ਦਿਨੁ ਰੈਣਿ ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਵਖਾਨਾ ॥੧॥
दिनु रैणि तेरा नामु वखाना ॥१॥
मैं दिन-रात तेरा ही नाम जपता रहता हूँ॥ १॥
ਮੈ ਨਿਰਗੁਨ ਗੁਣੁ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
मै निरगुन गुणु नाही कोइ ॥
मैं निर्गुण हूँ, मुझमें कोई गुण नहीं।
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨਹਾਰ ਪ੍ਰਭ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
करन करावनहार प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ ॥
यह प्रभु ही करने एवं जीवों से करवाने वाला है। १॥ रहाउ॥
ਮੂਰਖ ਮੁਗਧ ਅਗਿਆਨ ਅਵੀਚਾਰੀ ॥
मूरख मुगध अगिआन अवीचारी ॥
हे ईश्वर ! मैं मूर्ख, मूढ, अज्ञानी एवं विचारहीन हूँ।
ਨਾਮ ਤੇਰੇ ਕੀ ਆਸ ਮਨਿ ਧਾਰੀ ॥੨॥
नाम तेरे की आस मनि धारी ॥२॥
मेरे मन में तेरे नाम की ही आशा है॥ २॥
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਕਰਮ ਨ ਸਾਧਾ ॥
जपु तपु संजमु करम न साधा ॥
मैंने कोई जप, तप, संयम एवं धर्म-कर्म नहीं किया
ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਭੂ ਕਾ ਮਨਹਿ ਅਰਾਧਾ ॥੩॥
नामु प्रभू का मनहि अराधा ॥३॥
परन्तु अपने मन में केवल प्रभु के नाम की आराधना की है॥ ३॥
ਕਿਛੂ ਨ ਜਾਨਾ ਮਤਿ ਮੇਰੀ ਥੋਰੀ ॥
किछू न जाना मति मेरी थोरी ॥
मैं कुछ नहीं जानता, क्योंकि मुझ में अल्पबुद्धि विद्यमान है।
ਬਿਨਵਤਿ ਨਾਨਕ ਓਟ ਪ੍ਰਭ ਤੋਰੀ ॥੪॥੧੮॥੬੯॥
बिनवति नानक ओट प्रभ तोरी ॥४॥१८॥६९॥
नानक वन्दना करता है कि हे प्रभु ! मैंने तेरी ही ओट ली है॥ ४॥ १८॥ ६६ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਅਖਰ ਦੁਇ ਇਹ ਮਾਲਾ ॥
हरि हरि अखर दुइ इह माला ॥
‘हरि-हरि’ यह दो अक्षरों की मेरी माला है।
ਜਪਤ ਜਪਤ ਭਏ ਦੀਨ ਦਇਆਲਾ ॥੧॥
जपत जपत भए दीन दइआला ॥१॥
‘हरि-हरि’ नाम की माला को जपने से भगवान् मुझ दीन पर दयालु हो गया है॥ १ ॥
ਕਰਉ ਬੇਨਤੀ ਸਤਿਗੁਰ ਅਪੁਨੀ ॥
करउ बेनती सतिगुर अपुनी ॥
मैं अपने सतेिगुरु के समक्ष यही विनती करता हूँ कि
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਰਾਖਹੁ ਸਰਣਾਈ ਮੋ ਕਉ ਦੇਹੁ ਹਰੇ ਹਰਿ ਜਪਨੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
करि किरपा राखहु सरणाई मो कउ देहु हरे हरि जपनी ॥१॥ रहाउ ॥
हे सतिगुरु ! कृपा करके मुझे अपनी शरण में रखो एवं मुझे हरि-नाम की माला प्रदान करो॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਮਾਲਾ ਉਰ ਅੰਤਰਿ ਧਾਰੈ ॥
हरि माला उर अंतरि धारै ॥
जो मनुष्य हरि-नाम की माला अपने हृदय में धारण करता है,”
ਜਨਮ ਮਰਣ ਕਾ ਦੂਖੁ ਨਿਵਾਰੈ ॥੨॥
जनम मरण का दूखु निवारै ॥२॥
वह जन्म-मरण के दु:ख से मुक्ति प्राप्त कर लेता है॥ २ ॥
ਹਿਰਦੈ ਸਮਾਲੈ ਮੁਖਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਬੋਲੈ ॥
हिरदै समालै मुखि हरि हरि बोलै ॥
जो मनुष्य अपने मुँह से हरि-हरि बोलता है और अपने हृदय में हरि-परमेश्वर को याद करता है,”
ਸੋ ਜਨੁ ਇਤ ਉਤ ਕਤਹਿ ਨ ਡੋਲੈ ॥੩॥
सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥३॥
वह इधर-उधर (लोक-परलोक) में डांवाडोल नहीं होता।॥ ३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜੋ ਰਾਚੈ ਨਾਇ ॥
कहु नानक जो राचै नाइ ॥
हे नानक ! जो मनुष्य हरि-नाम में लीन रहता है,”
ਹਰਿ ਮਾਲਾ ਤਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ਜਾਇ ॥੪॥੧੯॥੭੦॥
हरि माला ता कै संगि जाइ ॥४॥१९॥७०॥
हरि-नाम की माला उसके साथ परलोक में जाती है ॥ ४॥ १६॥ ७०॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਜਿਸ ਕਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਿਸ ਕਾ ਹੋਇ ॥
जिस का सभु किछु तिस का होइ ॥
जो भगवान् का उपासक बना रहता है, जिसका यह सब कुछ बनाया हुआ है,”
ਤਿਸੁ ਜਨ ਲੇਪੁ ਨ ਬਿਆਪੈ ਕੋਇ ॥੧॥
तिसु जन लेपु न बिआपै कोइ ॥१॥
उस मनुष्य पर मोह-माया का कोई असर नहीं होता।॥ १॥
ਹਰਿ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਸਦ ਹੀ ਮੁਕਤਾ ॥
हरि का सेवकु सद ही मुकता ॥
भगवान् का सेवक हमेशा ही मोह-माया से मुक्त है,”
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰੈ ਸੋਈ ਭਲ ਜਨ ਕੈ ਅਤਿ ਨਿਰਮਲ ਦਾਸ ਕੀ ਜੁਗਤਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जो किछु करै सोई भल जन कै अति निरमल दास की जुगता ॥१॥ रहाउ ॥
वह जो कुछ करता है, उसके सेवक को वह भला ही लगता है। भगवान् के सेवक का जीवन-आचरण बड़ा निर्मल होता है॥ १॥ रहाउ॥
ਸਗਲ ਤਿਆਗਿ ਹਰਿ ਸਰਣੀ ਆਇਆ ॥
सगल तिआगि हरि सरणी आइआ ॥
जो सबकुछ छोड़कर श्रीहरि की शरण में आ गया है,”
ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਹਾ ਬਿਆਪੈ ਮਾਇਆ ॥੨॥
तिसु जन कहा बिआपै माइआ ॥२॥
उस मनुष्य को मोहिनी कैसे प्रभावित कर सकती है॥ २॥
ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਜਾ ਕੇ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
नामु निधानु जा के मन माहि ॥
जिस के मन में नाम का भण्डार है,”
ਤਿਸ ਕਉ ਚਿੰਤਾ ਸੁਪਨੈ ਨਾਹਿ ॥੩॥
तिस कउ चिंता सुपनै नाहि ॥३॥
उसे स्वप्न में भी चिन्ता नहीं होती।॥ ३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਪਾਇਆ ॥
कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥
हे नानक ! मैंने पूर्ण गुरु को पा लिया है और
ਭਰਮੁ ਮੋਹੁ ਸਗਲ ਬਿਨਸਾਇਆ ॥੪॥੨੦॥੭੧॥
भरमु मोहु सगल बिनसाइआ ॥४॥२०॥७१॥
मेरा भ्रम एवं सांसारिक मोह सब नाश हो गए हैं।॥ ४॥ २० ॥ ७१ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਜਉ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਹੋਇਓ ਪ੍ਰਭੁ ਮੇਰਾ ॥
जउ सुप्रसंन होइओ प्रभु मेरा ॥
जब मेरा भगवान् मुझ पर सुप्रसन्न हो गया है तो
ਤਾਂ ਦੂਖੁ ਭਰਮੁ ਕਹੁ ਕੈਸੇ ਨੇਰਾ ॥੧॥
तां दूखु भरमु कहु कैसे नेरा ॥१॥
बताओ दु:ख एवं भ्रम कैसे मेरे पास आ सकते हैं ? ॥१॥
ਸੁਨਿ ਸੁਨਿ ਜੀਵਾ ਸੋਇ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੀ ॥
सुनि सुनि जीवा सोइ तुम्हारी ॥
हे भगवान् ! तेरी शोभा सुन-सुनकर मैं जीवित हूँ।
