Hindi Page 344

ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਜੀਵਹੁ ਅਮਰ ਫਲ ਖਾਹੁ ॥੧੦॥
जुगु जुगु जीवहु अमर फल खाहु ॥१०॥
इस परिश्रम का ऐसा फल मिलेगा जो कभी खत्म नहीं होगा, ऐसा सुन्दर जीवन जियोगे जो सदा स्थिर रहेगा ॥ १०॥

ਦਸਮੀ ਦਹ ਦਿਸ ਹੋਇ ਅਨੰਦ ॥
दसमी दह दिस होइ अनंद ॥
दसमी-दसों दिशाओं में आनन्द ही आनन्द विद्यमान है।

ਛੂਟੈ ਭਰਮੁ ਮਿਲੈ ਗੋਬਿੰਦ ॥
छूटै भरमु मिलै गोबिंद ॥
दुविधा दूर हो जाती है और गोबिन्द मिल जाता है।

ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੀ ਤਤ ਅਨੂਪ ॥
जोति सरूपी तत अनूप ॥
ज्योति-स्वरूप का तत्व अनूप है।

ਅਮਲ ਨ ਮਲ ਨ ਛਾਹ ਨਹੀ ਧੂਪ ॥੧੧॥
अमल न मल न छाह नही धूप ॥११॥
वह पवित्र एवं मलिनता रहित है जहाँ यह बसता है, वहाँ कोई छाया अथवा धूप नहीं ॥ ११॥

ਏਕਾਦਸੀ ਏਕ ਦਿਸ ਧਾਵੈ ॥
एकादसी एक दिस धावै ॥
एकादशी-यदि इन्सान एक परमात्मा की स्मृति में लीन रहे तो

ਤਉ ਜੋਨੀ ਸੰਕਟ ਬਹੁਰਿ ਨ ਆਵੈ ॥
तउ जोनी संकट बहुरि न आवै ॥
वह दोबारा योनियों के संकट में नहीं आता,

ਸੀਤਲ ਨਿਰਮਲ ਭਇਆ ਸਰੀਰਾ ॥
सीतल निरमल भइआ सरीरा ॥
उसका शरीर शीतल एवं निर्मल हो जाता है।

ਦੂਰਿ ਬਤਾਵਤ ਪਾਇਆ ਨੀਰਾ ॥੧੨॥
दूरि बतावत पाइआ नीरा ॥१२॥
प्रभु जो दूर कहा जाता है, उसे वह निकट ही पा लेता है॥१२॥

ਬਾਰਸਿ ਬਾਰਹ ਉਗਵੈ ਸੂਰ ॥
बारसि बारह उगवै सूर ॥
द्वादशी – आकाश में बारह सूर्य चढ़ जाते है

ਅਹਿਨਿਸਿ ਬਾਜੇ ਅਨਹਦ ਤੂਰ ॥
अहिनिसि बाजे अनहद तूर ॥
और दिन रात अनहद वाजे बजते है

ਦੇਖਿਆ ਤਿਹੂੰ ਲੋਕ ਕਾ ਪੀਉ ॥
देखिआ तिहूं लोक का पीउ ॥
तीनो लोकों के पिता-प्रभु को देख लेता है।

ਅਚਰਜੁ ਭਇਆ ਜੀਵ ਤੇ ਸੀਉ ॥੧੩॥
अचरजु भइआ जीव ते सीउ ॥१३॥
एक आश्चर्यजनक खेल बन जाता है कि वह मनुष्य साधारण पुरुष से प्रभु-रूप हो जाता है॥ १३॥

ਤੇਰਸਿ ਤੇਰਹ ਅਗਮ ਬਖਾਣਿ ॥
तेरसि तेरह अगम बखाणि ॥
त्रयोदशी-धार्मिक ग्रंथ कहते हैं कि

ਅਰਧ ਉਰਧ ਬਿਚਿ ਸਮ ਪਹਿਚਾਣਿ ॥
अरध उरध बिचि सम पहिचाणि ॥
आकाश-पाताल दोनों में प्रभु की पहचान करो।

ਨੀਚ ਊਚ ਨਹੀ ਮਾਨ ਅਮਾਨ ॥
नीच ऊच नही मान अमान ॥
उसके लिए कोई ऊँचा अथवा निम्न और न ही आदर वाला अथवा निरादर वाला है।

ਬਿਆਪਿਕ ਰਾਮ ਸਗਲ ਸਾਮਾਨ ॥੧੪॥
बिआपिक राम सगल सामान ॥१४॥
सर्वव्यापक राम सबके भीतर एक समान समाया हुआ है॥ १४॥

ਚਉਦਸਿ ਚਉਦਹ ਲੋਕ ਮਝਾਰਿ ॥ ਰੋਮ ਰੋਮ ਮਹਿ ਬਸਹਿ ਮੁਰਾਰਿ ॥
चउदसि चउदह लोक मझारि ॥ रोम रोम महि बसहि मुरारि ॥
चतुदर्शी-चौदह लोकों एवंरोम-रोम में मुरारी प्रभु बसता है।

