ਨਿੰਦਕ ਕੀ ਗਤਿ ਕਤਹੂੰ ਨਾਹੀ ਖਸਮੈ ਏਵੈ ਭਾਣਾ ॥
निंदक की गति कतहूं नाही खसमै एवै भाणा ॥
निन्दक की कहीं भी गति नहीं होती, प्रभु की यही इच्छा है।
ਜੋ ਜੋ ਨਿੰਦ ਕਰੇ ਸੰਤਨ ਕੀ ਤਿਉ ਸੰਤਨ ਸੁਖੁ ਮਾਨਾ ॥੩॥
जो जो निंद करे संतन की तिउ संतन सुखु माना ॥३॥
ज्यों ज्यों संतों की निन्दा होती है, त्यों त्यों संत मन में सुख अनुभव करते हैं।॥ ३॥
ਸੰਤਾ ਟੇਕ ਤੁਮਾਰੀ ਸੁਆਮੀ ਤੂੰ ਸੰਤਨ ਕਾ ਸਹਾਈ ॥
संता टेक तुमारी सुआमी तूं संतन का सहाई ॥
हे स्वामी ! संतों को तेरा ही सहारा है और तू ही संतों का सहायक है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਹਰਿ ਰਾਖੇ ਨਿੰਦਕ ਦੀਏ ਰੁੜਾਈ ॥੪॥੨॥੪੧॥
कहु नानक संत हरि राखे निंदक दीए रुड़ाई ॥४॥२॥४१॥
हे नानक ! संतों की प्रभु (स्वयं ) रक्षा करता है और निन्दकों को निन्दा-की बाढ़ में बहा देता है॥ ४ ॥ २॥ ४१ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਬਾਹਰੁ ਧੋਇ ਅੰਤਰੁ ਮਨੁ ਮੈਲਾ ਦੁਇ ਠਉਰ ਅਪੁਨੇ ਖੋਏ ॥
बाहरु धोइ अंतरु मनु मैला दुइ ठउर अपुने खोए ॥
जो व्यक्ति बाहर से शरीर धो लेता है किन्तु भीतर से उसका मन मैला रहता है, वह लोक-परलोक दोनों गंवा लेता है।
ਈਹਾ ਕਾਮਿ ਕ੍ਰੋਧਿ ਮੋਹਿ ਵਿਆਪਿਆ ਆਗੈ ਮੁਸਿ ਮੁਸਿ ਰੋਏ ॥੧॥
ईहा कामि क्रोधि मोहि विआपिआ आगै मुसि मुसि रोए ॥१॥
मृत्युलोक में वह काम, क्रोध एवं मोह में लीन रहता है और आगे परलोक में फूट-फूट कर अश्रु बहाता है॥ १॥
ਗੋਵਿੰਦ ਭਜਨ ਕੀ ਮਤਿ ਹੈ ਹੋਰਾ ॥
गोविंद भजन की मति है होरा ॥
गोविन्द के भजन की मति अन्य प्रकार की होती है।
ਵਰਮੀ ਮਾਰੀ ਸਾਪੁ ਨ ਮਰਈ ਨਾਮੁ ਨ ਸੁਨਈ ਡੋਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
वरमी मारी सापु न मरई नामु न सुनई डोरा ॥१॥ रहाउ ॥
साँप का विष नष्ट करने से साँप नहीं मरता, बहरा मनुष्य प्रभु का नाम नहीं सुनता, चाहे कोई जोर-जोर से जपता रहे ॥ १॥ रहाउ॥
ਮਾਇਆ ਕੀ ਕਿਰਤਿ ਛੋਡਿ ਗਵਾਈ ਭਗਤੀ ਸਾਰ ਨ ਜਾਨੈ ॥
माइआ की किरति छोडि गवाई भगती सार न जानै ॥
वह जीवनयापन हेतु धन कमाने का उद्यम त्याग देता है और वह प्रभु भक्ति का महत्व भी नहीं जानता।
ਬੇਦ ਸਾਸਤ੍ਰ ਕਉ ਤਰਕਨਿ ਲਾਗਾ ਤਤੁ ਜੋਗੁ ਨ ਪਛਾਨੈ ॥੨॥
बेद सासत्र कउ तरकनि लागा ततु जोगु न पछानै ॥२॥
वह वेदों एवं शास्त्रों के उपदेश को छोड़ने लग गया है और परम तत्व प्रभु-मिलाप की विधि को नहीं पहचानता॥ २॥
ਉਘਰਿ ਗਇਆ ਜੈਸਾ ਖੋਟਾ ਢਬੂਆ ਨਦਰਿ ਸਰਾਫਾ ਆਇਆ ॥
उघरि गइआ जैसा खोटा ढबूआ नदरि सराफा आइआ ॥
जब कोई खोटा सिक्का सर्राफों की दृष्टि में आता है तो उसका खोट स्पष्ट दिखाई देता है,”
ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਜਾਨੈ ਉਸ ਤੇ ਕਹਾ ਛਪਾਇਆ ॥੩॥
अंतरजामी सभु किछु जानै उस ते कहा छपाइआ ॥३॥
वैसे ही कोई प्राणी अपने भीतरी अवगुण छिपा नहीं सकता, अन्तर्यामी प्रभु सबकुछ जानता है॥ ३॥
