Hindi Page 489

ੴ ਸਤਿਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥
वह परब्रह्म परमेश्वर एक है, उसका नाम सत्य है, वह सृष्टि की रचना करने वाला सर्वशक्तिमान है, उसका किसी से वैर नहीं, वह निर्वैर है, वस्तुतः सब जीवों पर उसकी समान दृष्टि है, वह कालातीत है, वह जन्म-मरण से रहित है, वह स्वयं ही प्रकट हुआ है, जिसकी लब्धि गुरु की कृपा से होती है।

ਰਾਗੁ ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ਚਉਪਦੇ ਘਰੁ ੧ ॥
रागु गूजरी महला १ चउपदे घरु १ ॥
रागु गूजरी महला १ चउपदे घरु १ ॥

ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਕਰੀ ਚਨਣਾਠੀਆ ਜੇ ਮਨੁ ਉਰਸਾ ਹੋਇ ॥
तेरा नामु करी चनणाठीआ जे मनु उरसा होइ ॥
हे परमात्मा ! यदि मेरा मन शिला बन जाए तो मैं तेरे नाम को चन्दन बनाकर उस पर घिसूं ।

ਕਰਣੀ ਕੁੰਗੂ ਜੇ ਰਲੈ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਪੂਜਾ ਹੋਇ ॥੧॥
करणी कुंगू जे रलै घट अंतरि पूजा होइ ॥१॥
यदि शुभ कर्मों का केसर उससे मिला दिया जाए तभी मेरे हृदय के भीतर तेरी सच्ची पूजा होती रहेगी॥ १॥

ਪੂਜਾ ਕੀਚੈ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਪੂਜ ਨ ਹੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
पूजा कीचै नामु धिआईऐ बिनु नावै पूज न होइ ॥१॥ रहाउ ॥
परमात्मा का नाम-सुमिरन करने से ही सच्ची पूजा होती है क्योंकि नाम के बिना कोई पूजा नहीं ॥ १॥ रहाउ॥

ਬਾਹਰਿ ਦੇਵ ਪਖਾਲੀਅਹਿ ਜੇ ਮਨੁ ਧੋਵੈ ਕੋਇ ॥
बाहरि देव पखालीअहि जे मनु धोवै कोइ ॥
बाहर से लोग देव-मूर्तियों को धोते हैं, यदि इसी तरह अपने मन को धो लें तो

ਜੂਠਿ ਲਹੈ ਜੀਉ ਮਾਜੀਐ ਮੋਖ ਪਇਆਣਾ ਹੋਇ ॥੨॥
जूठि लहै जीउ माजीऐ मोख पइआणा होइ ॥२॥
उनकी विकारों की जूठन दूर हो जाएगी, उनकी आत्मा पवित्र हो जाएगी तथा मोक्ष को प्रस्थान करेगी॥ २ ॥

ਪਸੂ ਮਿਲਹਿ ਚੰਗਿਆਈਆ ਖੜੁ ਖਾਵਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਦੇਹਿ ॥
पसू मिलहि चंगिआईआ खड़ु खावहि अम्रितु देहि ॥
पशुओं के पास भी गुण मिलते हैं जो घास चरते हैं और अमृत-समान दूध देते हैं लेकिन

ਨਾਮ ਵਿਹੂਣੇ ਆਦਮੀ ਧ੍ਰਿਗੁ ਜੀਵਣ ਕਰਮ ਕਰੇਹਿ ॥੩॥
नाम विहूणे आदमी ध्रिगु जीवण करम करेहि ॥३॥
नाम-विहीन आदमी का जीवन एवं कर्म दोनों ही धिक्कार योग्य हैं चूंकि वह नाम को छोड़कर व्यर्थ कार्य करता रहता है॥ ३॥

ਨੇੜਾ ਹੈ ਦੂਰਿ ਨ ਜਾਣਿਅਹੁ ਨਿਤ ਸਾਰੇ ਸੰਮ੍ਹ੍ਹਾਲੇ ॥
नेड़ा है दूरि न जाणिअहु नित सारे सम्हाले ॥
हे प्राणी ! परमात्मा निकट ही है, उसे दूर मत समझो। वह प्रतिदिन दुनिया का भरण-पोषण कर रहा है।

ਜੋ ਦੇਵੈ ਸੋ ਖਾਵਣਾ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਸਾਚਾ ਹੇ ॥੪॥੧॥
जो देवै सो खावणा कहु नानक साचा हे ॥४॥१॥
गुरु नानक का कथन है कि जो कुछ वह देता है, वही हम खाते हैं केवल वही सत्य है॥ ४॥ १॥

ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥
गूजरी महला १ ॥
गूजरी महला १ ॥

