Hindi Page 357

ਆਸ ਪਿਆਸੀ ਸੇਜੈ ਆਵਾ ॥
आस पिआसी सेजै आवा ॥
अपने पति से मिलन की इच्छा एवं प्यास लेकर यदि मैं सेज पर आती भी हूँ तो

ਆਗੈ ਸਹ ਭਾਵਾ ਕਿ ਨ ਭਾਵਾ ॥੨॥
आगै सह भावा कि न भावा ॥२॥
मुझे पता नहीं है कि मैं प्रियतम-प्रभु को अच्छी लगती हूँ कि नहीं ॥ २॥

ਕਿਆ ਜਾਨਾ ਕਿਆ ਹੋਇਗਾ ਰੀ ਮਾਈ ॥
किआ जाना किआ होइगा री माई ॥
हे मेरी माता! मैं नहीं जानती कि क्या होगा ?

ਹਰਿ ਦਰਸਨ ਬਿਨੁ ਰਹਨੁ ਨ ਜਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि दरसन बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
परन्तु हरि के दर्शन बिना मैं रह नहीं सकती॥ १॥ रहाउ॥

ਪ੍ਰੇਮੁ ਨ ਚਾਖਿਆ ਮੇਰੀ ਤਿਸ ਨ ਬੁਝਾਨੀ ॥
प्रेमु न चाखिआ मेरी तिस न बुझानी ॥
मैंने प्रभुपति के प्रेम को नहीं चखा इसलिए मेरी प्यास नहीं बुझी और

ਗਇਆ ਸੁ ਜੋਬਨੁ ਧਨ ਪਛੁਤਾਨੀ ॥੩॥
गइआ सु जोबनु धन पछुतानी ॥३॥
मेरी सुन्दर जवानी चली गई है और मैं पत्नी पश्चाताप करती हूँ॥ ३॥

ਅਜੈ ਸੁ ਜਾਗਉ ਆਸ ਪਿਆਸੀ ॥
अजै सु जागउ आस पिआसी ॥
अब भी मैं उससे मिलन की आशा में जागती रहती हूँ।

ਭਈਲੇ ਉਦਾਸੀ ਰਹਉ ਨਿਰਾਸੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
भईले उदासी रहउ निरासी ॥१॥ रहाउ ॥
मैं उदास हो गई हूँ और निराश रहती हूँ॥ १॥ रहाउ॥

ਹਉਮੈ ਖੋਇ ਕਰੇ ਸੀਗਾਰੁ ॥
हउमै खोइ करे सीगारु ॥
यदि जीव-स्त्री अपना अहंकार त्याग दे और गुणों का हार-श्रृंगार करे तो ही

ਤਉ ਕਾਮਣਿ ਸੇਜੈ ਰਵੈ ਭਤਾਰੁ ॥੪॥
तउ कामणि सेजै रवै भतारु ॥४॥
पति-प्रभु जीव-स्त्री की सेज पर रमण करता है॥ ४॥

ਤਉ ਨਾਨਕ ਕੰਤੈ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥
तउ नानक कंतै मनि भावै ॥
हे नानक ! जीव स्त्री पति-प्रभु के मन को तभी भली लगती है,”

ਛੋਡਿ ਵਡਾਈ ਅਪਣੇ ਖਸਮ ਸਮਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥੨੬॥
छोडि वडाई अपणे खसम समावै ॥१॥ रहाउ ॥२६॥
जब अहंत्व त्याग कर अपने पति की इच्छा में लीन हो जाती है॥ १ ॥ रहाउ ॥ २६ ॥

ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
आसा महला १ ॥
आसा महला १ ॥

ਪੇਵਕੜੈ ਧਨ ਖਰੀ ਇਆਣੀ ॥
पेवकड़ै धन खरी इआणी ॥
दुनिया के मोह में फँसकर जीव-स्त्री मूर्ख बनी रहती है और

ਤਿਸੁ ਸਹ ਕੀ ਮੈ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣੀ ॥੧॥
तिसु सह की मै सार न जाणी ॥१॥
उस पति-प्रभु की महत्ता नहीं समझ सकी।॥ १॥

ਸਹੁ ਮੇਰਾ ਏਕੁ ਦੂਜਾ ਨਹੀ ਕੋਈ ॥
सहु मेरा एकु दूजा नही कोई ॥
मेरा पति-परमेश्वर केवल एक है। वह अद्वितीय है, उस जैसा कोई नहीं।

ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਮੇਲਾਵਾ ਹੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
नदरि करे मेलावा होई ॥१॥ रहाउ ॥
यदि वह करुणादृष्टि धारण करे तो मेरा उससे मिलन हो सकता है॥ १॥ रहाउ॥

