HINDI PAGE 19

ਦਰਿ ਘਰਿ ਢੋਈ ਨ ਲਹੈ ਦਰਗਹ ਝੂਠੁ ਖੁਆਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
दरि घरि ढोई न लहै दरगह झूठु खुआरु ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे पति से विमुख हुई स्त्री को उस के घर में समीपता प्राप्त नहीं होती, वैसे ही निरंकार की विमुखता के कारण अभागिन स्त्री की भाँति परलोक में भी झूठ में लिप्त जीव को अपमानित होना पड़ता है।॥१॥ रहाउ ॥

ਆਪਿ ਸੁਜਾਣੁ ਨ ਭੁਲਈ ਸਚਾ ਵਡ ਕਿਰਸਾਣੁ ॥
आपि सुजाणु न भुलई सचा वड किरसाणु ॥
निरंकार स्वयं समझदार,सत्य व बड़ा किसान है जो जीवों के कर्मों को नहीं भूलता।

ਪਹਿਲਾ ਧਰਤੀ ਸਾਧਿ ਕੈ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਦੇ ਦਾਣੁ ॥
पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु ॥  
पहले तो वह अंत:करण रूपी बुद्धि को शोध कर फिर उसमें सत्य नाम रूपी बीज को बोता है।

ਨਉ ਨਿਧਿ ਉਪਜੈ ਨਾਮੁ ਏਕੁ ਕਰਮਿ ਪਵੈ ਨੀਸਾਣੁ ॥੨॥
नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु ॥२॥
उस नाम रूपी एक बीज से नौ निधियों की उत्पत्ति होती है, फिर जीव के मस्तिष्क पर प्रभु की कृपा का चिन्ह अंकित होता है॥२॥

ਗੁਰ ਕਉ ਜਾਣਿ ਨ ਜਾਣਈ ਕਿਆ ਤਿਸੁ ਚਜੁ ਅਚਾਰੁ ॥
गुर कउ जाणि न जाणई किआ तिसु चजु अचारु ॥ 
किन्तु जो मनमुख जीव वेद-शास्त्रों आदि से गुरु की महिमा जानकर भी अनभिज्ञ होता है, अर्थात् गुरु-उपदेश को ग्रहण नहीं करता उसके कर्म उत्तम कैसे हो सकते हैं।

ਅੰਧੁਲੈ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਮਨਮੁਖਿ ਅੰਧ ਗੁਬਾਰੁ ॥
अंधुलै नामु विसारिआ मनमुखि अंध गुबारु ॥  
अज्ञानी पुरुषों ने अज्ञान के अंधेरे कारण ही वाहिगुरु के नाम को विस्मृत कर दिया है।

ਆਵਣੁ ਜਾਣੁ ਨ ਚੁਕਈ ਮਰਿ ਜਨਮੈ ਹੋਇ ਖੁਆਰੁ ॥੩॥
आवणु जाणु न चुकई मरि जनमै होइ खुआरु ॥३॥ 
फिर उसका इस संसार से आवागमन समाप्त नहीं होता और वह पुनः-पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस कर (मुक्ति प्राप्ति हेतु) कमजोर होता रहता है अर्थात्-परमात्मा से विमुख होकर कर्म करने वाला जीव इहलोक व परलोक में अपमानित होकर दुखों को भोगता है॥ ३॥

ਚੰਦਨੁ ਮੋਲਿ ਅਣਾਇਆ ਕੁੰਗੂ ਮਾਂਗ ਸੰਧੂਰੁ ॥
चंदनु मोलि अणाइआ कुंगू मांग संधूरु ॥ 
जैसे कोई स्त्री चंदन केसर को मोल मंगवा लेती है और सिंदूर से माँग भर लेती है।

ਚੋਆ ਚੰਦਨੁ ਬਹੁ ਘਣਾ ਪਾਨਾ ਨਾਲਿ ਕਪੂਰੁ ॥
चोआ चंदनु बहु घणा पाना नालि कपूरु ॥ 
इत्र,कपूर व चंदन आदि से कपड़ों को अति सुगंधित कर ले।