ਮੋਹਿ ਨਿਰਗੁਨ ਕਉ ਲੇਹੁ ਉਧਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मोहि निरगुन कउ लेहु उधारी ॥१॥ रहाउ ॥
मुझ गुणहीन का संसार-सागर से उद्धार कर दो ॥ १॥ रहाउ॥
ਮਿਟਿ ਗਇਆ ਦੂਖੁ ਬਿਸਾਰੀ ਚਿੰਤਾ ॥
मिटि गइआ दूखु बिसारी चिंता ॥
मेरा दुःख मिट गया है और चिन्ता को मैंने भुला दिया है ।
ਫਲੁ ਪਾਇਆ ਜਪਿ ਸਤਿਗੁਰ ਮੰਤਾ ॥੨॥
फलु पाइआ जपि सतिगुर मंता ॥२॥
सतिगुरु के दिए हुए मंत्र का जाप करने से मुझे फल मिल गया है॥ २॥
ਸੋਈ ਸਤਿ ਸਤਿ ਹੈ ਸੋਇ ॥
सोई सति सति है सोइ ॥
भगवान् ही सत्य है और उसकी शोभा भी सत्य है।
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਰਖੁ ਕੰਠਿ ਪਰੋਇ ॥੩॥
सिमरि सिमरि रखु कंठि परोइ ॥३॥
उसके नाम को याद कर करके अपने ह्रदय में पिरो कर रखों॥३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਕਉਨ ਉਹ ਕਰਮਾ ॥
कहु नानक कउन उह करमा ॥
हे नानक ! वह कौन-सा कर्म है
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ॥੪॥੨੧॥੭੨॥
जा कै मनि वसिआ हरि नामा ॥४॥२१॥७२॥
जिसे करने से मन में भगवान का नाम आ बसता है॥ ४ ॥ २१॥ ७२ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਕਾਮਿ ਕ੍ਰੋਧਿ ਅਹੰਕਾਰਿ ਵਿਗੂਤੇ ॥
कामि क्रोधि अहंकारि विगूते ॥
काम, क्रोध एवं अहंकार ने (मायाग्रस्त) जीवों को नष्ट कर दिया है।
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨੁ ਕਰਿ ਹਰਿ ਜਨ ਛੂਟੇ ॥੧॥
हरि सिमरनु करि हरि जन छूटे ॥१॥
भगवान् का सिमरन करने से भक्तजन विकारों से छूट गए हैं।॥ १॥
ਸੋਇ ਰਹੇ ਮਾਇਆ ਮਦ ਮਾਤੇ ॥
सोइ रहे माइआ मद माते ॥
माया के नशे में मस्त हुए जीव अज्ञानता की नींद में सोए हुए हैं।
ਜਾਗਤ ਭਗਤ ਸਿਮਰਤ ਹਰਿ ਰਾਤੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जागत भगत सिमरत हरि राते ॥१॥ रहाउ ॥
भगवान् के सिमरन में रंगे हुए भक्त मोह-माया से सचेत रहते हैं।॥ १॥ रहाउ ॥
ਮੋਹ ਭਰਮਿ ਬਹੁ ਜੋਨਿ ਭਵਾਇਆ ॥
मोह भरमि बहु जोनि भवाइआ ॥
मोह की दुविधा में फँसकर मनुष्य अनेक योनियों में भटकते हैं।
ਅਸਥਿਰੁ ਭਗਤ ਹਰਿ ਚਰਣ ਧਿਆਇਆ ॥੨॥
असथिरु भगत हरि चरण धिआइआ ॥२॥
जिन भक्तों ने श्रीहरि के सुन्दर चरणों का ध्यान किया है वे अमर हो गए हैं॥२॥
ਬੰਧਨ ਅੰਧ ਕੂਪ ਗ੍ਰਿਹ ਮੇਰਾ ॥
बंधन अंध कूप ग्रिह मेरा ॥
जो कहता है कि यह मेरा घर है, उसे माया के बन्धन घेर लेते हैं और वह मोह के अंधै कुँए में जा गिरता है।
ਮੁਕਤੇ ਸੰਤ ਬੁਝਹਿ ਹਰਿ ਨੇਰਾ ॥੩॥
मुकते संत बुझहि हरि नेरा ॥३॥
लेकिन वे संतजन माया के बंधनों से छूट जाते हैं जो भगवान् को अपने निकट ही बसता समझते हैं।॥ ३॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜੋ ਪ੍ਰਭ ਸਰਣਾਈ ॥
कहु नानक जो प्रभ सरणाई ॥
हे नानक ! जो भगवान् की शरण में पड़ा रहता है,”
ਈਹਾ ਸੁਖੁ ਆਗੈ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੪॥੨੨॥੭੩॥
ईहा सुखु आगै गति पाई ॥४॥२२॥७३॥
उसे यहाँ इहलोक में सुख मिलता है और परलोक में भी गति हो जाती है॥ ४ ॥ २२ ॥ ७३ ॥