HINDI PAGE 28

ਇਹੁ ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਪਾਇ ਕੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
इहु जनमु पदारथु पाइ कै हरि नामु न चेतै लिव लाइ ॥
यह मानव-जन्म रूपी पदार्थ पाकर जो जीव एकाग्रचित होकर प्रभु-नाम को स्मरण नहीं करता।

ਪਗਿ ਖਿਸਿਐ ਰਹਣਾ ਨਹੀ ਆਗੈ ਠਉਰੁ ਨ ਪਾਇ ॥
पगि खिसिऐ रहणा नही आगै ठउरु न पाइ ॥ 
वह श्वास रूपी पांव फिसलने के कारण इस संसार में भी नहीं रहता और उसे परलोक में भी ठिकाना नहीं मिलता।

ਓਹ ਵੇਲਾ ਹਥਿ ਨ ਆਵਈ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਇ ॥
ओह वेला हथि न आवई अंति गइआ पछुताइ ॥  
फिर यह मानव-जन्म का समय हाथ नहीं लगता तथा अंत में प्रायश्चित करता हुआ इस संसार से चला जाता है।

ਜਿਸੁ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਉਬਰੈ ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੪॥
जिसु नदरि करे सो उबरै हरि सेती लिव लाइ ॥४॥ 
जिन पर परमेश्वर की कृपा होती है, वे परमात्मा में लिवलीन होकर आवागमन के चक्र से बच जाते हैं।॥ ४॥

ਦੇਖਾ ਦੇਖੀ ਸਭ ਕਰੇ ਮਨਮੁਖਿ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥
देखा देखी सभ करे मनमुखि बूझ न पाइ ॥  
एक-दूसरे को देख कर तो सभी नाम-सुमिरन करने लगते हैं, लेकिन स्वेच्छाचारी इसे समझ नहीं पाता।

ਜਿਨ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਿਰਦਾ ਸੁਧੁ ਹੈ ਸੇਵ ਪਈ ਤਿਨ ਥਾਇ ॥
जिन गुरमुखि हिरदा सुधु है सेव पई तिन थाइ ॥  
जिन गुरुमुख जीवों का हृदय पवित्र है, उनकी उपासना सफल होती है।

ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਹਿ ਹਰਿ ਨਿਤ ਪੜਹਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ਸਮਾਇ ॥
हरि गुण गावहि हरि नित पड़हि हरि गुण गाइ समाइ ॥
ऐसे जीव कीर्तन द्वारा हरि का गुणगान करते हैं और धर्म-ग्रंथों में हरि के गुणों को पढ़ते हैं तथा हरि के गुणों को गाते हुए उसी में समाधिस्थ हो जाते हैं।

ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਕੀ ਬਾਣੀ ਸਦਾ ਸਚੁ ਹੈ ਜਿ ਨਾਮਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੫॥੪॥੩੭॥
नानक तिन की बाणी सदा सचु है जि नामि रहे लिव लाइ ॥५॥४॥३७॥  
नानक देव जी कथन करते हैं कि जो जीव प्रभु-नाम में लिवलीन रहते हैं, उनकी वाणी सदा सत्य होती है॥ ५॥ ४॥ ३७ ॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥ 
सिरीरागु महला ३ ॥  

ਜਿਨੀ ਇਕ ਮਨਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਗੁਰਮਤੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥
जिनी इक मनि नामु धिआइआ गुरमती वीचारि ॥  
जिन्होंने भी गुरु उपदेशानुसार एकाग्र मन से प्रभु के नाम का सुमिरन किया है।

ਤਿਨ ਕੇ ਮੁਖ ਸਦ ਉਜਲੇ ਤਿਤੁ ਸਚੈ ਦਰਬਾਰਿ ॥
तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥  
इस सत्य स्वरूप परमात्मा के दरबार में उनके मुँह सदा उज्ज्वल होते हैं, अर्थात् वे प्रभु दरबार में सम्मानित होते हैं।

ਓਇ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵਹਿ ਸਦਾ ਸਦਾ ਸਚੈ ਨਾਮਿ ਪਿਆਰਿ ॥੧॥
ओइ अम्रितु पीवहि सदा सदा सचै नामि पिआरि ॥१॥
वे ही गुरुमुख जीव सत्य नाम के साथ प्रीत करके सदैव ब्रह्मानंद रूपी अमृत-पान करते हैं ॥१॥

