ਅੰਤਰ ਕੀ ਗਤਿ ਜਾਣੀਐ ਗੁਰ ਮਿਲੀਐ ਸੰਕ ਉਤਾਰਿ ॥
अंतर की गति जाणीऐ गुर मिलीऐ संक उतारि ॥
अंतर्मन का रहस्य तभी जाना जा सकता है, जब सभी शंकाओं को दूर करके गुरु से मिला जाए।
ਮੁਇਆ ਜਿਤੁ ਘਰਿ ਜਾਈਐ ਤਿਤੁ ਜੀਵਦਿਆ ਮਰੁ ਮਾਰਿ ॥
मुइआ जितु घरि जाईऐ तितु जीवदिआ मरु मारि ॥
मरणोपरांत जिस यम घर में जाना है, क्यों न जीवित रह कर नाम सिमरन द्वारा उस यम को ही मार लें।
ਅਨਹਦ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਵਣੇ ਪਾਈਐ ਗੁਰ ਵੀਚਾਰਿ ॥੨॥
अनहद सबदि सुहावणे पाईऐ गुर वीचारि ॥२॥
गुरु के उपदेश से ही परब्रह्म की अनाहत वाणी श्रवण करने को मिलती है॥ २॥
ਅਨਹਦ ਬਾਣੀ ਪਾਈਐ ਤਹ ਹਉਮੈ ਹੋਇ ਬਿਨਾਸੁ ॥
अनहद बाणी पाईऐ तह हउमै होइ बिनासु ॥
जब यह अनाहत वाणी प्राप्त होती है तो अभिमान का विनाश हो जाता है।
ਸਤਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਆਪਣਾ ਹਉ ਸਦ ਕੁਰਬਾਣੈ ਤਾਸੁ ॥
सतगुरु सेवे आपणा हउ सद कुरबाणै तासु ॥
जो अपने सतिगुरु की सेवा करते हैं, उन पर सदैव कुर्बान जाएँ।
ਖੜਿ ਦਰਗਹ ਪੈਨਾਈਐ ਮੁਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮ ਨਿਵਾਸੁ ॥੩॥
खड़ि दरगह पैनाईऐ मुखि हरि नाम निवासु ॥३॥
जिनके मुँह में हरिनाम का वास होता है, उसे परमात्मा की सभा में ले जाकर प्रतिष्ठा के परिधान से सुशोभित किया जाता है॥ ३॥
ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਰਵਿ ਰਹੇ ਸਿਵ ਸਕਤੀ ਕਾ ਮੇਲੁ ॥
जह देखा तह रवि रहे सिव सकती का मेलु ॥
जहाँ कहीं भी मेरी दृष्टि पड़ती है, वहाँ पर शिव (चेतन) और शक्ति (प्रवृति) का संयोग है।
ਤ੍ਰਿਹੁ ਗੁਣ ਬੰਧੀ ਦੇਹੁਰੀ ਜੋ ਆਇਆ ਜਗਿ ਸੋ ਖੇਲੁ ॥
त्रिहु गुण बंधी देहुरी जो आइआ जगि सो खेलु ॥
त्रिगुणी (तम,रज,सत्त्व) आत्मिक माया से यह शरीर बंधा हुआ है, जो इस संसार में आया है, उसने इनके साथ ही खेलना है।
ਵਿਜੋਗੀ ਦੁਖਿ ਵਿਛੁੜੇ ਮਨਮੁਖਿ ਲਹਹਿ ਨ ਮੇਲੁ ॥੪॥
विजोगी दुखि विछुड़े मनमुखि लहहि न मेलु ॥४॥
जो गुरु से विमुख हैं, वह परमात्मा से बिछुड़ कर दुखी होते हैं तथा मनमुख (स्वेच्छाचारी) मिलाप की अवस्था को प्राप्त नहीं करते॥ ४॥
ਮਨੁ ਬੈਰਾਗੀ ਘਰਿ ਵਸੈ ਸਚ ਭੈ ਰਾਤਾ ਹੋਇ ॥
मनु बैरागी घरि वसै सच भै राता होइ ॥
यदि माया में लिप्त रहने वाला मन सत्य स्वरूप परमात्मा के भय में लीन हो जाए तो वह अपने वास्तविक गृह में निवास प्राप्त कर लेता है।
ਗਿਆਨ ਮਹਾਰਸੁ ਭੋਗਵੈ ਬਾਹੁੜਿ ਭੂਖ ਨ ਹੋਇ ॥
