ਇਹੁ ਕਾਰਣੁ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਸਮਾਇ ॥੪॥੩॥੫॥
इहु कारणु करता करे जोती जोति समाइ ॥४॥३॥५॥
सृजनहार प्रभु ने यह कार्य सम्पूर्ण किया है तथा लहने की ज्योति नानक की ज्योति में समा गई॥ ४॥ ३ ॥ ५ ॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥
गूजरी महला ३ ॥
गूजरी महला ३ ॥
ਰਾਮ ਰਾਮ ਸਭੁ ਕੋ ਕਹੈ ਕਹਿਐ ਰਾਮੁ ਨ ਹੋਇ ॥
राम राम सभु को कहै कहिऐ रामु न होइ ॥
जीभ से ‘राम-राम’ तो सभी लोग कहते हैं लेकिन इस तरह कहने से राम प्राप्त नहीं होता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਰਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਤਾ ਫਲੁ ਪਾਵੈ ਕੋਇ ॥੧॥
गुर परसादी रामु मनि वसै ता फलु पावै कोइ ॥१॥
यदि गुरु की कृपा से किसी के मन में राम बस जाए तो तभी कोई राम-नाम जपने का फल प्राप्त करता है॥ १॥
ਅੰਤਰਿ ਗੋਵਿੰਦ ਜਿਸੁ ਲਾਗੈ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥
अंतरि गोविंद जिसु लागै प्रीति ॥
जिस मनुष्य के हृदय में गोविंद से प्रीति लग गई है,
ਹਰਿ ਤਿਸੁ ਕਦੇ ਨ ਵੀਸਰੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਰਹਿ ਸਦਾ ਮਨਿ ਚੀਤਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि तिसु कदे न वीसरै हरि हरि करहि सदा मनि चीति ॥१॥ रहाउ ॥
वह प्रभु को कदाचित विस्मृत नहीं करता और सदैव ही मन एवं चित्त से हरि-हरि करता रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਹਿਰਦੈ ਜਿਨੑ ਕੈ ਕਪਟੁ ਵਸੈ ਬਾਹਰਹੁ ਸੰਤ ਕਹਾਹਿ ॥
हिरदै जिन्ह कै कपटु वसै बाहरहु संत कहाहि ॥
जिनके हृदय में कपट निवास करता है परन्तु बाहर से संत कहलवाते हैं,
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮੂਲਿ ਨ ਚੁਕਈ ਅੰਤਿ ਗਏ ਪਛੁਤਾਹਿ ॥੨॥
त्रिसना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि ॥२॥
उनकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती और अंतः वह पछताते हुए संसार से चले जाते हैं।॥ २॥
ਅਨੇਕ ਤੀਰਥ ਜੇ ਜਤਨ ਕਰੈ ਤਾ ਅੰਤਰ ਕੀ ਹਉਮੈ ਕਦੇ ਨ ਜਾਇ ॥
अनेक तीरथ जे जतन करै ता अंतर की हउमै कदे न जाइ ॥
चाहे मनुष्य अनेक तीर्थ स्थलों पर स्नान का यत्न करता रहे परन्तु उसके मन का अहंकार कभी दूर नहीं होता।
ਜਿਸੁ ਨਰ ਕੀ ਦੁਬਿਧਾ ਨ ਜਾਇ ਧਰਮ ਰਾਇ ਤਿਸੁ ਦੇਇ ਸਜਾਇ ॥੩॥
जिसु नर की दुबिधा न जाइ धरम राइ तिसु देइ सजाइ ॥३॥
जिस मनुष्य की दुविधा दूर नहीं होती, धर्मराज उसे दण्डित करता है॥ ३॥
ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਏ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਕੋਈ ॥
करमु होवै सोई जनु पाए गुरमुखि बूझै कोई ॥
जिस व्यक्ति पर प्रभु की अनुकंपा हो जाती है, वही उसे प्राप्त करता है। कोई गुरुमुख बनकर ही सत्य को समझता है।
ਨਾਨਕ ਵਿਚਹੁ ਹਉਮੈ ਮਾਰੇ ਤਾਂ ਹਰਿ ਭੇਟੈ ਸੋਈ ॥੪॥੪॥੬॥
नानक विचहु हउमै मारे तां हरि भेटै सोई ॥४॥४॥६॥
हे नानक ! यदि मनुष्य अपने भीतर से अपना अहंकार नष्ट कर दे तो वह प्रभु से मिल जाता है॥ ४॥ ४॥ ६॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥
गूजरी महला ३ ॥
गूजरी महला ३ ॥
ਤਿਸੁ ਜਨ ਸਾਂਤਿ ਸਦਾ ਮਤਿ ਨਿਹਚਲ ਜਿਸ ਕਾ ਅਭਿਮਾਨੁ ਗਵਾਏ ॥