ਜੇ ਧਨ ਕੰਤਿ ਨ ਭਾਵਈ ਤ ਸਭਿ ਅਡੰਬਰ ਕੂੜੁ ॥੪॥
जे धन कंति न भावई त सभि अड्मबर कूड़ु ॥४॥ 
इतना सब कुछ कर लेने पर भी यदि स्त्री अपने पति को प्रिय न लगी तो श्रृंगार के किए गए वे सभी आडम्बर मिथ्या हैं, व्यर्थ हैं। अर्थात् जीवात्मा बेशक जप, तप, यज्ञ, उपासना व संन्यासादि के भेष धारण कर ले किंतु जब तक निरंकार से वह विमुख है ये सब निष्फल हैं॥ ४॥

ਸਭਿ ਰਸ ਭੋਗਣ ਬਾਦਿ ਹਹਿ ਸਭਿ ਸੀਗਾਰ ਵਿਕਾਰ ॥
सभि रस भोगण बादि हहि सभि सीगार विकार ॥ 
मनमुख जीव के समस्त रसों का भोगना व्यर्थ है और जप-तपादि का श्रृंगार करना निरर्थक है।

ਜਬ ਲਗੁ ਸਬਦਿ ਨ ਭੇਦੀਐ ਕਿਉ ਸੋਹੈ ਗੁਰਦੁਆਰਿ ॥
जब लगु सबदि न भेदीऐ किउ सोहै गुरदुआरि ॥  
क्योंकि जब तक गुरु-उपदेश को ग्रहण नहीं करता, तब तक वह गुरु के सम्मुख सत्संगति में शोभायमान नहीं होगा।

ਨਾਨਕ ਧੰਨੁ ਸੁਹਾਗਣੀ ਜਿਨ ਸਹ ਨਾਲਿ ਪਿਆਰੁ ॥੫॥੧੩॥
नानक धंनु सुहागणी जिन सह नालि पिआरु ॥५॥१३॥ 
सतिगुरु जी कहते हैं कि उस सौभाग्यवती रूप गुरमुख का जीवन कृतार्थ है जिसका पति-परमात्मा के साथ प्रेम है॥ ५॥ १३ ॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥ 
सिरीरागु महला १ ॥ 

ਸੁੰਞੀ ਦੇਹ ਡਰਾਵਣੀ ਜਾ ਜੀਉ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
सुंञी देह डरावणी जा जीउ विचहु जाइ ॥  
जब पुर्यष्टक सहित चेतन सत्ता शरीर में निकल जाती है तब रिक्त देह भयानक हो जाती है।

ਭਾਹਿ ਬਲੰਦੀ ਵਿਝਵੀ ਧੂਉ ਨ ਨਿਕਸਿਓ ਕਾਇ ॥
भाहि बलंदी विझवी धूउ न निकसिओ काइ ॥ 
चेतन सत्ता रूपी अग्नि जो पहले प्रज्वलित हो रही थी, वह जब बुझ गई तो शरीर में से प्राण रूपी धुआं नहीं निकला।

ਪੰਚੇ ਰੁੰਨੇ ਦੁਖਿ ਭਰੇ ਬਿਨਸੇ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥੧॥
पंचे रुंने दुखि भरे बिनसे दूजै भाइ ॥१॥
पिता-पुत्रादि पांचों सम्बन्धी दुख में रुदन कर रहे हैं, अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ वियोग में विलख रही हैं, क्योंकि यह मानव जन्म द्वैत-भाव में ही नाश हो गया ॥ १॥

ਮੂੜੇ ਰਾਮੁ ਜਪਹੁ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ॥
मूड़े रामु जपहु गुण सारि ॥ 
हे मूढ़ जीव ! शुभ गुणों को सम्भालते हुए वाहिगुरु नाम का सिमरन करो।

ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਮੋਹਣੀ ਸਭ ਮੁਠੀ ਅਹੰਕਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हउमै ममता मोहणी सभ मुठी अहंकारि ॥१॥ रहाउ ॥
जो देहाभिमान स्त्री-पुत्रादि का ममत्व तथा माया का मोह है, इस के कारण सम्पूर्ण सृष्टि ठगी हुई है ॥१॥ रहाउ ॥

ਜਿਨੀ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਦੂਜੀ ਕਾਰੈ ਲਗਿ ॥
जिनी नामु विसारिआ दूजी कारै लगि ॥  
जिन्होंने अन्य सांसारिक विकारों में संलग्न होकर वाहिगुरु नाम को भुला दिया है।