गिआन महारसु भोगवै बाहुड़ि भूख न होइ ॥
वह ज्ञान द्वारा ब्रह्मानंद रूपी महारस को भोगता है तथा उसे फिर कोई तृष्णा नहीं होती।
ਨਾਨਕ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮਾਰਿ ਮਿਲੁ ਭੀ ਫਿਰਿ ਦੁਖੁ ਨ ਹੋਇ ॥੫॥੧੮॥
नानक इहु मनु मारि मिलु भी फिरि दुखु न होइ ॥५॥१८॥
गुरु नानक जी कथन करते हैं कि इस चंचल मन को मोह-माया से दूर करके परमात्मा से मिलाप करो फिर तुझे कोई दुख-संताप नहीं सताएगा॥ ५॥ १८॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
ਏਹੁ ਮਨੋ ਮੂਰਖੁ ਲੋਭੀਆ ਲੋਭੇ ਲਗਾ ਲੋੁਭਾਨੁ ॥
एहु मनो मूरखु लोभीआ लोभे लगा लोभानु ॥
यह मन विमूढ़ व लोभी है, जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए लालायित है।
ਸਬਦਿ ਨ ਭੀਜੈ ਸਾਕਤਾ ਦੁਰਮਤਿ ਆਵਨੁ ਜਾਨੁ ॥
सबदि न भीजै साकता दुरमति आवनु जानु ॥
शाक्त (शक्ति उपासक लोभी जीवों) का मन गुरु-शब्द (प्रभु-नाम) में लिवलीन नहीं होता, इसलिए दुर्मति वाले आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं।
ਸਾਧੂ ਸਤਗੁਰੁ ਜੇ ਮਿਲੈ ਤਾ ਪਾਈਐ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥੧॥
साधू सतगुरु जे मिलै ता पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥
यदि श्रेष्ठ सतिगुरु की प्राप्ति हो जाए तो शुभ गुणों का कोष (परमात्मा) प्राप्त हो जाता है॥ १॥
ਮਨ ਰੇ ਹਉਮੈ ਛੋਡਿ ਗੁਮਾਨੁ ॥
मन रे हउमै छोडि गुमानु ॥
हे मेरे चंचल मन ! तू अभिमान और गर्व का त्याग कर दे।
ਹਰਿ ਗੁਰੁ ਸਰਵਰੁ ਸੇਵਿ ਤੂ ਪਾਵਹਿ ਦਰਗਹ ਮਾਨੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि गुरु सरवरु सेवि तू पावहि दरगह मानु ॥१॥ रहाउ ॥
गुरु को हरि (जो सुखों का सरोवर है) का रूप मानकर उसकी सेवा कर, तभी तुम परमात्मा के दरबार में सम्मान प्राप्त करोगे॥ १॥ रहाउ॥
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਜਪਿ ਦਿਨਸੁ ਰਾਤਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਧਨੁ ਜਾਨੁ ॥
राम नामु जपि दिनसु राति गुरमुखि हरि धनु जानु ॥
गुरु के उपदेशानुसार दिन-रात राम-नाम का सुमिरन करो और इस हरि-नाम की पहचान करो।
ਸਭਿ ਸੁਖ ਹਰਿ ਰਸ ਭੋਗਣੇ ਸੰਤ ਸਭਾ ਮਿਲਿ ਗਿਆਨੁ ॥
सभि सुख हरि रस भोगणे संत सभा मिलि गिआनु ॥
हरि-नाम में ही सभी सुखों का भोग करने को मिलता है, लेकिन ऐसा ज्ञान संत-सभा (सत्संग) में ही प्राप्त होता है।