ਸਾਹੁਰੜੈ ਧਨ ਸਾਚੁ ਪਛਾਣਿਆ ॥
साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ ॥
जो जीव-स्त्री संसार के मोह से निकल कर प्रभु-चरणों में लीन रहती है, वह उस सत्यस्वरूप ईश्वर (की महत्ता) पहचान लेती है और

ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ਅਪਣਾ ਪਿਰੁ ਜਾਣਿਆ ॥੨॥
सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ ॥२॥
सहज ही प्रेम में जुड़कर अपने प्रियतम-प्रभु से गहरे संबंध बना लेती है॥ २॥

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਐਸੀ ਮਤਿ ਆਵੈ ॥
गुर परसादी ऐसी मति आवै ॥
जब गुरु की कृपा से (जीव स्त्री में) ऐसी बुद्धि आ जाती है तो

ਤਾਂ ਕਾਮਣਿ ਕੰਤੈ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥੩॥
तां कामणि कंतै मनि भावै ॥३॥
वह अपने पति-परमेश्वर के मन को प्रिय लगने लगती है॥ ३॥

ਕਹਤੁ ਨਾਨਕੁ ਭੈ ਭਾਵ ਕਾ ਕਰੇ ਸੀਗਾਰੁ ॥
कहतु नानकु भै भाव का करे सीगारु ॥
नानक का कथन है कि जो जीव-स्त्री प्रभु के भय एवं प्रेम का श्रृंगार करती है,”

ਸਦ ਹੀ ਸੇਜੈ ਰਵੈ ਭਤਾਰੁ ॥੪॥੨੭॥
सद ही सेजै रवै भतारु ॥४॥२७॥
वह अपने पति-परमेश्वर के साथ हमेशा सेज पर रमण करती है॥ ४ ॥ २७ ॥

ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
आसा महला १ ॥
आसा महला १ ॥

ਨ ਕਿਸ ਕਾ ਪੂਤੁ ਨ ਕਿਸ ਕੀ ਮਾਈ ॥
न किस का पूतु न किस की माई ॥
इस दुनिया में न कोई किसी का पुत्र है, न ही कोई किसी की माता है।

ਝੂਠੈ ਮੋਹਿ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਈ ॥੧॥
झूठै मोहि भरमि भुलाई ॥१॥
झूठे मोह के कारण दुनिया भ्रम में भटकती रहती है।॥ १॥

ਮੇਰੇ ਸਾਹਿਬ ਹਉ ਕੀਤਾ ਤੇਰਾ ॥
मेरे साहिब हउ कीता तेरा ॥
हे मेरे मालिक ! मैं तेरी रचना हूँ।

ਜਾਂ ਤੂੰ ਦੇਹਿ ਜਪੀ ਨਾਉ ਤੇਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जां तूं देहि जपी नाउ तेरा ॥१॥ रहाउ ॥
जब तुम मुझे अपना नाम देते हो तो मैं नाम का जाप करता हूँ॥ १॥ रहाउ॥

ਬਹੁਤੇ ਅਉਗਣ ਕੂਕੈ ਕੋਈ ॥
बहुते अउगण कूकै कोई ॥
यदि मनुष्य ने कितने ही पाप किए हुए हों फिर भी यदि कोई मनुष्य प्रार्थना करे

ਜਾ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਬਖਸੇ ਸੋਈ ॥੨॥
जा तिसु भावै बखसे सोई ॥२॥
परन्तु केवल तभी वह उसे क्षमा करेगा जब उसे अच्छा लगेगा।॥ २॥

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਦੁਰਮਤਿ ਖੋਈ ॥
गुर परसादी दुरमति खोई ॥
गुरु की कृपा से दुर्मति जड़ से उखड़ गई है।

ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਏਕੋ ਸੋਈ ॥੩॥
जह देखा तह एको सोई ॥३॥
जहाँ कहीं भी मैं देखता हूँ वहाँ मैं प्रभु को पाता हूँ॥ ३॥

ਕਹਤ ਨਾਨਕ ਐਸੀ ਮਤਿ ਆਵੈ ॥
कहत नानक ऐसी मति आवै ॥
नानक कहते हैं कि जब जीव को ऐसी बुद्धि मिल जाती है,”

ਤਾਂ ਕੋ ਸਚੇ ਸਚਿ ਸਮਾਵੈ ॥੪॥੨੮॥
तां को सचे सचि समावै ॥४॥२८॥
तो वह परम सत्य में ही समा जाता है।॥ ४ ॥ २८ ॥

ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ਦੁਪਦੇ ॥
आसा महला १ दुपदे ॥
आसा महला १ दुपदे ॥