ਸਤ ਸੰਤੋਖ ਕਾ ਧਰਹੁ ਧਿਆਨ ॥
सत संतोख का धरहु धिआन ॥
हे भाई ! अपना ध्यान सत्य एवं संतोष में लगाओो।

ਕਥਨੀ ਕਥੀਐ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨ ॥੧੫॥
कथनी कथीऐ ब्रहम गिआन ॥१५॥
ब्रह्म-ज्ञान की कथा कथन करो ॥ १५॥

ਪੂਨਿਉ ਪੂਰਾ ਚੰਦ ਅਕਾਸ ॥
पूनिउ पूरा चंद अकास ॥
पूर्णिमा के दिन आकाश में पूर्ण चाँद होता है।

ਪਸਰਹਿ ਕਲਾ ਸਹਜ ਪਰਗਾਸ ॥
पसरहि कला सहज परगास ॥
इसकी किरणों की कला से सहज ही प्रकाश फैल जाता है।

ਆਦਿ ਅੰਤਿ ਮਧਿ ਹੋਇ ਰਹਿਆ ਥੀਰ ॥
आदि अंति मधि होइ रहिआ थीर ॥
आदि, अंत एवं मध्य में प्रभु पूर्णतया स्थिर हो रहा है।

ਸੁਖ ਸਾਗਰ ਮਹਿ ਰਮਹਿ ਕਬੀਰ ॥੧੬॥
सुख सागर महि रमहि कबीर ॥१६॥
कबीर सुखों के सागर में लीन हुआ है॥ १६ ॥

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।

ਰਾਗੁ ਗਉੜੀ ਵਾਰ ਕਬੀਰ ਜੀਉ ਕੇ ੭ ॥
रागु गउड़ी वार कबीर जीउ के ७ ॥
राग गउड़ी सप्ताह के दिन कबीर जी के वार

ਬਾਰ ਬਾਰ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਵਉ ॥
बार बार हरि के गुन गावउ ॥
सप्ताह के सभी दिन हरि का गुणगान करो।

ਗੁਰ ਗਮਿ ਭੇਦੁ ਸੁ ਹਰਿ ਕਾ ਪਾਵਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुर गमि भेदु सु हरि का पावउ ॥१॥ रहाउ ॥
हे भाई ! गुरु के चरणों में पहुँचकर ईश्वर का रहस्य प्राप्त करो ॥ १॥ रहाउ ॥

ਆਦਿਤ ਕਰੈ ਭਗਤਿ ਆਰੰਭ ॥
आदित करै भगति आरंभ ॥
रविवार-प्रभु की भक्ति प्रारम्म करो और

ਕਾਇਆ ਮੰਦਰ ਮਨਸਾ ਥੰਭ ॥
काइआ मंदर मनसा थ्मभ ॥
शरीर रूपी मन्दिर में ही तृष्णाओं को वश में करो।

ਅਹਿਨਿਸਿ ਅਖੰਡ ਸੁਰਹੀ ਜਾਇ ॥
अहिनिसि अखंड सुरही जाइ ॥
जब दिन-रात मनुष्य की वृति अखंड स्थान पर लगी रहती है तो

ਤਉ ਅਨਹਦ ਬੇਣੁ ਸਹਜ ਮਹਿ ਬਾਇ ॥੧॥
तउ अनहद बेणु सहज महि बाइ ॥१॥
बांसुरी सहज ही अनहद बजाती है॥ १॥

ਸੋਮਵਾਰਿ ਸਸਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਝਰੈ ॥
सोमवारि ससि अम्रितु झरै ॥
सोमवार-चन्द्रमा से अमृत टपकता है।

ਚਾਖਤ ਬੇਗਿ ਸਗਲ ਬਿਖ ਹਰੈ ॥
चाखत बेगि सगल बिख हरै ॥
जब (यह अमृत) चखा जाता है तो यह तुरन्त ही सारे विष (विकारों) को दूर कर देता है।

ਬਾਣੀ ਰੋਕਿਆ ਰਹੈ ਦੁਆਰ ॥
बाणी रोकिआ रहै दुआर ॥
गुरु की वाणी के प्रभाव से संयमित मन प्रभु के द्वार पर टिका रहता है और

ਤਉ ਮਨੁ ਮਤਵਾਰੋ ਪੀਵਨਹਾਰ ॥੨॥
तउ मनु मतवारो पीवनहार ॥२॥
मतवाला मन उस अमृत का पान करता रहता है ॥ २ ॥

ਮੰਗਲਵਾਰੇ ਲੇ ਮਾਹੀਤਿ ॥
मंगलवारे ले माहीति ॥
मंगलवार-यथार्थ को देख और

ਪੰਚ ਚੋਰ ਕੀ ਜਾਣੈ ਰੀਤਿ ॥
पंच चोर की जाणै रीति ॥
कामादिक पाँच चोरों के आक्रमण करने के ढंग को समझ।