तिसु जन सांति सदा मति निहचल जिस का अभिमानु गवाए ॥
ईश्वर जिस इन्सान का अभिमान दूर कर देता है, उसे शांति प्राप्त हो जाती है तथा उसकी बुद्धि सदैव निश्चल रहती है।
ਸੋ ਜਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਹਰਿ ਚਰਣੀ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥੧॥
सो जनु निरमलु जि गुरमुखि बूझै हरि चरणी चितु लाए ॥१॥
वह मनुष्य निर्मल है जो गुरु के उपदेश द्वारा सत्य को समझता है तथा अपने चित्त को हरि-चरणों से लगाता है॥ १॥
ਹਰਿ ਚੇਤਿ ਅਚੇਤ ਮਨਾ ਜੋ ਇਛਹਿ ਸੋ ਫਲੁ ਹੋਈ ॥
हरि चेति अचेत मना जो इछहि सो फलु होई ॥
हे मेरे अचेत मन ! भगवान को याद कर, तुझे मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਵਹਿ ਪੀਵਤ ਰਹਹਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुर परसादी हरि रसु पावहि पीवत रहहि सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ ॥
गुरु की कृपा से तुझे हरि-रस प्राप्त होगा, जिसे पान करने से सदैव सुख की उपलब्धि होगी॥ १॥ रहाउ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੇ ਤਾ ਪਾਰਸੁ ਹੋਵੈ ਪਾਰਸੁ ਹੋਇ ਤ ਪੂਜ ਕਰਾਏ ॥
सतिगुरु भेटे ता पारसु होवै पारसु होइ त पूज कराए ॥
जब मनुष्य की सतिगुरु से भेंट होती है तो वह पारस बन जाता है। जय वह पारस (महान्) बन जाता है तो प्रभु जीवों से उसकी पूजा करवाता है,
ਜੋ ਉਸੁ ਪੂਜੇ ਸੋ ਫਲੁ ਪਾਏ ਦੀਖਿਆ ਦੇਵੈ ਸਾਚੁ ਬੁਝਾਏ ॥੨॥
जो उसु पूजे सो फलु पाए दीखिआ देवै साचु बुझाए ॥२॥
जो कोई उसकी पूजा करता है, वह फल प्राप्त कर लेता है। दूसरों को दीक्षा देकर वह उनको सत्य-मार्ग पर प्रेरित करता है॥ २॥
ਵਿਣੁ ਪਾਰਸੈ ਪੂਜ ਨ ਹੋਵਈ ਵਿਣੁ ਮਨ ਪਰਚੇ ਅਵਰਾ ਸਮਝਾਏ ॥
विणु पारसै पूज न होवई विणु मन परचे अवरा समझाए ॥
पारस (महान्) बने बिना मनुष्य पूजा के योग्य नहीं होता। अपने मन को समझाने के बिना वह दूसरों को समझाता है।
ਗੁਰੂ ਸਦਾਏ ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧਾ ਕਿਸੁ ਓਹੁ ਮਾਰਗਿ ਪਾਏ ॥੩॥
गुरू सदाए अगिआनी अंधा किसु ओहु मारगि पाए ॥३॥
अज्ञानी अंधा मनुष्य अपने आपको गुरु कहलवाता है लेकिन क्या वह किसी को मार्गदर्शन कर सकता है ?॥३॥
ਨਾਨਕ ਵਿਣੁ ਨਦਰੀ ਕਿਛੂ ਨ ਪਾਈਐ ਜਿਸੁ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਪਾਏ ॥
नानक विणु नदरी किछू न पाईऐ जिसु नदरि करे सो पाए ॥
हे नानक ! प्रभु की दया के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जिस मनुष्य पर भगवान दया-दृष्टि धारण करता है, वह उसे प्राप्त कर लेता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ਅਪਣਾ ਸਬਦੁ ਵਰਤਾਏ ॥੪॥੫॥੭॥
गुर परसादी दे वडिआई अपणा सबदु वरताए ॥४॥५॥७॥
गुरु की कृपा से प्रभु प्रशंसा प्रदान करता है और अपने शब्द का चारों ओर प्रसार करता है ॥ ४॥ ५॥ ७ ॥
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੩ ਪੰਚਪਦੇ ॥
गूजरी महला ३ पंचपदे ॥
गूजरी महला ३ पंचपदे ॥
ਨਾ ਕਾਸੀ ਮਤਿ ਊਪਜੈ ਨਾ ਕਾਸੀ ਮਤਿ ਜਾਇ ॥
ना कासी मति ऊपजै ना कासी मति जाइ ॥
न ही काशी में जाने से बुद्धि उत्पन्न होती है और न ही काशी में बुद्धि दूर होती है।
ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਿਐ ਮਤਿ ਊਪਜੈ ਤਾ ਇਹ ਸੋਝੀ ਪਾਇ ॥੧॥
सतिगुर मिलिऐ मति ऊपजै ता इह सोझी पाइ ॥१॥
सतिगुरु को मिलने से बुद्धि उत्पन्न होती है और तब मनुष्य को यह समझ प्राप्त हो जाती है॥ १॥
ਹਰਿ ਕਥਾ ਤੂੰ ਸੁਣਿ ਰੇ ਮਨ ਸਬਦੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇ ॥
हरि कथा तूं सुणि रे मन सबदु मंनि वसाइ ॥
हे मन ! तू श्रद्धा से हरि कथा सुन तथा उसके नाम को अपने हृदय में बसा।
ਇਹ ਮਤਿ ਤੇਰੀ ਥਿਰੁ ਰਹੈ ਤਾਂ ਭਰਮੁ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
इह मति तेरी थिरु रहै तां भरमु विचहु जाइ ॥१॥ रहाउ ॥
यदि तेरी यह बुद्धि स्थिर रहे तो भीतर से सारा भ्रम निवृत्त हो जाएगा ॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਚਰਣ ਰਿਦੈ ਵਸਾਇ ਤੂ ਕਿਲਵਿਖ ਹੋਵਹਿ ਨਾਸੁ ॥
हरि चरण रिदै वसाइ तू किलविख होवहि नासु ॥
“(हे मन !) हरि के सुन्दर चरण अपने हृदय में बसा, तेरे समस्त पाप नाश हो जाएँगे।
ਪੰਚ ਭੂ ਆਤਮਾ ਵਸਿ ਕਰਹਿ ਤਾ ਤੀਰਥ ਕਰਹਿ ਨਿਵਾਸੁ ॥੨॥
पंच भू आतमा वसि करहि ता तीरथ करहि निवासु ॥२॥
यदि तुम अपने पाँच सूक्ष्म तत्वों से बनी आत्मा को वश में कर लो तो तुम्हारा निवास सत्य के तीर्थ में हो जाएगा।॥ २॥
ਮਨਮੁਖਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੁਗਧੁ ਹੈ ਸੋਝੀ ਕਿਛੂ ਨ ਪਾਇ ॥
मनमुखि इहु मनु मुगधु है सोझी किछू न पाइ ॥
मनमुख व्यक्ति का यह मन मूर्ख है और इसे कुछ सूझ प्राप्त नहीं होती।
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਨ ਬੁਝਈ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਇ ॥੩॥
हरि का नामु न बुझई अंति गइआ पछुताइ ॥३॥
मूर्ख मन हरि के नाम को नहीं जानता और अंततः पछताता हुआ दुनिया से चला जाता है॥ ३॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਕਾਸੀ ਸਭਿ ਤੀਰਥ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਤਿਗੁਰ ਦੀਆ ਬੁਝਾਇ ॥
इहु मनु कासी सभि तीरथ सिम्रिति सतिगुर दीआ बुझाइ ॥
सच्चे गुरु ने मुझे यह समझा दिया है कि यह मन ही काशी, सभी तीर्थ-स्नान एवं स्मृतियाँ हैं।
ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਤਿਸੁ ਸੰਗਿ ਰਹਹਿ ਜਿਨ ਹਰਿ ਹਿਰਦੈ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੪॥
अठसठि तीरथ तिसु संगि रहहि जिन हरि हिरदै रहिआ समाइ ॥४॥
जिनके हृदय में हरि समाया रहता है, उनके साथ अड़सठ तीर्थ सदा रहते हैं।॥ ४॥
ਨਾਨਕ ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਿਐ ਹੁਕਮੁ ਬੁਝਿਆ ਏਕੁ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥
नानक सतिगुर मिलिऐ हुकमु बुझिआ एकु वसिआ मनि आइ ॥
हे नानक ! सतिगुरु को मिलने से प्रभु का हुकम जान लिया जाता है और एक ईश्वर आकर मनुष्य के हृदय में बसेरा कर लेता है।
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਭੁ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੫॥੬॥੮॥
जो तुधु भावै सभु सचु है सचे रहै समाइ ॥५॥६॥८॥
हे सच्चे प्रभु ! जो तुझे अच्छे लगते हैं, वे सभी सत्य हैं और वे सत्य में ही समाए रहते हैं।॥ ५॥ ६॥ ८॥