋ ਬਿਨਸਿ ਹੈ ਦੁਖੁ ਕਰਿ ਰੋਵੈ ਬਲਾਇ ॥੨॥
जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
जो-जो इन्सान जन्म लेता है, उसकी मृत्यु हो जाती है, फिर तो इस दुःख कारण मेरे भूत-प्रेत ही रोएँ॥ २ ॥
ਜਹ ਕੀ ਉਪਜੀ ਤਹ ਰਚੀ ਪੀਵਤ ਮਰਦਨ ਲਾਗ ॥
जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥
जब इन्सान महापुरुषों की संगति में लगता है और नाम-अमृत पान करता है तो उसकी आत्मा उसमें लीन हो जाती है, जिससे वह उत्पन्न हुई थी।
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਚਿਤਿ ਚੇਤਿਆ ਰਾਮ ਸਿਮਰਿ ਬੈਰਾਗ ॥੩॥੨॥੧੩॥੬੪॥
कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥
कबीर जी कहते हैं-मैंने अपने हृदय में राम को स्मरण किया है और उसे ही प्रेमपूर्वक याद करता हूँ॥ ३॥ २॥ १३॥ ६४॥
ਰਾਗੁ ਗਉੜੀ ॥
रागु गउड़ी ॥
रागु गउड़ी ॥
ਪੰਥੁ ਨਿਹਾਰੈ ਕਾਮਨੀ ਲੋਚਨ ਭਰੀ ਲੇ ਉਸਾਸਾ ॥
पंथु निहारै कामनी लोचन भरी ले उसासा ॥
आहें भरती और अश्रुओं से भरी ऑखों से जीव-स्त्री पति-प्रभु का मार्ग देखती है।