ਨਿਤਿ ਅਹਿਨਿਸਿ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੇਵਿਆ ਸਤਗੁਰਿ ਦੀਆ ਨਾਮੁ ॥੨॥
निति अहिनिसि हरि प्रभु सेविआ सतगुरि दीआ नामु ॥२॥
जिनको सत्संगति में सतिगुरु ने हरि का नाम प्रदान किया है, उन्होंने नित्य दिन-रात इस हरि प्रभु की उपासना की है॥ २॥
ਕੂਕਰ ਕੂੜੁ ਕਮਾਈਐ ਗੁਰ ਨਿੰਦਾ ਪਚੈ ਪਚਾਨੁ ॥
कूकर कूड़ु कमाईऐ गुर निंदा पचै पचानु ॥
जो कुत्ते (लोभी पुरुष) मिथ्या कमाई करते हैं, अर्थात् झूठ बोलते हैं, गुरु की निन्दा करना उनका आहार बन जाता है।
ਭਰਮੇ ਭੂਲਾ ਦੁਖੁ ਘਣੋ ਜਮੁ ਮਾਰਿ ਕਰੈ ਖੁਲਹਾਨੁ ॥
भरमे भूला दुखु घणो जमु मारि करै खुलहानु ॥
इसके फलस्वरूप वह भ्रम में विस्मृत हो कर बहुत कष्ट सहन करते हैं और यमों के दण्ड से नष्ट हो जाते हैं।
ਮਨਮੁਖਿ ਸੁਖੁ ਨ ਪਾਈਐ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੁਖੁ ਸੁਭਾਨੁ ॥੩॥
मनमुखि सुखु न पाईऐ गुरमुखि सुखु सुभानु ॥३॥
मनमुख जीव कभी आत्मिक सुख प्राप्त नहीं करते, केवल गुरु के उन्मुख प्राणी ही सर्वसुखों को प्राप्त करते हैं।॥ ३॥
ਐਥੈ ਧੰਧੁ ਪਿਟਾਈਐ ਸਚੁ ਲਿਖਤੁ ਪਰਵਾਨੁ ॥
ऐथै धंधु पिटाईऐ सचु लिखतु परवानु ॥
इहलोक में मनमुख जीव माया के धंधों में खपते रहते हैं, जो असत्य कर्म हैं, लेकिन परमात्मा के दर पर सत्य कर्मों का लेखा ही स्वीकृत है।
ਹਰਿ ਸਜਣੁ ਗੁਰੁ ਸੇਵਦਾ ਗੁਰ ਕਰਣੀ ਪਰਧਾਨੁ ॥
हरि सजणु गुरु सेवदा गुर करणी परधानु ॥
जो गुरु की सेवा करता है, वह हरि का मित्र है, उसकी करनी श्रेष्ठ है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਕਰਮਿ ਸਚੈ ਨੀਸਾਣੁ ॥੪॥੧੯॥
नानक नामु न वीसरै करमि सचै नीसाणु ॥४॥१९॥
गुरु नानक जी कहते हैं कि जिनके मस्तिष्क पर सत्य कर्मों का लेखा लिखा है, उनको प्रभु का नाम कभी विस्मृत नहीं होता ॥ ४॥ १९ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
ਇਕੁ ਤਿਲੁ ਪਿਆਰਾ ਵੀਸਰੈ ਰੋਗੁ ਵਡਾ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
इकु तिलु पिआरा वीसरै रोगु वडा मन माहि ॥
अल्पतम समय के लिए भी यदि प्रियतम प्रभु विस्मृत हो जाए तो मन में बहुत बड़ा रोग अनुभव होता है, अर्थात् पश्चाताप होता है।
ਕਿਉ ਦਰਗਹ ਪਤਿ ਪਾਈਐ ਜਾ ਹਰਿ ਨ ਵਸੈ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
किउ दरगह पति पाईऐ जा हरि न वसै मन माहि ॥
जब मन में हरि का वास ही नहीं होगा तो उसके दरबार में प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करेगा।
ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਅਗਨਿ ਮਰੈ ਗੁਣ ਮਾਹਿ ॥੧॥
गुरि मिलिऐ सुखु पाईऐ अगनि मरै गुण माहि ॥१॥
गुरु से मिलाप करके आत्मिक सुखों की प्राप्ति होती है, प्रभु का यशोगान करके तृष्णाग्नि मिट जाती है ॥ ५ ॥
ਮਨ ਰੇ ਅਹਿਨਿਸਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ॥
मन रे अहिनिसि हरि गुण सारि ॥
हे मन ! दिन-रात हरि-गुणों का स्मरण कर।
ਜਿਨ ਖਿਨੁ ਪਲੁ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਤੇ ਜਨ ਵਿਰਲੇ ਸੰਸਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिन खिनु पलु नामु न वीसरै ते जन विरले संसारि ॥१॥ रहाउ ॥
जिनको क्षण-मात्र भी प्रभु का नाम विस्मृत नहीं होता। ऐसे लोग विरले ही इस संसार में होते हैं ॥ १ ॥ रहाउ ॥
ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਈਐ ਸੁਰਤੀ ਸੁਰਤਿ ਸੰਜੋਗੁ ॥
जोती जोति मिलाईऐ सुरती सुरति संजोगु ॥
यदि जीवात्मा को परमात्मा की ज्योति मे विलीन कर दिया जाये और निज चेतना को दिव्य चेतना मे संलिप्त कर दिया जाए
ਹਿੰਸਾ ਹਉਮੈ ਗਤੁ ਗਏ ਨਾਹੀ ਸਹਸਾ ਸੋਗੁ ॥
हिंसा हउमै गतु गए नाही सहसा सोगु ॥
तो मन से हिंसा, अभिमान, शोक, शंका और चंचलता आदि कृतियाँ समाप्त हो जाएँगी और साथ ही संशय व शोक भी मिट जाएँगे।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਿਸੁ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸੈ ਤਿਸੁ ਮੇਲੇ ਗੁਰੁ ਸੰਜੋਗੁ ॥੨॥
गुरमुखि जिसु हरि मनि वसै तिसु मेले गुरु संजोगु ॥२॥
जिस गुरमुख के मन में हरि का वास है, उसे सतिगुरु संयोगवश अपने साथ मिला लेते हैं॥ २ ॥
ਕਾਇਆ ਕਾਮਣਿ ਜੇ ਕਰੀ ਭੋਗੇ ਭੋਗਣਹਾਰੁ ॥
काइआ कामणि जे करी भोगे भोगणहारु ॥
यदि बुद्धि रूपी स्त्री को निष्काम कर्मों द्वारा शुद्ध करके गुरु उपदेश का श्रेष्ठतम भोग भोगने को तत्पर किया जाए।
ਤਿਸੁ ਸਿਉ ਨੇਹੁ ਨ ਕੀਜਈ ਜੋ ਦੀਸੈ ਚਲਣਹਾਰੁ ॥
तिसु सिउ नेहु न कीजई जो दीसै चलणहारु ॥
सभी नश्वर पदार्थों की कामना का त्याग किया जाए
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਵਹਿ ਸੋਹਾਗਣੀ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸੇਜ ਭਤਾਰੁ ॥੩॥
गुरमुखि रवहि सोहागणी सो प्रभु सेज भतारु ॥३॥
तो वह गुरमुख सदैव गुरु उपदेश के कारण सुहागिन जीवन व्यतीत कर सकता है और अपने प्रभु-पति के साथ आनंद प्राप्त कर सकता है। ३ ॥