ਨਾਭਿ ਕਮਲ ਤੇ ਬ੍ਰਹਮਾ ਉਪਜੇ ਬੇਦ ਪੜਹਿ ਮੁਖਿ ਕੰਠਿ ਸਵਾਰਿ ॥
नाभि कमल ते ब्रहमा उपजे बेद पड़हि मुखि कंठि सवारि ॥
विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ और अपने चारों मुख एवं कण्ठ को संवारकर वेदों का अध्ययन करने लगा।

ਤਾ ਕੋ ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਈ ਲਖਣਾ ਆਵਤ ਜਾਤ ਰਹੈ ਗੁਬਾਰਿ ॥੧॥
ता को अंतु न जाई लखणा आवत जात रहै गुबारि ॥१॥
लेकिन ब्रह्मा भी ईश्वर का अन्त नहीं जान सका तथा आवागमन के अन्धेरे में पड़ा रहा ॥ १॥

ਪ੍ਰੀਤਮ ਕਿਉ ਬਿਸਰਹਿ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਾਣ ਅਧਾਰ ॥
प्रीतम किउ बिसरहि मेरे प्राण अधार ॥
मैं अपने प्रियतम-प्रभु को क्यों विस्मृत करूँ ? जो कि मेरे प्राणों का आधार है।

ਜਾ ਕੀ ਭਗਤਿ ਕਰਹਿ ਜਨ ਪੂਰੇ ਮੁਨਿ ਜਨ ਸੇਵਹਿ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जा की भगति करहि जन पूरे मुनि जन सेवहि गुर वीचारि ॥१॥ रहाउ ॥
जिसकी भक्ति पूर्ण पुरुष भी करते हैं और मुनिजन भी गुरु के उपदेशानुसार सेवा-भक्ति करते हैं।॥ १॥ रहाउ॥

ਰਵਿ ਸਸਿ ਦੀਪਕ ਜਾ ਕੇ ਤ੍ਰਿਭਵਣਿ ਏਕਾ ਜੋਤਿ ਮੁਰਾਰਿ ॥
रवि ससि दीपक जा के त्रिभवणि एका जोति मुरारि ॥
दुनिया में रोशनी करने के लिए सूर्य एवं चन्द्रमा उसके दीपक हैं, तीनों लोकों में एक उसी मुरारी की ज्योति प्रज्वलित हो रही है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ਸੁ ਅਹਿਨਿਸਿ ਨਿਰਮਲੁ ਮਨਮੁਖਿ ਰੈਣਿ ਅੰਧਾਰਿ ॥੨॥
गुरमुखि होइ सु अहिनिसि निरमलु मनमुखि रैणि अंधारि ॥२॥
गुरुमुख मनुष्य रात-दिन मन में निर्मल रहता है तथा मनमुख लोग रात के अन्धेरे में भटकते रहते हैं।॥ २॥

ਸਿਧ ਸਮਾਧਿ ਕਰਹਿ ਨਿਤ ਝਗਰਾ ਦੁਹੁ ਲੋਚਨ ਕਿਆ ਹੇਰੈ ॥
सिध समाधि करहि नित झगरा दुहु लोचन किआ हेरै ॥
सिद्ध पुरुष अपनी समाधि में सदैव अपने साथ ही झगड़ा करता हुआ प्रभु की खोज करते रहते हैं। परन्तु अपने दोनों नयनों से वह क्या देख सकते हैं।

ਅੰਤਰਿ ਜੋਤਿ ਸਬਦੁ ਧੁਨਿ ਜਾਗੈ ਸਤਿਗੁਰੁ ਝਗਰੁ ਨਿਬੇਰੈ ॥੩॥
अंतरि जोति सबदु धुनि जागै सतिगुरु झगरु निबेरै ॥३॥
जिसके हृदय में प्रभु ज्योति विद्यमान है। वह शब्द की ध्वनि से जाग जाता है और सच्चा गुरु उसके विवाद निपटा देता है॥ ३॥

ਸੁਰਿ ਨਰ ਨਾਥ ਬੇਅੰਤ ਅਜੋਨੀ ਸਾਚੈ ਮਹਲਿ ਅਪਾਰਾ ॥
सुरि नर नाथ बेअंत अजोनी साचै महलि अपारा ॥
हे अनंत, अयोनि प्रभु ! तुम देवताओं एवं मनुष्यों के नाथ हो, तुम्हारा सच्चा मन्दिर अपार है।

ਨਾਨਕ ਸਹਜਿ ਮਿਲੇ ਜਗਜੀਵਨ ਨਦਰਿ ਕਰਹੁ ਨਿਸਤਾਰਾ ॥੪॥੨॥
नानक सहजि मिले जगजीवन नदरि करहु निसतारा ॥४॥२॥
हे जगजीवन प्रभु ! नानक को सहजता प्रदान कर तथा अपनी दया-दृष्टि से उसका उद्धार कर दो ॥ ४॥ २॥

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