ਦੁਬਿਧਾ ਲਾਗੇ ਪਚਿ ਮੁਏ ਅੰਤਰਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਅਗਿ ॥
दुबिधा लागे पचि मुए अंतरि त्रिसना अगि ॥
उनके अंतःकरण में तृष्णाग्नि जल रही है और वे द्वैत-भाव में लग कर जल मरे हैं

ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਹੋਰਿ ਮੁਠੀ ਧੰਧੈ ਠਗਿ ॥੨॥
गुरि राखे से उबरे होरि मुठी धंधै ठगि ॥२॥
जिनकी गुरु ने रक्षा की, वे बच निकले तथा अन्य सभी को दुनियावी कार्यो रूपी ठगों ने ठग लिया है ॥२॥

ਮੁਈ ਪਰੀਤਿ ਪਿਆਰੁ ਗਇਆ ਮੁਆ ਵੈਰੁ ਵਿਰੋਧੁ ॥
मुई परीति पिआरु गइआ मुआ वैरु विरोधु ॥ 
अब तो स्त्रियों में जो प्रीत लगी थी वह नष्ट हो गई, सगे-सम्बन्धियों से जो स्नेह था वह भी समाप्त हो गया तथा शत्रु-भाव भी खत्म हो गया है।

ਧੰਧਾ ਥਕਾ ਹਉ ਮੁਈ ਮਮਤਾ ਮਾਇਆ ਕ੍ਰੋਧੁ ॥
धंधा थका हउ मुई ममता माइआ क्रोधु ॥
सांसारिक क्रिया-कलापों से थक गया, अहंत्व, ममत्व व क्रोध नष्ट हो गए।

ਕਰਮਿ ਮਿਲੈ ਸਚੁ ਪਾਈਐ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਨਿਰੋਧੁ ॥੩॥
करमि मिलै सचु पाईऐ गुरमुखि सदा निरोधु ॥३॥
अकाल पुरुष की कृपा द्वारा गुरु उपदेश की प्राप्ति होती है और (उस उपदेश द्वारा ही) चित्तवृतियों का दमन करके निरंकार के सत्य नाम को प्राप्त किया जा सकता है। ॥३॥

ਸਚੀ ਕਾਰੈ ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਗੁਰਮਤਿ ਪਲੈ ਪਾਇ ॥
सची कारै सचु मिलै गुरमति पलै पाइ ॥ 
हे मानव ! गुरु-उपदेश द्वारा अंतर्मन से नाम सिमरन रूपी सत्कर्म करके सत्य स्वरूप निरंकार की प्राप्ति सम्भव है।

ਸੋ ਨਰੁ ਜੰਮੈ ਨਾ ਮਰੈ ਨਾ ਆਵੈ ਨਾ ਜਾਇ ॥
सो नरु जमै ना मरै ना आवै ना जाइ ॥  
फिर तो वह मानव न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है तथा न आता है व न जाता है, अर्थात् वह सांसारिक बंधन व आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਦਰਿ ਪਰਧਾਨੁ ਸੋ ਦਰਗਹਿ ਪੈਧਾ ਜਾਇ ॥੪॥੧੪॥
नानक दरि परधानु सो दरगहि पैधा जाइ ॥४॥१४॥ 
सतिगुरु जी कथन करते हैं कि अकाल पुरुष के द्वार पर वह मुखिया होता है और आगे परलोक में भी उसको प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ॥४॥१४॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲ ੧ ॥
सिरीरागु महल १ ॥  
सिरीरागु महल १ ॥  

ਤਨੁ ਜਲਿ ਬਲਿ ਮਾਟੀ ਭਇਆ ਮਨੁ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਮਨੂਰੁ ॥
तनु जलि बलि माटी भइआ मनु माइआ मोहि मनूरु ॥
हे मानव जीव ! यह जो शरीर प्राप्त हुआ था वह चिन्ता में जल कर राख हो गया और माया में लिप्त मन (मण्डूर) लोहे की जंग के समान निरर्थक हो गया है।