ਭਾਈ ਰੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥
भाई रे गुरमुखि सदा पति होइ ॥  
हे भाई ! गुरुमुख जीवों का सदा सम्मान होता है।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਸਦਾ ਧਿਆਈਐ ਮਲੁ ਹਉਮੈ ਕਢੈ ਧੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि हरि सदा धिआईऐ मलु हउमै कढै धोइ ॥१॥ रहाउ ॥  
हरि प्रभु का नाम-सुमिरन सदा करें तो वह अहंकार रूपी मैल हृदय से धोकर निकाल देता है॥ १॥ रहाउ॥

ਮਨਮੁਖ ਨਾਮੁ ਨ ਜਾਣਨੀ ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਪਤਿ ਜਾਇ ॥
मनमुख नामु न जाणनी विणु नावै पति जाइ ॥  
स्वेच्छाचारी जीव नाम-सुमिरन के बारे में नहीं जानता तथा नाम-सुमिरन के बिना सम्मान नष्ट हो जाता है।

ਸਬਦੈ ਸਾਦੁ ਨ ਆਇਓ ਲਾਗੇ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
सबदै सादु न आइओ लागे दूजै भाइ ॥  
ऐसे जीवों को द्वैत-भाव में लिप्त होने के कारण गुरु-शिक्षा का रस अनुभव नहीं होता।

ਵਿਸਟਾ ਕੇ ਕੀੜੇ ਪਵਹਿ ਵਿਚਿ ਵਿਸਟਾ ਸੇ ਵਿਸਟਾ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇ ॥੨॥
विसटा के कीड़े पवहि विचि विसटा से विसटा माहि समाइ ॥२॥ 
जिस प्रकार विष्ठा के कीड़े विष्ठा में ही पड़े रहते हैं, और वही पर ही मर जाते हैं (उसी प्रकार स्वेच्छाचारी जीव भी विषय-विकारों की गंदगी में लिप्त रह कर अंत में नरकों की गंदगी में समा जाता है) ॥ २॥

ਤਿਨ ਕਾ ਜਨਮੁ ਸਫਲੁ ਹੈ ਜੋ ਚਲਹਿ ਸਤਗੁਰ ਭਾਇ ॥
तिन का जनमु सफलु है जो चलहि सतगुर भाइ ॥  
उन जीवों का जन्म सफल है जो सतिगुरु के विचारानुसार चलते हैं।

ਕੁਲੁ ਉਧਾਰਹਿ ਆਪਣਾ ਧੰਨੁ ਜਣੇਦੀ ਮਾਇ ॥
कुलु उधारहि आपणा धंनु जणेदी माइ ॥ 
वह स्वयं ही मुक्त नहीं होते, बल्कि अपने कई कुटुम्ब भी मुक्त कर लेते हैं, ऐसे जीवों की जन्मदात्री माँ धन्य है।   

ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਜਿਸ ਨਉ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਰਜਾਇ ॥੩॥
हरि हरि नामु धिआईऐ जिस नउ किरपा करे रजाइ ॥३॥ 
सो हे भाई ! परम पिता परमेश्वर का नाम-सुमिरन करो, किन्तु नाम सुमिरन भी वही जीव कर सकता है, जिस पर वह परमात्मा कृपा करता है॥ ३॥

ਜਿਨੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਇ ॥
जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ विचहु आपु गवाइ ॥ 
जिन गुरुमुख जीवों ने अहं-भाव त्याग कर नाम-सुमिरन किया है।

ਓਇ ਅੰਦਰਹੁ ਬਾਹਰਹੁ ਨਿਰਮਲੇ ਸਚੇ ਸਚਿ ਸਮਾਇ ॥
ओइ अंदरहु बाहरहु निरमले सचे सचि समाइ ॥ 
वे अन्दर-बाहर से (अंतर्मन व तन से) निर्मल हैं और निश्चित ही उस सत्य स्वरूप परमात्मा में अभेद हो रहे हैं।

ਨਾਨਕ ਆਏ ਸੇ ਪਰਵਾਣੁ ਹਹਿ ਜਿਨ ਗੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਧਿਆਇ ॥੪॥੫॥੩੮॥
नानक आए से परवाणु हहि जिन गुरमती हरि धिआइ ॥४॥५॥३८॥ 
नानक देव जी कथन करते हैं कि उन गुरुमुख जीवों का संसार में आना स्वीकृत है, जिन्होंने गुरु की शिक्षा द्वारा प्रभु का नाम-सुमिरन किया है॥ ४॥ ५॥ ३८॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥ 
सिरीरागु महला ३ ॥  

ਹਰਿ ਭਗਤਾ ਹਰਿ ਧਨੁ ਰਾਸਿ ਹੈ ਗੁਰ ਪੂਛਿ ਕਰਹਿ ਵਾਪਾਰੁ ॥
हरि भगता हरि धनु रासि है गुर पूछि करहि वापारु ॥ 
हरि भक्तों के पास हरि की नाम रूपी पूंजी है और वे गुरु से पूछ कर नाम का व्यापार करते हैं,

ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਨਿ ਸਦਾ ਸਦਾ ਵਖਰੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਅਧਾਰੁ ॥
हरि नामु सलाहनि सदा सदा वखरु हरि नामु अधारु ॥
वे सदैव परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं और वे हरिनाम रूपी सौदे के आश्रय में ही रहते हैं।   

ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਇਆ ਹਰਿ ਭਗਤਾ ਅਤੁਟੁ ਭੰਡਾਰੁ ॥੧॥
गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ हरि भगता अतुटु भंडारु ॥१॥  
पूर्ण गुरु ने उन्हें परमात्मा का नाम दृढ़ करवाया है, इसलिए उनका अक्षय भण्डार नाम ही है॥ १॥

ਭਾਈ ਰੇ ਇਸੁ ਮਨ ਕਉ ਸਮਝਾਇ ॥
भाई रे इसु मन कउ समझाइ ॥  
हे भाई ! इस चंचल मन को समझाओ।

ਏ ਮਨ ਆਲਸੁ ਕਿਆ ਕਰਹਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
ए मन आलसु किआ करहि गुरमुखि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ ॥  
यह आलस्य क्यों करता है, गुरु के द्वारा इस मन को नाम-स्मरण में लीन करो ॥ १॥ रहाउ॥

ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਹਰਿ ਕਾ ਪਿਆਰੁ ਹੈ ਜੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰੇ ਬੀਚਾਰੁ ॥
हरि भगति हरि का पिआरु है जे गुरमुखि करे बीचारु ॥  
यदि कोई जीव गुरु उपदेश द्वारा चिन्तन करे कि हरि भक्ति क्या है? तो प्रत्युत्तर है कि हरि-भक्ति हरि—परमेश्वर का प्रेम है।

ਪਾਖੰਡਿ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਵਈ ਦੁਬਿਧਾ ਬੋਲੁ ਖੁਆਰੁ ॥
पाखंडि भगति न होवई दुबिधा बोलु खुआरु ॥ 
छल-कपट करने से भक्ति नहीं हो सकती, छल-कपट से किए वचन दुविधापूर्ण अर्थात् द्वैत-भाव वाले होते हैं, जो जीव को अपमानित करते हैं।

ਸੋ ਜਨੁ ਰਲਾਇਆ ਨਾ ਰਲੈ ਜਿਸੁ ਅੰਤਰਿ ਬਿਬੇਕ ਬੀਚਾਰੁ ॥੨॥
सो जनु रलाइआ ना रलै जिसु अंतरि बिबेक बीचारु ॥२॥
जिसके अंतर्मन में ज्ञान-विवेक होता है, वह गुरुमुख जीव किसी के मिलाने से नहीं मिलता ॥ २॥

ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਹਰਿ ਆਖੀਐ ਜੋ ਹਰਿ ਰਾਖੈ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥
सो सेवकु हरि आखीऐ जो हरि राखै उरि धारि ॥ 
वही जीव परमेश्वर का सेवक कहलाता है, जो प्रायः परमात्मा को हृदय में धारण करके रखता है।

ਮਨੁ ਤਨੁ ਸਉਪੇ ਆਗੈ ਧਰੇ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਮਾਰਿ ॥
मनु तनु सउपे आगै धरे हउमै विचहु मारि ॥  
इसके अतिरिक्त अंतर्मन से अहंत्व का त्याग करके अपना तन-मन उस परमात्मा को अर्पित कर देता है।

ਧਨੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ਹੈ ਜਿ ਕਦੇ ਨ ਆਵੈ ਹਾਰਿ ॥੩॥
धनु गुरमुखि सो परवाणु है जि कदे न आवै हारि ॥३॥ 
वह गुरुमुख जीव धन्य एवं परमात्मा के द्वार पर स्वीकृत होता है, जो विषय-विकारों के समक्ष कभी अपनी पराजय स्वीकार करके नहीं आता ॥ ३॥

ਕਰਮਿ ਮਿਲੈ ਤਾ ਪਾਈਐ ਵਿਣੁ ਕਰਮੈ ਪਾਇਆ ਨ ਜਾਇ ॥
करमि मिलै ता पाईऐ विणु करमै पाइआ न जाइ ॥ 
परमात्मा अपनी कृपा से ही किसी जीव को मिले तो उसे प्राप्त किया जा सकता, अन्यथा उसकी कृपा के बिना उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

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