ਘਰ ਛੋਡੇਂ ਬਾਹਰਿ ਜਿਨਿ ਜਾਇ ॥
घर छोडें बाहरि जिनि जाइ ॥
हे भाई ! अपने किले को छोड़कर बाहर कभी मत जाना (अर्थात् अपने मन को बाहर मत भटकने देना)

ਨਾਤਰੁ ਖਰਾ ਰਿਸੈ ਹੈ ਰਾਇ ॥੩॥
नातरु खरा रिसै है राइ ॥३॥
अन्यथा प्रभु बहुत ही कुद्ध होगा ॥ ३॥

ਬੁਧਵਾਰਿ ਬੁਧਿ ਕਰੈ ਪ੍ਰਗਾਸ ॥
बुधवारि बुधि करै प्रगास ॥
बुधवार-मनुष्य अपनी बुद्धि से प्रभु-नाम का प्रकाश पैदा कर लेता है,”

ਹਿਰਦੈ ਕਮਲ ਮਹਿ ਹਰਿ ਕਾ ਬਾਸ ॥
हिरदै कमल महि हरि का बास ॥
हृदय कमल में प्रभु का निवास बना लेता है।

ਗੁਰ ਮਿਲਿ ਦੋਊ ਏਕ ਸਮ ਧਰੈ ॥ ਉਰਧ ਪੰਕ ਲੈ ਸੂਧਾ ਕਰੈ ॥੪॥
गुर मिलि दोऊ एक सम धरै ॥ उरध पंक लै सूधा करै ॥४॥
गुरु से मिलकर उसे सुख एवं दुःख दोनों को एक समान समझना चाहिए।अपने हृदय के उल्टे कमल को लेकर सीधा करना चाहिए॥ ४ ॥

ਬ੍ਰਿਹਸਪਤਿ ਬਿਖਿਆ ਦੇਇ ਬਹਾਇ ॥
ब्रिहसपति बिखिआ देइ बहाइ ॥
वृहस्पति-मनुष्य को अपने पाप धो देने चाहिए (अर्थात् विकार दूर कर देने चाहिए)

ਤੀਨਿ ਦੇਵ ਏਕ ਸੰਗਿ ਲਾਇ ॥
तीनि देव एक संगि लाइ ॥
तीन देवताओं को छोड़कर उसे एक ईश्वर से मन लगाना चाहिए।

ਤੀਨਿ ਨਦੀ ਤਹ ਤ੍ਰਿਕੁਟੀ ਮਾਹਿ ॥
तीनि नदी तह त्रिकुटी माहि ॥
वह माया की त्रिगुणात्मक नदियों में ही गोते खाते हैं,

ਅਹਿਨਿਸਿ ਕਸਮਲ ਧੋਵਹਿ ਨਾਹਿ ॥੫॥
अहिनिसि कसमल धोवहि नाहि ॥५॥
दिन-रात नीच कर्म करते हैं, गुणस्तुति से विहीन रहकर उन्हें धोते नहीं हैं॥ ५॥

ਸੁਕ੍ਰਿਤੁ ਸਹਾਰੈ ਸੁ ਇਹ ਬ੍ਰਤਿ ਚੜੈ ॥
सुक्रितु सहारै सु इह ब्रति चड़ै ॥
शुक्रवार—उसका यह व्रत सफलता प्राप्त कर जाता है जो सहनशीलता की कमाई करता है,

ਅਨਦਿਨ ਆਪਿ ਆਪ ਸਿਉ ਲੜੈ ॥
अनदिन आपि आप सिउ लड़ै ॥
और जो रात-दिन अपने आप से युद्ध करता है ।

ਸੁਰਖੀ ਪਾਂਚਉ ਰਾਖੈ ਸਬੈ ॥
सुरखी पांचउ राखै सबै ॥
यदि प्राणी अपनी पाँचों ही ज्ञानेन्द्रियों को वश में कर ले तो

ਤਉ ਦੂਜੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਨ ਪੈਸੈ ਕਬੈ ॥੬॥
तउ दूजी द्रिसटि न पैसै कबै ॥६॥
किसी पर भी कभी उसकी मेर-तेर की दृष्टि नहीं पड़ती ॥ ६ ॥

ਥਾਵਰ ਥਿਰੁ ਕਰਿ ਰਾਖੈ ਸੋਇ ॥
थावर थिरु करि राखै सोइ ॥
शनिवार-जो मनुष्य प्रभु-ज्योति की बत्ती को स्थिर रखता है,

ਜੋਤਿ ਦੀ ਵਟੀ ਘਟ ਮਹਿ ਜੋਇ ॥
जोति दी वटी घट महि जोइ ॥
जो उसकी अन्तरात्मा में हैं,

ਬਾਹਰਿ ਭੀਤਰਿ ਭਇਆ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ॥
बाहरि भीतरि भइआ प्रगासु ॥
वह भीतर से बाहर उज्ज्वल हो जाती है और

ਤਬ ਹੂਆ ਸਗਲ ਕਰਮ ਕਾ ਨਾਸੁ ॥੭॥
तब हूआ सगल करम का नासु ॥७॥
तब उसके तमाम दुष्कर्म मिट जाते हैं।॥ ७॥

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