ਅਉਗਣ ਫਿਰਿ ਲਾਗੂ ਭਏ ਕੂਰਿ ਵਜਾਵੈ ਤੂਰੁ ॥
उगण फिरि लागू भए कूरि वजावै तूरु ॥  
जो पाप कर्म किए गए वे उल्ट कर उन पर ही लागू हो जाते हैं और झूठ उनके समक्ष तुरही बजाता है।

ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਭਰਮਾਈਐ ਦੁਬਿਧਾ ਡੋਬੇ ਪੂਰੁ ॥੧॥
बिनु सबदै भरमाईऐ दुबिधा डोबे पूरु ॥१॥
गुरु-उपदेश के बिना जीव भटकता रहता है तथा द्वैत-भाव ने पूर्ण समूह को नरकों में धकेल दिया है ॥१॥

ਮਨ ਰੇ ਸਬਦਿ ਤਰਹੁ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥
मन रे सबदि तरहु चितु लाइ ॥ 
हे मन ! तू गुरु-उपदेश में चित्त लगा कर इस भवसागर को पार कर।

ਜਿਨਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਨ ਬੂਝਿਆ ਮਰਿ ਜਨਮੈ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिनि गुरमुखि नामु न बूझिआ मरि जनमै आवै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥  
जिन जीवों ने गुरु द्वारा नाम-ज्ञान को प्राप्त नहीं किया, वे बार-बार आवागमन में ही व्यस्त रहते हैं ॥१॥ रहाउ ॥

ਤਨੁ ਸੂਚਾ ਸੋ ਆਖੀਐ ਜਿਸੁ ਮਹਿ ਸਾਚਾ ਨਾਉ ॥
तनु सूचा सो आखीऐ जिसु महि साचा नाउ ॥  
जिस अंतर्मन में सत्य-नाम विद्यमान हो, वही पवित्र कहा जाता है।

ਭੈ ਸਚਿ ਰਾਤੀ ਦੇਹੁਰੀ ਜਿਹਵਾ ਸਚੁ ਸੁਆਉ ॥
भै सचि राती देहुरी जिहवा सचु सुआउ ॥  
शरीर सत्य स्वरूप निरंकार के भय में रत है और रसना सत्य-नाम का स्वाद चख रही है।

ਸਚੀ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲੀਐ ਬਹੁੜਿ ਨ ਪਾਵੈ ਤਾਉ ॥੨॥
सची नदरि निहालीऐ बहुड़ि न पावै ताउ ॥२॥ 
उस जीव पर जब परमेश्वर की कृपा-दृष्टि हो गई तब उसे नरकों की अग्नि का ताप नहीं सहना पड़ता ॥२॥

ਸਾਚੇ ਤੇ ਪਵਨਾ ਭਇਆ ਪਵਨੈ ਤੇ ਜਲੁ ਹੋਇ ॥
साचे ते पवना भइआ पवनै ते जलु होइ ॥
(अब सतगुरु जी पुनः सृष्टि की रचना का चित्रण करते हैं।) सत्य स्वरूप निरंकार से पवन हुआ, पवन से जल की उत्पति हुई।

ਜਲ ਤੇ ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ ਸਾਜਿਆ ਘਟਿ ਘਟਿ ਜੋਤਿ ਸਮੋਇ ॥
जल ते त्रिभवणु साजिआ घटि घटि जोति समोइ ॥
फिर सृजनहार परमात्मा ने जलादि तत्वों से तीनों लोकों (सम्पूर्ण सृष्टि) की रचना की, फिर इस रचना के कण-कण में उसने जीव रूप में अपनी ज्योति विद्यमान की।

ਨਿਰਮਲੁ ਮੈਲਾ ਨਾ ਥੀਐ ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥੩॥
निरमलु मैला ना थीऐ सबदि रते पति होइ ॥३॥  
गुरु उपदेश में तदाकार होने से जिसका मन निर्मल होता है, वह फिर कभी द्वैत के कारण दूषित नहीं होता, इसी से वह प्रतिष्ठित होता है। ॥ ३।

ਇਹੁ ਮਨੁ ਸਾਚਿ ਸੰਤੋਖਿਆ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤਿਸੁ ਮਾਹਿ ॥
इहु मनु साचि संतोखिआ नदरि करे तिसु माहि ॥
जब यह मन सत्य द्वारा संतुष्ट हो जाता है तब उस पर निरंकार की कृपा होती है।

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