ਕੂੜਿ ਕਪਟਿ ਬੰਚਿ ਨਿੰਮੁਨੀਆਦਾ ਬਿਨਸਿ ਗਇਆ ਤਤਕਾਲੇ ॥
कूड़ि कपटि बंचि निमुनीआदा बिनसि गइआ ततकाले ॥
झूठ, कपट एवं छल में लीन बिना बुनियाद का मनुष्य तत्काल ही नष्ट हो जाता है।
ਸਤਿ ਸਤਿ ਸਤਿ ਨਾਨਕਿ ਕਹਿਆ ਅਪਨੈ ਹਿਰਦੈ ਦੇਖੁ ਸਮਾਲੇ ॥੪॥੩॥੪੨॥
सति सति सति नानकि कहिआ अपनै हिरदै देखु समाले ॥४॥३॥४२॥
(हे भाई) नानक ने यह सब सत्य ही कहा है। अपने ह्रदय में इस तथ्य को देख एवं स्मरण कर ॥ ४॥ ३॥ ४२ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਉਦਮੁ ਕਰਤ ਹੋਵੈ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਚੈ ਆਪੁ ਨਿਵਾਰੇ ॥
उदमु करत होवै मनु निरमलु नाचै आपु निवारे ॥
नाम-सिमरन का उद्यम करने से मन निर्मल हो जाता है और फिर मनुष्य अपना अहंकार छोड़कर प्रभु की रज़ा में चलने का नाच करता रहता है।
ਪੰਚ ਜਨਾ ਲੇ ਵਸਗਤਿ ਰਾਖੈ ਮਨ ਮਹਿ ਏਕੰਕਾਰੇ ॥੧॥
पंच जना ले वसगति राखै मन महि एकंकारे ॥१॥
ऐसा मनुष्य पाँच विकारों-काम, क्रोध,मोह, लोभ एवं अभिमान को वश में रखता है और अपने मन में एक ईश्वर को याद करता रहता है॥ १॥
ਤੇਰਾ ਜਨੁ ਨਿਰਤਿ ਕਰੇ ਗੁਨ ਗਾਵੈ ॥
तेरा जनु निरति करे गुन गावै ॥
हे प्रभु ! तेरा भक्त तेरी खुशी में नाचता एवं तेरा गुणगान करता है।
ਰਬਾਬੁ ਪਖਾਵਜ ਤਾਲ ਘੁੰਘਰੂ ਅਨਹਦ ਸਬਦੁ ਵਜਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
रबाबु पखावज ताल घुंघरू अनहद सबदु वजावै ॥१॥ रहाउ ॥
वह प्रभु नाम के रबाब, पखावज, तबला, घुंघरू (इत्यादि वाद्ययंत्र) के माध्यम से अनहद शब्द (सुनता एवं) बजाता है॥ १॥ रहाउ॥
ਪ੍ਰਥਮੇ ਮਨੁ ਪਰਬੋਧੈ ਅਪਨਾ ਪਾਛੈ ਅਵਰ ਰੀਝਾਵੈ ॥
प्रथमे मनु परबोधै अपना पाछै अवर रीझावै ॥
सर्वप्रथम, प्रभु-भक्त अपने मन को उपदेश देता है फिर दूसरों को समझा कर रिझाता है।
ਰਾਮ ਨਾਮ ਜਪੁ ਹਿਰਦੈ ਜਾਪੈ ਮੁਖ ਤੇ ਸਗਲ ਸੁਨਾਵੈ ॥੨॥
राम नाम जपु हिरदै जापै मुख ते सगल सुनावै ॥२॥
वह अपने हृदय में राम नाम का जाप करता है और फिर मुख से दूसरों को वह जाप सुनाता है॥ २॥
ਕਰ ਸੰਗਿ ਸਾਧੂ ਚਰਨ ਪਖਾਰੈ ਸੰਤ ਧੂਰਿ ਤਨਿ ਲਾਵੈ ॥
कर संगि साधू चरन पखारै संत धूरि तनि लावै ॥
वह संतों को मिलकर उनके चरण धोता है। संतों की चरण-धूलि वह अपने शरीर पर लगाता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਅਰਪਿ ਧਰੇ ਗੁਰ ਆਗੈ ਸਤਿ ਪਦਾਰਥੁ ਪਾਵੈ ॥੩॥
मनु तनु अरपि धरे गुर आगै सति पदारथु पावै ॥३॥
वह अपना मन-तन गुरु के समक्ष समर्पित कर देता है और सत्य (नाम) पदार्थ (धन) को प्राप्त कर लेता है॥ ३॥
ਜੋ ਜੋ ਸੁਨੈ ਪੇਖੈ ਲਾਇ ਸਰਧਾ ਤਾ ਕਾ ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੁਖੁ ਭਾਗੈ ॥
जो जो सुनै पेखै लाइ सरधा ता का जनम मरन दुखु भागै ॥
जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक गुरु के दर्शन करता है और उससे हरिनाम सुनता है, उसका जन्म-मरण का दुःख भाग जाता है।
ਐਸੀ ਨਿਰਤਿ ਨਰਕ ਨਿਵਾਰੈ ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਗੈ ॥੪॥੪॥੪੩॥
ऐसी निरति नरक निवारै नानक गुरमुखि जागै ॥४॥४॥४३॥
हे नानक ! ऐसा नृत्य नरक मिटा देता है और गुरुमुख हमेशा जागता रहता है॥ ४॥ ४॥ ४३ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਅਧਮ ਚੰਡਾਲੀ ਭਈ ਬ੍ਰਹਮਣੀ ਸੂਦੀ ਤੇ ਸ੍ਰੇਸਟਾਈ ਰੇ ॥
अधम चंडाली भई ब्रहमणी सूदी ते स्रेसटाई रे ॥
हे भाई ! नामामृत की अनुकंपा से अधम चाण्डाल वृति ब्राह्मणी बन गई है और एक शूद्र जाति से कुलीना बन गई है।
ਪਾਤਾਲੀ ਆਕਾਸੀ ਸਖਨੀ ਲਹਬਰ ਬੂਝੀ ਖਾਈ ਰੇ ॥੧॥
पाताली आकासी सखनी लहबर बूझी खाई रे ॥१॥
मेरी लोभ वृति पहले जो पाताल से लेकर आकाश तक सारे जगत के पदार्थ लेकर भी भूखी रहती थी अब उसकी तृष्णाग्नि बुझ गई है॥ १॥
ਘਰ ਕੀ ਬਿਲਾਈ ਅਵਰ ਸਿਖਾਈ ਮੂਸਾ ਦੇਖਿ ਡਰਾਈ ਰੇ ॥
घर की बिलाई अवर सिखाई मूसा देखि डराई रे ॥
संतोषहीन वृति घर की बिल्ली को अब गुरु से अलग ही उपदेश मिला है और वह दुनिया के पदार्थों रूपी चूहे को देखकर भयभीत हो जाती है।
ਅਜ ਕੈ ਵਸਿ ਗੁਰਿ ਕੀਨੋ ਕੇਹਰਿ ਕੂਕਰ ਤਿਨਹਿ ਲਗਾਈ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अज कै वसि गुरि कीनो केहरि कूकर तिनहि लगाई रे ॥१॥ रहाउ ॥
गुरु ने उसके अहंकार रूपी शेर को विनम्रता रूपी बकरी के अधीन कर दिया है। उसकी तमोगुणी इन्द्रियों रूपी कुत्तों को सतोगुणी दिशा में लगा दिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਬਾਝੁ ਥੂਨੀਆ ਛਪਰਾ ਥਾਮ੍ਹ੍ਹਿਆ ਨੀਘਰਿਆ ਘਰੁ ਪਾਇਆ ਰੇ ॥
बाझु थूनीआ छपरा थाम्हिआ नीघरिआ घरु पाइआ रे ॥
हे भाई ! प्रभु-भक्त का चित्त रूपी छप्पर सांसारिक पदार्थों की तृष्णाओं की टेक के बिना थम गया है। उसके भटकते चित ने (ईश्वर चरणों में) निवास प्राप्त कर लिया है।
ਬਿਨੁ ਜੜੀਏ ਲੈ ਜੜਿਓ ਜੜਾਵਾ ਥੇਵਾ ਅਚਰਜੁ ਲਾਇਆ ਰੇ ॥੨॥
बिनु जड़ीए लै जड़िओ जड़ावा थेवा अचरजु लाइआ रे ॥२॥
स्वर्णकारों के बिना ही चित का रत्न-जड़ित आभूषण तैयार हो गया तथा उस चित-आभूषण में प्रभु-नाम का अदभुत नग जड़ दिया गया है॥ २॥
ਦਾਦੀ ਦਾਦਿ ਨ ਪਹੁਚਨਹਾਰਾ ਚੂਪੀ ਨਿਰਨਉ ਪਾਇਆ ਰੇ ॥
दादी दादि न पहुचनहारा चूपी निरनउ पाइआ रे ॥
हे भाई ! शिकायतकर्ता न्याय कदापि प्राप्त नहीं कर सकता किन्तु अब प्रभु में लीन होने से शांतचित्त को न्याय मिलने लगा।
ਮਾਲਿ ਦੁਲੀਚੈ ਬੈਠੀ ਲੇ ਮਿਰਤਕੁ ਨੈਨ ਦਿਖਾਲਨੁ ਧਾਇਆ ਰੇ ॥੩॥
मालि दुलीचै बैठी ले मिरतकु नैन दिखालनु धाइआ रे ॥३॥
ईश्वर नाम की अनुकंपा से मनुष्य को लौकिक पदार्थ अब ऐसे दिखने लगे हैं मानो वह मूल्यवान गलीचों पर बैठा हुआ मृतक है जो अब किसी को भी नेत्र नहीं दिखा सकता॥ ३॥