ਤਿਤੁ ਸਰਵਰੜੈ ਭਈਲੇ ਨਿਵਾਸਾ ਪਾਣੀ ਪਾਵਕੁ ਤਿਨਹਿ ਕੀਆ ॥
तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥
जीव का ऐसे भयंकर सरोवर में निवास है, जिसमें ईश्वर ने स्वयं ही जल के स्थान अग्नि उत्पन्न कर रखी है।

ਪੰਕਜੁ ਮੋਹ ਪਗੁ ਨਹੀ ਚਾਲੈ ਹਮ ਦੇਖਾ ਤਹ ਡੂਬੀਅਲੇ ॥੧॥
पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥
उस सरोवर में मोह रूपी कीचड़ विद्यमान है, जिससे पांव आगे की ओर नहीं चलते और देखते ही देखते अनेकों पुरुष उस सरोवर में डूबते चले जा रहे हैं।॥ १॥

ਮਨ ਏਕੁ ਨ ਚੇਤਸਿ ਮੂੜ ਮਨਾ ॥
मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥
हे मूर्ख मन ! तू परमात्मा को स्मरण नहीं करता।

ਹਰਿ ਬਿਸਰਤ ਤੇਰੇ ਗੁਣ ਗਲਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ ॥
तुम जैसे-जैसे परमात्मा को विस्मृत करते हो, तेरे गुण कम होते जा रहे हैं।॥ १॥ रहाउ॥

ਨਾ ਹਉ ਜਤੀ ਸਤੀ ਨਹੀ ਪੜਿਆ ਮੂਰਖ ਮੁਗਧਾ ਜਨਮੁ ਭਇਆ ॥
ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥
हे प्रभु! न मैं यति हूँ, न ही सती हूँ, न पढ़ा-लिखा हूँ, मेरा जीवन तो मूर्ख एवं अज्ञानियों जैसा बना हुआ है।

ਪ੍ਰਣਵਤਿ ਨਾਨਕ ਤਿਨੑ ਕੀ ਸਰਣਾ ਜਿਨੑ ਤੂੰ ਨਾਹੀ ਵੀਸਰਿਆ ॥੨॥੨੯॥
प्रणवति नानक तिन्ह की सरणा जिन्ह तूं नाही वीसरिआ ॥२॥२९॥
नानक वन्दना करता है – (हे प्रभु!) मुझे उन महापुरुषों की शरण में रख, जिन्होंने तुझे कभी नहीं भुलाया है ॥२॥२९॥

ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੧ ॥
आसा महला १ ॥
आसा महला १ ॥

ਛਿਅ ਘਰ ਛਿਅ ਗੁਰ ਛਿਅ ਉਪਦੇਸ ॥
छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥
सृष्टि की रचना में छः शास्त्र हुए, इनके छ: ही रचयिता तथा उपदेश भी अपने-अपने तौर पर छः ही हैं।

ਗੁਰ ਗੁਰੁ ਏਕੋ ਵੇਸ ਅਨੇਕ ॥੧॥
गुर गुरु एको वेस अनेक ॥१॥
किंतु इनका मूल तत्व एक ही केवल परमात्मा है, जिसके भेष अनन्त हैं।॥ १॥

ਜੈ ਘਰਿ ਕਰਤੇ ਕੀਰਤਿ ਹੋਇ ॥
जै घरि करते कीरति होइ ॥
हे मनुष्य ! जिस शास्त्र रूपी घर में निरंकार की प्रशंसा हो,”

ਸੋ ਘਰੁ ਰਾਖੁ ਵਡਾਈ ਤੋਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सो घरु राखु वडाई तोहि ॥१॥ रहाउ ॥
उसका गुणगान हो, उस शास्त्र को धारण कर, इससे तेरी इहलोक व परलोक दोनों में शोभा होगी ॥ १॥ रहाउ ॥

ਵਿਸੁਏ ਚਸਿਆ ਘੜੀਆ ਪਹਰਾ ਥਿਤੀ ਵਾਰੀ ਮਾਹੁ ਭਇਆ ॥
विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु भइआ ॥
काष्ठा, चरा, घड़ी, पहर, तिथि व वार मिलकर जैसे एक माह बनता है।

ਸੂਰਜੁ ਏਕੋ ਰੁਤਿ ਅਨੇਕ ॥
सूरजु एको रुति अनेक ॥
इसी तरह ऋतुओं के अनेक होने पर भी सूर्य एक ही है। (यह तो इस सूर्य के अलग-अलग अंश हैं।)

ਨਾਨਕ ਕਰਤੇ ਕੇ ਕੇਤੇ ਵੇਸ ॥੨॥੩੦॥
नानक करते के केते वेस ॥२॥३०॥
वैसे ही हे नानक ! कर्ता-पुरुष के उपरोक्त सब स्वरूप ही दिखाई पड़ते हैं॥ २॥ ३० ॥

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